भगवद्गीता और अन्वय

ऐसा माना जाता है कि गुरु परशुराम के शाप के कारण अंतिम समय में कर्ण अपनी सीखी हुई विद्या भूल जाते हैं! क्या ऐसा सचमुच हुआ होगा? आज के हिसाब से देखें तो शाप से सचमुच ऐसा हो सकता है, ये मान लेना जरा मुश्किल होगा। चलिए इसे दूसरे तरीके से देखते हैं। महाभारत में जब पांडवों को वनवास मिलता है तो अर्जुन क्या कर रहे होते हैं? उन्हें लम्बे समय के लिए अपने भाइयों से भी अलग जाना पड़ता है। वो ये समय बेकार खर्च नहीं करते। रास्ते में वो किरात का रूप लिए शिव से लड़ते हैं और फिर उनके ही वरदान से उन्हें पाशुपतास्त्र मिल जाता है।

आगे वो