भगवद्गीता में अच्छे का लक्षण क्या है?

श्री भगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।16.3।।

व्याख्या–[पंद्रहवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि ‘जो मुझे पुरुषोत्तम जान लेता है, वह सब प्रकारसे मेरा ही भजन करता है अर्थात् वह मेरा अनन्य भक्त हो जाता है। इस प्रकार एकमात्र भगवान्का उद्देश्य होनेपर साधकमें दैवी-सम्पत्ति स्वतः प्रकट होने लग जाती है। अतः भगवान् पहले तीन श्लोकोंमें क्रमशः भाव, आचरण और प्रभावको लेकर दैवी-सम्पत्तिका वर्णन करते हैं।]

अभयम् (टिप्पणी प0 790.1)–अनिष्टकी आशङ्कासे मनुष्यके भीतर जो घबराहट होती है, उसका नाम भय है और उस भयके सर्वथा अभावका नाम ‘अभय’ है।

भय दो रीतिसे होता है–(1) बाहरसे और (2) भीतरसे।

(1) बाहरसे आनेवाला भय–(क) चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प आदि प्राणियोंसे जो भय होता है, वह बाहरका भय है। यह भय शरीरनाशकी आशङ्कासे ही होता है। परन्तु जब यह अनुभव हो जाता है कि यह शरीर नाशवान् है और जानेवाला ही है, तो फिर भय नहीं रहता।

बीड़ीसिगरेट, अफीम, भाँग, शराब आदिके व्यसनोंको छो़ड़नेका एवं व्यसनी मित्रोंसे अपनी मित्रता टूटनेका जो भय होता है, वह मनुष्यकी अपनी कायरतासे ही होता है। कायरता छोड़नेसे यह भाव नहीं रहता।

(ख) अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार कर्तव्यपालन करते हुए उसमें भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध कोई काम न हो जाय हमें विद्या पढ़ानेवाले, अच्छी शिक्षा देनेवाले आचार्य, गुरु, सन्तमहात्मा, मातापिता आदिके वचनोंकी आज्ञाकी अवहेलना न हो जाय हमारे द्वारा शास्त्र और कुलमर्यादाके विरुद्ध कोई आचरण न बन जाय — इस प्रकारका भय भी बाहरी भय कहलाता है। परन्तु यह भय वास्तवमें भय नहीं है, प्रत्युत यह तो अभय बनानेवाला भय है। ऐसा भय तो साधकके जीवनमें होना ही चाहिये। ऐसा भय होनेसे ही वह अपने मार्गपर ठीक तरहसे चल सकता है। कहा भी है —

हरिडर, गुरुडर, जगतडर, डर करनी में सार।
रज्जब डर्या सो ऊबर्या, गाफिल खायी मार।।

(2) भीतरसे पैदा होनेवाला भय–(क) मनुष्य जब पाप, अन्याय, अत्याचार आदि निषिद्ध आचरण करना चाहता है, तब (उनको करनेकी भावना मनमें आते ही) भीतरसे भय पैदा होता है। मनुष्य निषिद्ध आचरण तभीतक करता है, जबतक उसके मनमें मेरा शरीर बना रहे, मेरा मानसम्मान होता रहे, मेरेको सांसारिक भोगपदार्थ मिलते रहें, इस प्रकार सांसारिक जड वस्तुओंकी प्राप्तिका और उनकी रक्षाका उद्देश्य रहता है (टिप्पणी प0 790.2)। परन्तु जब मनुष्यका एकमात्र उद्देश्य चिन्मयतत्त्वको प्राप्त करनेका हो जाता है (टिप्पणी प0 791.1), तब उसके द्वारा अन्याय, दुराचार छूट जाते हैं और वह सर्वथा अभय हो जाता है। कारण कि उसके लक्ष्य परमात्मतत्त्वमें कभी कमी नहीं आती और वह कभी नष्ट नहीं होता।

(ख) जब मनुष्यके आचरण ठीक नहीं होते और वह अन्याय, अत्याचार आदिमें लगा रहता है, तब उसको भय लगता है। जैसे, रावणसे मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि सभी डरते थे, पर वही रावण जब सीताका हरण करनेके लिये जाता है, तब वह डरता है। ऐसे ही कौरवोंकी अठारह अक्षौहिणी सेनाके बाजे बजे, तो उसका पाण्डवसेनापर कुछ भी असर नहीं हुआ (गीता 1। 13), पर जब पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनाके बाजे बजे, तब कौरवसेनाके हृदय विदीर्ण हो गये (1। 19)। तात्पर्य यह है कि अन्याय, अत्याचार करनेवालोंके हृदय कमजोर हो जाते है, इसलिये वे भयभीत होते हैं। जब मनुष्य अन्याय आदिको छोड़कर अपने आचरणों एवं भावोंको शुद्ध बनाता है, तब उसका भय मिट जाता है।

(ग) मनुष्यशरीर प्राप्त करके यह जीव जबतक करनेयोग्यको नहीं करता, जाननेयोग्यको नहीं जानता और पानेयोग्यको नहीं पाता? तबतक वह सर्वथा अभय नहीं हो सकता उसके जीवनमें भय रहता ही है।

भगवान्की तरफ चलनेवाला साधक भगवान्पर जितनाजितना अधिक विश्वास करता है और उनके आश्रित होता है? उतनाहीउतना वह अभय होता चला जाता है। उसमें स्वतः यह विचार आता है कि मैं तो परमात्माका अंश हूँ अतः कभी नष्ट होनेवाला नहीं हूँ, तो फिर भय किस बातका (टिप्पणी प0 791.2) और संसारके अंश शरीर आदि सब पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं, तो फिर भय किस बातका ऐसा विवेक स्पष्टरूपसे प्रकट होनेपर भय स्वतः नष्ट हो जाता है और साधक सर्वथा अभय हो जाता है।

भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेपर, भगवान्को ही अपना माननेपर शरीर, कुटुम्ब आदिमें ममता नहीं रहती। ममता न रहनेसे मरनेका भय नहीं रहता और साधक अभय हो जाता है।

‘सत्त्वसंशुद्धिः’– अन्तःकरणकी सम्यक् शुद्धिको सत्त्वसंशुद्धि कहते हैं। सम्यक् शुद्धि क्या है संसारसे रागरहित होकर भगवान्में अनुराग हो जाना ही अन्तःकरणकी सम्यक् शुद्धि है। जब अपना विचार, भाव, उद्देश्य, लक्ष्य केवल एक परमात्माकी प्राप्तिका हो जाता है, तब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। कारण कि नाशवान् वस्तुओंकी प्राप्तिका उद्देश्य होनेसे ही अन्तःकरणमें मल, विक्षेप और आवरण — ये तीन तरहके दोष आते हैं। शास्त्रोंमें मलदोषको दूर करनेके लिये निष्कामभावसे कर्म (सेवा), विक्षेपदोषको दूर करनेके लिये उपासना और आवरणदोषको दूर करनेके लिये ज्ञान बताया है। यह होनेपर भी अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये सबसे बढ़िया उपाय है — अन्तःकरणको अपना न मानना।

साधकको पुराने पापको दूर करनेके लिये या किसी परिस्थितिके वशीभूत होकर किये गये नये पापको दूर करनेके लिये अन्य प्रायश्चित्त करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं है। उसको तो चाहिये कि वह जो साधन कर रहा है, उसीमें उत्साह और तत्परतापूर्वक लगा रहे। फिर उसके ज्ञातअज्ञात सब पाप दूर हो जायँगे और अन्तःकरण स्वतः शुद्ध हो जायगा।

साधकमें ऐसी एक भावना बन जाती है कि साधनभजन करना अलग काम है और व्यापारधंधा आदि करना अलग काम है अर्थात् ये दोनों अलगअलग विभाग हैं। इसलिये व्यापार आदि व्यवहारमें झूठकपट आदि तो करने ही पड़ते हैं — ऐसी जो छूट ली जाती है? उससे अन्तःकरण बहुत ही अशुद्ध होता है। साधनके साथसाथ जो असाधन होता रहता है, उससे साधनमें जल्दी उन्नति नहीं होती। इसलिये साधकको सदा सावधान रहना चाहिये अर्थात् नये पाप कभी न बने — ऐसी सावधानी सदासर्वदा बनी रहनी चाहिये।

साधक भूलसे किये हुए दुष्कर्मोंके अनुसार अपनेको दोषी मान लेता है और अपना बुरा करनेवाले व्यक्तिको भी दोषी मान लेता है, जिससे उसका अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। उस अशुद्धिको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह भूलसे किये हुए दुष्कर्मको पुनः कभी न करनेका दृढ़ व्रत ले ले तथा अपना बुरा करनेवाले व्यक्तिके अपराधको क्षमा माँगे बिना ही क्षमा कर दे और भगवान्से प्रार्थना करे कि हे नाथ मेरा जो कुछ बुरा हुआ है, वह तो मेरे दुष्कर्मोंका ही फल है। वह बेचारा तो मुफ्तमें ही ऐसा कर बैठा है। उसका इसमें कोई दोष नहीं है। आप उसे क्षमा कर दें। ऐसा करनेसे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है।

‘ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’– ज्ञानके लिये योगमें स्थित होना अर्थात् परमात्मतत्त्वका जो ज्ञान (बोध) है, वह चाहे सगुणका हो या निर्गुणका, उस ज्ञानके लिये योगमें स्थित होना आवश्यक है। योगका अर्थ है — सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिअप्राप्तिमें, मानअपमानमें, निन्दास्तुतिमें, रोगनीरोगतामें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें हर्षशोकादि न होकर निर्विकार रहना।

‘दानम्’– लोकदृष्टिमें जिन वस्तुओंको अपना माना जाता है, उन वस्तुओंको सत्पात्रका तथा देश, काल, परिस्थिति आदिका विचार रखते हुए आवश्यकतानुसार दूसरोंको वितीर्ण कर देना दान है। दान कई तरहके होते हैं जैसे भूमिदान, गोदान, स्वर्णदान, अन्नदान, वस्त्रदान आदि। इन सबमें अन्नदान प्रधान है। परन्तु इससे भी अभयदान प्रधान (श्रेष्ठ) है (टिप्पणी प0 792.1)। उस अभयदानके दो भेद होते हैं –,

(1) संसारकी आफतसे, विघ्नोंसे, परिस्थितियोंसे भयभीत हुएको अपनी शक्ति, सामर्थ्यके अनुसार भयरहित करना, उसे आश्वासन देना, उसकी सहायता करना। यह अभयदान उसके शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको लेकर होता है।

(2) संसारमें फँसे हुए व्यक्तिको जन्ममरणसे रहित करनेके लिये भगवान्की कथा आदि सुनाना (टिप्पणी प0 792.2)। गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थोंको एवं उनके भावोंको सरलभाषामें छपवाकर सस्ते दामोंमें लोगोंको देना अथवा कोई समझना चाहे तो उसको समझाना, जिससे उसका कल्याण हो जाय। ऐसे दानसे भगवान् बहुत राजी होते हैं (गीता 18। 68 — 69) क्योंकि भगवान् ही सबमें परिपूर्ण हैं। अतः जितने अधिक जीवोंका कल्याण होता है, उतने ही अधिक भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह सर्वश्रेष्ठ अभयदान है। इसमें भी भगवत्सम्बन्धी बातें दूसरोंको सुनाते समय साधक वक्ताको यह सावधानी रखनी चाहिये कि वह दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता न माने, प्रत्युत इसमें भगवान्की कृपा माने कि भगवान् ही श्रोताओंके रूपमें आकर मेरा समय सार्थक कर रहे हैं।

ऊपर जितने दान बताये हैं, उनके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़कर साधक ऐसा माने कि अपने पास वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता आदि जो कुछ भी है, वह सब भगवान्ने दूसरोंके सेवा करनेके लिये मुझे निमित्त बनाकर दी है। अतः भगवत्प्रीत्यर्थ आवश्यकतानुसार जिसकिसीको जो कुछ दिया जाय, वह सब उसीका समझकर उसे देना दान है।

‘दमः’– इन्द्रियोंको पूरी तरह वशमें करनेका नाम दम है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और शरीरसे कोई भी प्रवृत्ति शास्त्रनिषिद्ध नहीं होनी चाहिये। शास्त्रविहित प्रवृत्ति भी अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितके लिये ही होनी चाहिये। इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे इन्द्रियलोलुपता, आसक्ति और पराधीनता नहीं रहती एवं शरीर और इन्द्रियोंके बर्ताव शुद्ध, निर्मल होते हैं।

साधकका उद्देश्य इन्द्रियोंके दमनका होनेसे अकर्तव्यमें तो उसकी प्रवृत्ति होती ही नहीं और कर्तव्यमें स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, तो उसमें स्वार्थ, अभिमान आसक्ति, कामना आदि दोष नहीं रहते। यदि कभी किसी कार्यमें स्वार्थभाव आ भी जाता है, तो वह उसका दमन करता चला जाता है, जिससे अशुद्धि मिटती जाती है और शुद्धि होती चली जाती है और आगे चलकर उसका दम अर्थात् इन्द्रियसंयम सिद्ध हो जाता है।

‘यज्ञः’– यज्ञ शब्दका अर्थ आहुति देना होता है। अतः अपने वर्णाश्रमके अनुसार होम, बलिवैश्वदेव आदि करना यज्ञ है। इसके सिवाय गीताकी दृष्टिसे अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदिके अनुसार जिसकिसी समय जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उसको स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितकी,भावनासे या भगवत्प्रीत्यर्थ करना यज्ञ है। इसके अतिरिक्त जीविकासम्बन्धी व्यापार, खेती आदि तथा शरीरनिर्वाहसम्बन्धी खानापीना, चलनाफिरना, सोनाजागना, देनालेना आदि सभी क्रियाएँ भगवत्प्रीत्यर्थ करना यज्ञ है। ऐसे ही मातापिता, आचार्य, गुरुजन आदिकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको मन, वाणी, तन और धनसे सुख पहुँचाकर उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना और गौ, ब्राह्मण, देवता, परमात्मा आदिका पूजन करना, सत्कार करना — ये सभी यज्ञ हैं।

‘स्वाध्यायः’ — अपने ध्येयकी सिद्धिके लिये भगवन्नामका जप और गीता, भागवत, रामायण, महाभारत आदिके पठनपाठनका नाम स्वाध्याय है। वास्तवमें तो ‘स्वस्य अध्यायः (अध्ययनम्) स्वाध्यायः’ के अनुसार अपनी वृत्तियोंका, अपनी स्थितिका ठीक तरहसे अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। इसमें भी साधकको न तो अपनी वृत्तियोंसे अपनी स्थितिकी कसौटी लगानी है और न वृत्तियोंके अधीन अपनी स्थिति ही माननी है। कारण कि वृत्तियाँ तो हरदम आतीजाती रहती हैं, बदलती रहती हैं। तो फिर स्वाभाविक यह प्रश्न उठता है कि क्या हम अपनी वृत्तियोंको शुद्ध न करें वास्तवमें तो साधकका कर्तव्य वृत्तियोंको शुद्ध करनेका ही होना चाहिये और वह शुद्धि अन्तःकरण तथा उसकी वृत्तियोंको अपना न माननेसे बहुत जल्दी हो जाती है क्योंकि उनको अपना मानना ही मूल अशुद्धि है। साक्षात् परमात्माका अंश होनेसे अपना स्वरूप कभी अशुद्ध हुआ ही नहीं। केवल वृत्तियोंके अशुद्ध होनेसे ही उसका यथार्थ अनुभव नहीं होता।

‘तपः’ — भूखप्यास, सरदीगरमी, वर्षा आदि सहना भी एक तप है, पर इस तपमें भूखप्यास आदिको जानकर सहते हैं। वास्तवमें साधन करते हुए अथवा जीवननिर्वाह करते हुए देश, काल, परिस्थिति आदिको लेकर जो कष्ट, आफत, विघ्न आदि आते हैं, उनको प्रसन्नतापूर्वक सहना ही तप है (टिप्पणी प0 793.1) क्योंकि इस तपमें पहले किये गये पापोंका नाश होता है औह सहनेवालेमें सहनेकी एक नयी शक्ति, एक नया बल आता है।

साधकको सावधान रहना चाहिये कि वह उस तपोबलका प्रयोग दूसरोंको वरदान देनेमें, शाप देने या अनिष्ट करनेमें तथा अपनी इच्छापूर्ति करनेमें न लगाये, प्रत्युत उस बलको अपने साधनमें जो बाधाएँ आती हैं, उनको प्रसन्नतासे सहनेकी शक्ति बढ़ानेमें ही लगाये।

साधक जब साधन करता है, तब वह साधनमें कई तरहसे विघ्न मानता है। वह समझता है कि मुझे एकान्त मिले तो मैं साधन कर सकता हूँ, वायुमण्डल अच्छा हो तो साधन कर सकता हूँ इत्यादि। इन सब अनुकूलताओंकी चाहना न करना अर्थात् उनके अधीन न होना भी तप है। साधकको अपना साधन परिस्थितियोंके अधीन नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत परिस्थितिके अनुसार अपना साधन बना लेना चाहिये। साधकको अपनी चेष्टा तो एकान्तमें साधन करनेकी करनी चाहिये, पर एकान्त न मिले तो मिली हुई परिस्थितिको भगवान्की भेजी हुई समझकर विशेष उत्साहसे प्रसन्नतापूर्वक साधनमें प्रवृत्ति होना चाहिये।

‘आर्जवम्’– सरलता, सीधेपनको आर्जव कहते हैं। यह सरलता साधकका विशेष गुण है। यदि साधक यह चाहता है कि दूसरे लोग मुझे अच्छा समझें, मेरा व्यवहार ठीक नहीं होगा तो लोग मुझे बढ़िया नहीं मानेंगे, इसलिये मुझे सरलतासे रहना चाहिये, तो यह एक प्रकारका कपट ही है। इसमें साधकमें बनावटीपन आता है, जब कि साधकमें सीधा, सरल भाव होना चाहिये। सीधा, सरल होनेके कारण लोग उसको मूर्ख, बेसमझ कह सकते हैं, पर उससे साधककी कोई हानि नहीं है। अपने उद्धारके लिये तो सरलता बड़े कामकी चीज है —

‘कपट गाँठ मन में नहीं, सबसों सरल सुभाव।’
नारायन ता भक्त की, लगी किनारे नाव।।

इसलिये साधकके शरीर, वाणी और मनके व्यवहारमें कोई बनावटीपन नहीं रहना चाहिये। उसमें स्वाभाविक सीधापन हो।

‘अहिंसा’–शरीर, मन, वाणी, भाव आदिके द्वारा किसीका भी किसी प्रकारसे अनिष्ट न करनेको तथा अनिष्ट न चाहनेको ‘अहिंसा’ कहते हैं। वास्तवमें सर्वथा अहिंसा तब होती है, जब मनष्य संसारकी तरफसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलता है। उसके द्वारा ‘अहिंसा’ का पालन स्वतः होता है। परन्तु जो रागपूर्वक, भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है वह कभी सर्वथा अहिंसक नहीं हो सकता। वह अपना पतन तो करता ही है, जिन पदार्थों आदिको वह भोगता है, उनका भी नाश करता है।जो संसारके सीमित पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपने) न होनेपर भी व्यक्तिगत मानकर सुखबुद्धिसे भोगता है, वह हिंसा ही करता है। कारण कि समष्टि संसारसे सेवाके लिये मिले हुए पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, आदिमेंसे किसीको भी अपने भोगके लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है। यदि मनुष्य समष्टि संसारसे मिली हुई वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिको संसारकी ही मानकर निर्ममतापूर्वक संसारकी सेवामें लगा दे, तो वह हिंसासे बच सकता है और वही अहिंसक हो सकता है।

जो सुख और भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है, उसको देखकर, जिनको वे भोगपदार्थ नहीं मिलते — ऐसे अभावग्रस्तोंको दुःखसंताप होता है। यह उनकी हिंसा ही है क्योंकि भोगी व्यक्तिमें अपना स्वार्थ और सुखबुद्धि रहती है तथा दूसरोंके दुःखकी लापरवाही रहती है। परन्तु जो संतमहापुरुष केवल दूसरोंका हित करनेके लिये ही जीवननिर्वाह करते हैं, उनको देखकर किसीको दुःख हो भी जायगा, तो भी उनको हिंसा नहीं लगेगी क्योंकि वे भोगबुद्धिसे जीवननिर्वाह करते ही नहीं — ‘शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्’ (गीता 4। 21)।केवल परमात्माकी ओर चलनेवालेके द्वारा हिंसा नहीं होती क्योंकि वह भोगबुद्धिसे पदार्थ आदिका सेवन नहीं करता। परमत्माकी ओर चलनेवाला साधक शरीर, मन, वाणीके द्वारा कभी किसीको दुःख नहीं पहुँचाता। यदि उसकी बाह्य क्रियाओँसे किसीको दुःख होता है, तो यह दुःख उसके खुदके स्वभावसे ही होता है। साधककी तो भीतरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख देनेकी भावना नहीं होनी चाहिये। उसका भाव निरन्तर सबका हित करनेका होना चाहिये — ‘सर्वभूतहिते रताः’।साधककी साधानमें कोई बाधा डाल दे, तो उसे उसपर क्रोध नहीं आता और न उसके मनमें उसके अहितकी भावना (हिंसा) ही पैदा होती है। हाँ, परमात्माकी ओर चलनेमें बाधा पड़नेसे उसको दुःख हो सकता है, पर वह दुःख भी सांसारिक दुःखकी तरह नहीं होता। साधकको बाधा लगती है, तो वह भगवान्को पुकारता है कि हे नाथ! मेरी कहाँ भूल हुई, जिससे बाधा लग रही है ऐसा विचार करके उसे रोना आ सकता है; पर बाधा डालनेवालेके प्रति क्रोध, द्वेष नहीं हो सकता। बाधा लगनेपर साधकमें तत्परता और सावधानी आती है। यदि उसमें बाधा डालनेवालेके प्रति द्वेष होता है, तो जितने अंशमें द्वेषवृत्ति रहती है, उतने अंशमें तत्परताकी कमी है, अपने साधनका आग्रह है।साधककमें एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होनेसे साधनमें रुचि रहती है और आग्रह होनेसे साधनमें राग होता है। रुचि होनेसे अपने साधनमें कहाँ-कहाँ कमी है, उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करनेकी शक्ति आती है, तथा उसे दूर करनेकी चेष्टा भी होती है। परन्तु राग होनेसे साधनमें विघ्न डालनेवालेके साथ द्वेष होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो साधनमें हमारी रुचि कम होनेसे ही दूसरा हमारे साधनमें बाधा डालता है। अगर साधनमें हमारी रुचि कम न हो तो दूसरा हमारे साधनमें बाधा नहीं डालेगा, प्रत्युत यह सोचकर उपेक्षा कर देगा कि यह जिद्दी है, मानेगा नहीं अतः जैसा चाहे, वैसा करने दो।जैसे पुष्पसे सुगन्ध स्वतः फैलती है, ऐसे ही साधकसे स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्रका बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है। परन्तु जो अपने दुर्गुणदुराचारोंके द्वारा वायुमण्डलको अशुद्ध करता रहता है, वह प्राणिमात्रकी हिंसा करनेका अपराधी होता है।’सत्यम्’– अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे जैसा सुना, देखा, पढ़ा,समझा और निश्चय किया है, उससे न अधिक और न कम — वैसाकावैसा प्रिय शब्दोंमें कह देना,सत्य है।सत्यस्वरूप परमात्माको पाने और जाननेका एकमात्र उद्देश्य हो जानेपर साधकके द्वारा मन, वाणी और क्रियासे असत्यव्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्यव्यवहार, सबके हितका व्यवहार ही होता है। जो सत्यको जानना चाहता है, वह सत्यके ही सम्मुख रहता है। इसलिये उसके मनवाणीशरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं, वे सभी उत्साहपूर्वक सत्यकी ओर चलनेके लिये ही होती हैं।’अक्रोधः’– दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, वह क्रोध है। पर जबतक अन्तःकरणमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी भावना पैदा नहीं होती, तबतक वह क्षोभ है, क्रोध नहीं।परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधन करनेवाला मनुष्य अपना अपकार करनेवालेका भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बातको समझता है कि अनिष्ट करनेवाला व्यक्ति वास्तवमें हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमे दुःख देनेके लिये आया है, यह हमने पहले कोई गलती की है, उसीका फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है, निर्मल कर रहा है। जैसे, डॉक्टर किसी रुग्ण अङ्ग को काटता है, तो उसपर रोगी क्रोध नहीं करता, प्रत्युत उसे अच्छा मानता है, ठीक मानता है। उसके रुग्ण अङ्गको काटना तो उसे ठीक करनेके लिये ही है। ऐसे ही साधकको कोई अहितकी भावनासे किसी तरहसे दुःख देता है, तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरेको शुद्ध, निर्मल बनानेमें निमित्त बन रहा है अतः उसपर क्रोध कैसे वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्यके लिये सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है, आगे वैसी गलती न करूँ।जो लोग साधकका हित करनेवाले हैं, उसकी सेवा करनेवाले हैं, वे तो साधकको सुख पहुँचाकर उसके पुण्योंका नाश करते हैं। पर साधकको उनपर (उसके पुण्योंका नाश करनेके कारण) क्रोध नहीं आता। उनपर साधकको यह विचार आता है कि वे जो मेरी सेवा करते हैं, मेरे अनुकूल आचरण करते हैं, यह तो उनकी सज्जनता है, उनका श्रेष्ठ भाव है। परन्तु पुण्योंका नाश तो तब होता है, जब मैं उनकी सेवासे सुख भोगता हूँ। इस प्रकार साधककी दृष्टि सेवा करनेवालोंकी अच्छाई, शुद्ध नीयतपर ही जाती है। अतः साधकको न तो दुःख देनेवालोंपर क्रोध होता है और न सुख देनेवालोंपर।

‘त्यागः’– संसारसे विमुख हो जाना ही असली त्याग है। साधकको जीवनमें बाहरका और भीतरका — दोनोंका ही त्याग होना चाहिये। जैसे, बाहरसे पाप, अन्याय, अत्याचार, दुराचार आदिका और बाहरी सुखआराम आदिका त्याग भी करना चाहिये, और भीतरसे सांसारिक नाशवान् वस्तुओंकी कामनाका त्याग भी करना चाहिये। इससे भी बाहरके त्यागकी अपेक्षा भीतरकी कामनाका त्याग श्रेष्ठ है। कामनाका सर्वथा त्याग होनेपर तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है — ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता 12। 12)।साधकके लिये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंकी कामना ही वास्तवमें सबसे ज्यादा बाधक होती है। अतः,कामनाका सर्वथा त्याग करना चाहिये। त्याग कब होता है जब साधकका उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही हो जाता है, तब उसकी कामनाएँ दूर होती चली जाती हैं। कारण कि सांसारिक भोग और संग्रह साधकका लक्ष्य नहीं होता। अतः वह सांसारिक भोग और संग्रहकी कामनाका त्याग करते हुए अपने साधनमें आगे बढ़ता रहता है।’शान्तिः’ — अन्तःकरणमें रागद्वेषजनित हलचलका न होना शान्ति है क्योंकि संसारके साथ रागद्वेष करनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति आती है और उनके न होनेसे अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त, प्रसन्न रहता है।अनुकूलतासे पुराने पुण्योंका नाश होता है और उसमें अपना स्वभाव सुधरनेकी अपेक्षा बिगड़नेकी सम्भावना अधिक रहती है। परन्तु प्रतिकूलता आनेपर पापोंका नाश होता है और स्वभावमें भी सुधार होता है। इस बातको समझनेपर प्रतिकूलतामें भी स्वतः शान्ति बनी रहती है।किसी परिस्थिति आदिको लेकर साधकमें कभी रागद्वेषका भाव हो भी जाता है तो उसके मनमें अशान्ति पैदा हो जाती है और अशान्ति होते ही वह तुरंत सावधान हो जाता है कि रागद्वेषपूर्वक कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इस विचारसे फिर शान्ति आ जाती है और समय पाकर स्थिर हो जाती है।’अपैशुनम्’– किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता है और इसका सर्वथा अभाव ही अपैशुन है। परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधक कभी किसीकी चुगली नहीं करता। ज्यों-ज्यों उसका साधन आगे बढ़ता चला जाता है, त्यों-ही-त्यों उसकी दोषदृष्टि और द्वेषवृत्ति मिटकर दूसरोंके प्रति उसका स्वतः ही अच्छा भाव होता चला जाता है। उसके मनमें यह विचार भी नहीं आता कि मैं साधन करनेवाला हूँ और ये दूसरे (साधन न करनेवाले) साधारण मनुष्य हैं, प्रत्युत तत्परतासे साधन होनेपर उसे जैसी अपनी स्थिति (जडतासे सम्बन्ध न होना) दिखायी देती है, वैसी ही दूसरोंकी स्थिति भी दिखायी देती है कि वास्तवमें उनका भी जडतासे सम्बन्ध नहीं है, केवल सम्बन्ध माना हुआ है। इस तरह जब उसकी दृष्टिमें किसीका भी जडतासे सम्बन्ध है ही नहीं, तो वह किसीका दोष किसीके प्रति क्यों प्रकट करेगाभक्तिमार्गवाला सर्वत्र अपने प्रभुको देखता है, ज्ञानमार्गवाला केवल अपने स्वरूपको ही देखता है और कर्मयोगमार्गवाला अपने सेव्यको देखता है। इसलिये साधक किसीकी बुराई, निन्दा, चुगली आदि कर ही कैसे सकता है’दया भूतेषु’– दूसरोंको दुःखी देखकर उनका दुःख दूर करनेकी भावनाको दया कहते हैं। भगवान्की, संतमहात्माओंकी, साधकोंकी और साधारण मनुष्योंकी दया अलगअलग होती है —

(1) ‘भगवान्की दया’– भगवान्की दया सभीको शुद्ध करनेके लिये होती है। भक्तलोग इस दयाके दो भेद मानते हैं — कृपा और दया। मात्र मनुष्योंको पापोंसे शुद्ध करनेके लिये उनके मनके विरुद्ध (प्रतिकूल) परिस्थितिको भेजना कृपा है और अनुकूल परिस्थितिको भेजना दया है।

(2) ‘संतमहात्माओंकी दया’–संतमहात्मालोग दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं — ‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर’ (मानस 7। 38। 1)। पर वास्तवमें उनके भीतर न दूसरोंके दुःखसे दुःख होता है और न अपने दुःखसे ही दुःख होता है। अपनेपर प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर वे उसमें भगवान्की कृपाको देखते हैं, पर दूसरोंपर दुःख आनेपर उन्हें सुखी करनेके लिये वे उनके दुःखको स्वयं अपनेपर ले लेते हैं। जैसे, इन्द्रने क्रोधपूर्वक बिना अपराधके दधीचि ऋषिका सिर काट दिया था, पर जब इन्द्रने अपनी रक्षाके लिये उनकी ह़ड्डियाँ माँगी, तब दधीचिने सहर्ष प्राण छोड़कर उन्हें अपनी हड्डियाँ दे दीं। इस प्रकार संतमहापुरुष दूसरेके दुःखको सह नहीं सकते, प्रत्युत उन्हें सुख पहुँचानेके लिये अपनी सुखसामग्री और प्राणतक दे देते हैं, चाहे दूसरा उनका अहित करनेवाला ही क्यों न हो (टिप्पणी प0 796) इसलिये संतमहात्माओंकी दया विशेष शुद्ध, निर्मल होती है।

(3) ‘साधकोंकी दया’–साधक अपने मनमें दूसरोंका दुःख दूर करनेकी भावना रखता है और उसके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा भी करता है। दूसरोंको दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है क्योंकि वह अपनी ही तरह दूसरोंके दुःखको भी समझता है। इसलिये उसका यह भाव रहता है कि सब सुखी कैसे हों सबका भला कैसे हो सबका उद्धार कैसे हो सबका हित कैसे हो अपनी ओरसे वह ऐसी ही चेष्टा करता है परन्तु मैं सबका हित करता हूँ, सबके हितकी चेष्टा करता हूँ — इन बातोंको लेकर उसके मनमें अभिमान नहीं होता। कारण कि दूसरोंका दुःख दूर करनेका सहज स्वभाव बन जानेसे उसे अपने इस आचरणमें कोई विशेषता नहीं दीखती। इसलिये उसको अभिमान नहीं होता।जो प्राणी भगवान्की ओर नहीं चलते, दुर्गुणदुराचारोंमें रत रहते हैं, दूसरोंका अपराध करते हैं और अपना पतन करते हैं — ऐसे मनुष्योंपर साधकको क्रोध न आकर दया आती है। इसलिये वह हरदम ऐसी चेष्टा करता रहता है कि ये लोग दुर्गुणदुराचारोंसे ऊपर कैसे उठें इनका भला कैसे हो कभीकभी वह उनके दोषोंको दूर करनेमें अपनेको निर्बल मानकर भगवान्से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ये लोग इन दोषोंसे छूट जायँ और आपके भक्त बन जायँ।,(4) ‘साधारण मनुष्योंकी दया’–साधारण मनुष्यकी दयामें थोड़ी मलिनता रहती है। वह किसी जीवके हितकी चेष्टा करता है, तो यह सोचता है कि मैं कितना दयालु हूँ मैंने इस जीवको सुख पहुँचाया, तो मैं कितना अच्छा हूँ हरके आदमी मेरेजैसा दयालु नहीं है, कोई-कोई ही होता है, इत्यादि। इस प्रकार लोग मुझे अच्छा समझेंगे, मेरा आदर करेंगे आदि बातोंको लेकर, अपनेमें महत्त्वबुद्धि रखकर जो दया की जाती है, उसमें दयाका अंश तो अच्छा है, पर साथमें उपर्युक्त मलिनताएँ रहनेसे उस दयामें अशुद्धि आ जाती है।इनसे भी साधारण दर्जेके मनुष्य दया तो करते हैं, पर उनकी दया ममतावाले व्यक्तियोंपर ही होती है। जैसे, ये हमारे परिवारके हैं, हमारे मत और सिद्धान्तको माननेवाले हैं, तो उनका दुःख दूर करनेकी इच्छासे उन्हें सुखआराम देनेका प्रयत्न करते हैं। यह दया ममता और पक्षपातयुक्त होनेसे अधिक अशुद्ध है।इनसे भी घटिया दर्जेके वे मनुष्य हैं, जो केवल अपने सुख और स्वार्थकी पूर्तिके लिये ही दूसरोंके प्रति दयाका बर्ताव करते हैं।’अलोलुप्त्वम्’–इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध होनेसे अथवा दूसरोंको भोग भोगते हुए देखनेसे मनका (भोग भोगनेके लिये) ललचा उठनेका नाम लोलुपता है और उसके सर्वथा अभावका नाम अलोलुप्त्व है।

अलोलुपताके उपाय — (1) साधकके लिये विशेष सावधानीकी बात है कि वह अपनी इन्द्रियोंसे भोगोंका सम्बन्ध न रखे और मनमें कभी भी ऐसा भाव, ऐसा अभिमान न आने दे कि मेरा इन्द्रियोंपर अधिकार है अर्थात् इन्द्रियाँ मेरे वशमें हैं अतः मेरा क्या बिगड़ सकता है

(2) मैं हृदयसे परमात्माकी प्राप्ति चाहता हूँ, अगर कभी हृदयमें विषयलोलुपता हो गयी, तो मेरा पतन हो जायगा और मैं परमात्मासे विमुख हो जाऊँगा — इस प्रकार साधक खूब सावधान रहे और कहीं अचानक विचलित होनेका अवसर आ जाय, तो हे नाथ बचाओ हे नाथ बचाओ ऐसे सच्चे हृदयसे भगवान्को पुकारे।

(3) स्त्रीपुरुषोंकी तथा जन्तुओँकी कामविषयक चेष्ट न देखे। यदि दीख जाय, तो ऐसा विचार करे कि,यह तो बिलकुल चौरासी लाख योनियोंका रास्ता है। यह चीज तो मनुष्य, पुशपक्षी, कीटपतङ्ग, राक्षसअसुर, भूतप्रेत आदि मात्र जीवोंमें भी है। पर मैं तो चौरासी लाख योनियों अर्थात् जन्ममरणसे ऊँचा उठना चाहता हूँ। मैं जन्ममरणके मार्गका पथिक नहीं हूँ। मेरेको तो जन्म-मरणादि दुःखोंका अत्यन्त अभाव करके परमात्माकी प्राप्ति करना है। इस भावको बड़ी सावधानीके साथ जाग्रत् रखे और जहाँतक बने, ऐसी कामचेष्टा न देखे।

‘मार्दवम्’–बिना कारण दुःख देनेवालों और वैर रखनेवालोंके प्रति भी अन्तःकरणमें कठोरताका भाव न होना तथा स्वाभाविक कोमलताका रहना मार्दव है (टिप्पणी प0 797)।साधकके हृदयमें सबके प्रति कोमलताका भाव रहता है। उसके प्रति कोई कठोरता एवं अहितका बर्ताव भी करता है, तो भी उसकी कोमलतामें अन्तर नहीं आता। यदि साधक कभी किसी बातको लेकर किसीको कठोर जवाब भी दे दे, तो वह कठोर जवाब भी उसके हितकी दृष्टिसे ही देता है। पर पीछे उसके मनमें यह विचार आता है कि मैंने उसके प्रति कठोरताका व्यवहार क्यों किया मैं प्रेमसे या अन्य किसी उपायसे भी समझा सकता था — इस प्रकारके भाव आनेसे कठोरता मिटती रहती है और कोमलता बढ़ती रहती है।यद्यपि साधकोंके भावोंमें और वाणीमें कोमलता रहती है, तथापि उनकी भिन्न-भिन्न प्रकृति होनेसे सबकी वाणीमें एक समान कोमलता नहीं होती। परन्तु हृदयमें साधकोंका सबके प्रति कोमल भाव रहता है। ऐसे ही कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग आदिका साधन करनेवालोंके स्वभावमें विभिन्नता होनेसे उनके बर्ताव सबके प्रति भिन्न-भिन्न होते हैं अतः उनके आचरणोंमें एकजैसी कोमलता नहीं दीखती, पर भीतरमें बड़ी भारी कोमलता रहती है।’ह्रीः’–शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम करनेमें जो एक संकोच होता है, उसका नाम ‘ह्रीः’ (लज्जा) है। साधकको साधनविरुद्ध क्रिया करनेमें लज्जा आती है। वह लज्जा केवल लोगोंके देखनेसे ही नहीं आती, प्रत्युत उसके मनमें अपनेआप ही यह विचार आता है कि रामराम, मैं ऐसी क्रिया कैसे कर सकता हूँ क्योंकि मैं तो परमात्माकी तरफ चलनेवाला (साधक) हूँ। लोग भी मुझे परमात्माकी तरफ चलनेवाला समझते हैं। अतः ऐसी साधनविरुद्ध क्रियाओँको मैं एकान्तमें अथवा लोगोंके सामने कैसे कर सकता हूँ — इस लज्जाके कारण साधक बुरे कर्मोंसे बच जाता है एवं उसके आचरण ठीक होते चले जाते हैं। जब साधक अपनी अहंता बदल देता है कि मैं सेवक हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ, तब उसे अपनी अहंताके विरुद्ध क्रिया करनेमें स्वाभाविक ही लज्जा आती है। इसलिये पारमार्थिक उद्देश्य रखनेवाले प्रत्येक साधकको अपनी अहंता मैं साधक हूँ, मैं सेवक हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भगवद्भक्त हूँ — इस प्रकारसे यथारुचि बदल लेनी चाहिये, जिससे वह साधनविरोधी कर्मोंसे बचकर अपने उद्देश्यको जल्दी प्राप्त कर सकता है।

‘अचापलम्’–कोई भी कार्य करनेमें चपलताका अर्थात् उतावलापनका न होना अचापल है। चपलता (चञ्चलता) होनेसे काम जल्दी होता है, ऐसी बात नहीं है। सात्त्विक मनुष्य सब काम धैर्यपूर्वक करता है अतः उसका काम सुचारुरूपसे और ठीक समयपर हो जाता है। जब कार्य ठीक हो जाता है, तब उसके अन्तःकरणमें हलचल, चिन्ता नहीं होती। चपलता न होनेसे कार्यमें दीर्घसूत्रताका दोष भी नहीं आता, प्रत्युत कार्यमें तत्परता आती है, जिससे सब काम सुचारुरूपसे होते हैं। अपने कर्तव्यकर्मोंको करनेके अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा न होनेसे उसका चित्त विक्षिप्त और चञ्चल नहीं होता (गीता 18। 26)।

‘तेजः’–महापुरुषोंका सङ्ग मिलनेपर उनके प्रभावसे प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करके सद्गुण-सदाचारोंमें लग जाते हैं। महापुरुषोंकी उस शक्तिको ही यहाँ ‘तेज’ कहा है। ऐसे तो क्रोधी आदमीको देखकर भी लोगोंको उसके स्वभावके विरुद्ध काम करनेमें भय लगता है; परन्तु यह क्रोधरूप दोषका तेज है।
साधकमें दैवी सम्पत्तिके गुण प्रकट होनेसे उसको देखकर दूसरे लोगोंके भीतर स्वाभाविक ही सौम्यभाव आते हैं अर्थात् उस साधकके सामने दूसरे लोग दुराचार करनेमें लज्जित होते हैं, हिचकते हैं और अनायास ही सद्भावपूर्वक सदाचार करने लग जाते हैं। यही उन दैवी-सम्पत्तिवालोंका तेज (प्रभाव) है।
‘क्षमा’–बिना कारण अपराध करनेवालेको दण्ड देनेकी सामर्थ्य रहते हुए भी उसके अपराधको सह लेना और उसको माफ कर देना ‘क्षमा’ (टिप्पणी प0 798) है। यह क्षमा मोह-ममता, भय और स्वार्थको लेकर भी की जाती है; जैसे–पुत्रके अपराध कर देनेपर पिता उसे ‘क्षमा’ कर देता है, तो यह क्षमा मोह-ममताको लेकर होनेसे शुद्ध नही है। इसी प्रकार किसी बलवान् एवं क्रूर व्यक्तिके द्वारा हमारा अपराध किये जानेपर हम भयवश उसके सामने कुछ नहीं बोलते, तो यह क्षमा भयको लेकर है। हमारी धन-सम्पत्तिकी जाँच-पड़ताल करनेके लिये इन्सपेक्टर आता है, तो वह हमें धमकाता है, अनुचित भी बोलता है और उसका ठहरना हमें बुरा भी लगता है तो भी स्वार्थ-हानिके भयसे हम उसके सामने कुछ नहीं बोलते, तो यह क्षमा स्वार्थको लेकर है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा नहीं है। वास्तविक क्षमा तो वही है, जिसमें ‘हमारा अनिष्ट करनेवालेको यहाँ और परलोकमें भी किसी प्रकारका दण्ड न मिले’ — ऐसा भाव रहता है।क्षमा माँगना भी दो रीतिसे होता है –(1) हमने किसीका अपकार किया, तो उसका दण्ड हमें न मिले — इस भयसे भी क्षमा माँगी जाती है; परन्तु इस क्षमामें स्वार्थका भाव रहनेसे यह ऊँचे दर्जेकी क्षमा नहीं है।
(2) हमसे किसीका अपराध हुआ, तो अब यहाँसे आगे उम्रभर ऐसा अपराध फिर कभी नहीं करूँगा — इस भावसे जो क्षमा माँगी जाती है, वह अपने सुधारकी दृष्टिको लेकर होती है और ऐसी क्षमा माँगनेसे ही मनुष्यकी उन्नति होती है।
मनुष्य क्षमाको अपनेमें लाना चाहे तो कौन-सा उपाय करे? यदि मनुष्य अपने लिये किसीसे किसी प्रकारके सुखकी आशा न रखे और अपना अपकार करनेवालेका बुरा न चाहे? तो उसमें क्षमाभाव प्रकट हो जाता है।
‘धृतिः’–किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिमें विचलित न होकर अपनी स्थितिमें कायम रहनेकी शक्तिका नाम ‘धृति’ (धैर्य) है (गीता 18। 33)।
वृत्तियाँ सात्त्विक होती हैं तो धैर्य ठीक रहता है और वृत्तियाँ राजसी-तामसी होती हैं तो धैर्य वैसा नहीं रहता। जैसे बद्रीनारायणके रास्तेपर चलनेवालेके लिये कभी गरमी, चढ़ाई आदि प्रतिकूलताएँ आती हैं और कभी ठण्डक, उतराई आदि अनुकूलताएँ आती हैं, पर चलनेवालेको उन प्रतिकूलताओं और अनूकूलताओंको देखकर ठहरना नहीं है, प्रत्युत ‘हमें तो बद्रीनारायण पहुँचना है’ — इस उद्देश्यसे धैर्य और तत्परतापूर्वक चलते रहना है। ऐसे ही साधकको अच्छी-मन्दी वृत्तियों और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंकी ओर देखना ही नहीं चाहिये। इनमें उसे धीरज धारण करना चाहिये; क्योंकि जो अपना उद्देश्य सिद्ध करना चाहता है, वह मार्गमें आनेवाले सुख और दुःखको नहीं देखता–
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।।
(भर्तृहरिनीतिशतक)
‘शौचम्’–बाह्यशुद्धि एवं अन्तःशुद्धिका नाम ‘शौच’ है (टिप्पणी प0 799.1)। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखनेवाला साधक बाह्यशुद्धिका भी खयाल रखता है; क्योंकि बाह्यशुद्धि रखनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि स्वतः होती है और अन्तःकरण शुद्ध होनेपर बाह्य-अशुद्धि उसको सुहाती नहीं। इस विषयपर पतञ्जलि महाराजने कहा है — शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।(योगदर्शन 2। 40)’शौचसे साधककी अपने शरीरमें घृणा अर्थात् अपवित्र-बुद्धि और दूसरोंसे संसर्ग न करनेकी इच्छा होती है।’
तात्पर्य यह है कि अपने शरीरको शुद्ध रखनेसे शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान होता है। शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान होनेसे सम्पूर्ण शरीर इसी तरहके हैं — इसका बोध होता है। इस बोधसे दूसरे शरीरोंके प्रति जो आकर्षण होता है, उसका अभाव हो जाता है अर्थात् दूसरे शरीरोंसे सुख लेनेकी इच्छा मिट जाती है।
बाह्यशुद्धि चार प्रकारसे होती है — (1) शारीरिक (2) वाचिक, (3) कौटुम्बिक और (4) आर्थिक।
(1) ‘शारीरिक शुद्धि’–प्रमाद, आलस्य, आरामतलबी, स्वाद-शौकीनी आदिसे शरीर अशुद्ध हो जाता है और इनके विपरीत कार्य-तत्परता, पुरुषार्थ, उद्योग, सादगी आदि रखते हुए आवश्यक कार्य करनेपर शरीर शुद्ध हो जाता है। ऐसे ही जल, मृत्तिका आदिसे भी शारीरिक शुद्धि होती है।

(2) ‘वाचिक शुद्धि’–झूठ बोलने, कड़ुआ बोलने, वृक्षा बकवाद करने, निन्दा करने, चुगली करने आदिसे वाणी अशुद्ध हो जाती है। इन दोषोंसे रहित होकर सत्य, प्रिय एवं हितकारक आवश्यक वचन बोलना (जिससे दूसरोंकी पारमार्थिक उन्नति होती हो और देश, ग्राम, मोहल्ले, परिवार, कुटुम्ब आदिका हित होता हो) और अनावश्यक बात न करना — यह वाणीकी शुद्धि है।

(3) ‘कौटुम्बिक शुद्धि’–अपने बाल-बच्चोंको अच्छी शिक्षा देना; जिससे उनका हित हो, वही आचरण करना; कुटुम्बियोंका हमपर जो न्याययुक्त अधिकार है, उसको अपनी शक्तिके अनुसार पूरा करना; कुटुम्बियोंमें किसीका पक्षपात न करके सबका समानरूपसे हित करना — यह कौटुम्बिक शुद्धि है।

(4) ‘आर्थिक शुद्धि’–न्याययुक्त, सत्यतापूर्वक, दूसरोंके हितका बर्ताव करते हुए जिस धनका उपार्जन किया गया है, उसको यथाशक्ति, अरक्षित, अभावग्रस्त, दरिद्री, रोगी, अकालपीड़ित, भूखे आदि आवश्यकतावालोंको देनेसे एवं गौ, स्त्री, ब्राह्मणोंकी रक्षामें लगानेसे द्रव्यकी शुद्धि होती है।त्यागी-वैरागी-तपस्वी सन्त-महापुरुषोंकी सेवामें लगानेसे एवं सद्ग्रन्थोंको सरल भाषामें छपवाकर कम मूल्यमें देनेसे तथा उनका लोगोंमें प्रचार करनेसे धनकी महान् शुद्धि हो जाती है।परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य हो जानेपर अपनी (स्वयंकी) शुद्धि हो जाती है। स्वयंकी शुद्धि होनेपर शरीर, वाणी, कुटुम्ब, धन आदि सभी शुद्ध एवं पवित्र होने लगते हैं। शरीर आदिके शुद्ध हो जानेसे वहाँका स्थान? वायुमण्डल आदि भी शुद्ध हो जाते हैं। बाह्यशुद्धि और पवित्रताका खयाल रखनेसे शरीरकी वास्तविकता अनुभवमें आ जाती है? जिससे शरीरसे अंहताममता छोड़नेमें सहायता मिलती है। इस प्रकार यह साधन भी परमात्मप्राप्तिमें निमित्त बनता है।

‘अद्रोहः’–बिना कारण अनिष्ट करनेवालेके प्रति भी अन्तःकरणमें बदला लेनेकी भावनाका न होना ‘अद्रोह’ (टिप्पणी प0 799.2) है। साधारण व्यक्तिका कोई अनिष्ट करता है, तो उसके मनमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति द्वेषकी एक गाँठ बँध जाती है कि मौका पड़नेपर मैं इसका बदला ले ही लूँगा; किन्तु जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है, उस साधकका कोई कितना ही अनिष्ट क्यों न करे, उसके मनमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति बदला लेनेकी भावना ही पैदा नहीं होती। कारण कि कर्मयोगका साधक सबके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करता है, ज्ञानयोगका साधक सबको अपना स्वरूप समझता है और भक्तियोगका साधक सबमें अपने इष्ट भगवान्को समझता है। अतः वह किसीके प्रति कैसे द्रोह कर सकता है।’निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’।।(मानस 7। 112 ख)

‘नातिमानिता’–एक ‘मानिता’ होती है और एक ‘अतिमानिता’ होती है। सामान्य व्यक्तियोंसे मान चाहना ‘मानिता’ है और जिनसे हमने शिक्षा प्राप्त की, जिनका आदर्श ग्रहण किया और ग्रहण करना चाहते हैं, उनसे भी अपना मान, आदर-सत्कार चाहना ‘अतिमानिता’ है। इन मानिता और अतिमानिताका न होना ‘नातिमानिता’ है।स्थूल दृष्टिसे मानिता के दो भेद होते हैं —

(1) ‘सांसारिक मानिता’–धन, विद्या, गुण, बुद्धि, योग्यता, अधिकार, पद, वर्ण, आश्रम आदिको लेकर दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें एक श्रेष्ठताका भाव होता है कि ‘मैं साधारण मनुष्योंकी तरह थोड़े ही हूँ, मेरा कितने लोग आदरसत्कार करते हैं! वे आदर करते हैं तो यह ठीक ही है; क्योंकि मैं आदर पानेयोग्य ही हूँ’ — इस प्रकार अपने प्रति जो मान्यता होती है, वह सांसारिक मानिता कहलाती है।
(2) ‘पारमार्थिक मानिता’–प्रारम्भिक साधनकालमें जब अपनेमें कुछ दैवी-सम्पत्ति प्रकट होने लगती है, तब साधकको दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है। साथ ही दूसरे लोग भी उसे परमात्माकी ओर चलनेवाला साधक मानकर उसका विशेष आदर करते हैं और साथ-ही-साथ ‘ये साधन करनेवाले हैं, अच्छे सज्जन हैं’ — ऐसी प्रशंसा भी करते हैं। इससे साधकको अपनेमें विशेषता मालूम देती है, पर वास्तवमें यह विशेषता अपने साधनमें कमी होनेके कारण ही दीखती है। यह विशेषता दीखना पारमार्थिक मानिता है।
जबतक अपनेमें व्यक्तित्व (एकदेशीयता, परिछिन्नता) रहता है, तभीतक अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दिखायी दिया करती है। परन्तु ज्यों-ज्यों व्यक्तित्व मिटता चला जाता है, त्यों-ही-त्यों साधकका दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषताका भाव मिटता चला जाता है। अन्तमें इन सभी मानिताओंका अभाव होकर साधकमें दैवी-सम्पत्तिका गुण ‘नातिमानिता’ प्रकट हो जाती है।दैवीसम्पत्तिके जितने सद्गुण-सदाचार हैं, उनको पूर्णतया जाग्रत् करनेका उद्देश्य तो साधकका होना ही चाहिये। हाँ, प्रकृति-(स्वभाव-) की भिन्नतासे किसीमें किसी गुणकी कमी, तो किसीमें किसी गुणकी कमी रह सकती है। परन्तु वह कमी साधकके मनमें खटकती रहती है और वह प्रभुका आश्रय लेकर अपने साधनको तत्परतासे करते रहता है; अतः भगवत्कृपासे वह कमी मिटती जाती है। कमी ज्यों-ज्यों मिटती जाती है, त्यों-त्यों उत्साह और उस कमीके उत्तरोत्तर मिटनेकी सम्भावना भी बढ़ती जाती है। इससे दुर्गुण-दुराचार सर्वथा नष्ट होकर सद्गुण-सदाचार अर्थात् दैवी-सम्पत्ति प्रकट हो जाती है। ‘भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत’–भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! ये सभी दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हुए मनुष्योंके लक्षण हैं।

परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेपर ये दैवी-सम्पत्तिके लक्षण साधकमें स्वाभाविक ही आने लगते हैं। कुछ लक्षण पूर्वजन्मोंके संस्कारोंसे भी जाग्रत् होते हैं। परन्तु साधक इन गुणोंको अपने नहीं मानता और न उनको अपने पुरुषार्थसे उपार्जित ही मानता है, प्रत्युत गुणोंके आनेमें वह भगवान्की ही कृपा मानता है। कभी खयाल करनेपर साधकके मनमें ऐसा विचार होता है कि मेरेमें पहले तो ऐसी वृत्तियाँ नहीं थीं, ऐसे सद्गुण नहीं थे, फिर ये कहाँसे आ गये? तो ये सब भगवान्की कृपासे ही आये हैं — ऐसा अनुभव होनेसे उस साधकको दैवी-सम्पत्तिका अभिमान नहीं आता।

साधकको दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको अपने नहीं मानना चाहिये; क्योंकि यह देव — परमात्माकी सम्पत्ति है, व्यक्तिगत (अपनी) किसीकी नहीं है। यदि व्यक्तिगत होती, तो यह अपनेमें ही रहती, किसी अन्य व्यक्तिकी नहीं रहती। इसको व्यक्तिगत माननेसे ही अभिमान आता है। अभिमान आसुरी-सम्पत्तिका मुख्य लक्षण है। अभिमानकी छायामें ही आसुरी-सम्पत्तिका मुख्य लक्षण है। अभिमानकी छायामें ही आसुरी-सम्पत्तिके सभी अवगुण रहते हैं। यदि दैवी-सम्पत्तिसे आसुरी-सम्पत्ति (अभिमान) पैदा हो जाय, तो फिर आसुरीसम्पत्ति कभी मिटेगी ही नहीं। परन्तु दैवी-सम्पत्तिसे आसुरी-सम्पत्ति कभी पैदा नहीं होती, प्रत्युत दैवी-सम्पत्तिके गुणोंके साथसाथ आसुरीसम्पत्तिके जो अवगुण रहते हैं, उनसे ही गुणोंका अभिमान पैदा होता है अर्थात् साधनके साथ कुछ-कुछ असाधन रहनेसे ही अभिमान आदि दोष पैदा होते हैं। जैसे, किसीको सत्य बोलनेका अभिमान होता है, तो उसके मूलमें वह सत्यके साथ-साथ असत्य भी बोलता है, जिसके कारण सत्यका अभिमान आता है। तात्पर्य यह है कि दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको अपना माननेसे एवं गुणोंके साथ अवगुण रहनेसे ही अभिमान आता है। सर्वथा गुण आनेपर गुणोंका अभिमान हो ही नहीं सकता।

यहाँ दैवी-सम्पत्ति कहनेका तात्पर्य है कि यह भगवान्की सम्पत्ति है। अतः भगवान्का सम्बन्ध होनेसे, उनका आश्रय लेनेसे शरणागत भक्तमें यह स्वाभाविक ही आती है। जैसे शबरीके प्रसङ्गमें रामजीने कहा है –,

नवधा भगति कहउँ तोहिं पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।

(मानस 3। 35 — 36)
मनुष्य-देवता, भूत-पिशाच, पशु-पक्षी, नारकीय जीव, कीट-पतङ्ग, लता-वृक्ष आदि जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, उन सबमें अपनी-अपनी योनिके अनुसार मिले हुए शरीरोंके रुग्ण एवं जीर्ण हो जानेपर भी ‘मैं जीता रहूँ, मेरे प्राण बने रहें’ — यह इच्छा बनी रहती है (टिप्पणी प0 801)। इस इच्छाका होना ही आसुरी-सम्पत्ति है।त्यागी-वैरागी साधकमें भी प्राणोंके बने रहनेकी इच्छा रहती है; परन्तु उसमें प्राणपोषण-बुद्धि, इन्द्रिय-लोलुपता नहीं रहती; क्योंकि उसका उद्देश्य परमात्मा होता है, न कि शरीर और संसार।जब साधक भक्तका भगवान्में प्रेम हो जाता है, तब उसको भगवान् प्राणोंसे भी प्यारे लगते हैं। प्राणोंका मोह न रहनेसे उसके प्राणोंका आधार केवल भगवान् हो जाते हैं। इसलिये वह भगवान्को प्राणनाथ! प्राणेश्वर! प्राणप्रिय!’ आदि सम्बोधनोंसे पुकारता है। भगवान्का वियोग न सहनेसे उसके प्राण भी छूट सकते हैं। कारण कि मनुष्य जिस वस्तुको प्राणोंसे भी बढ़कर मान लेता है, उसके लिये यदि प्राणोंका त्याग करना पड़े तो वह सहर्ष प्राणोंका त्याग कर देता है; जैसे — पतिव्रता स्त्री पतिको प्राणोंसे भी बढ़कर (प्राणनाथ) मानती है, तो उसका प्राण, शरीर, वस्तु, व्यक्ति आदिमें मोह नहीं रहता। इसीलिये पतिके मरनेपर वह उसके वियोगमें प्रसन्नतापूर्वक सती हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि जब केवल भगवान्में अनन्य प्रेम हो जाता है, तो फिर प्राणोंका मोह नहीं रहता। प्राणोंका मोह न रहनेसे आसुरी-सम्पत्ति सर्वथा मिट जाती है और दैवी-सम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। इसी बातका संकेत गोस्वामी तुलसीदाजसी महाराजने इस प्रकार किया है —

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।(मानस 7। 49। 3)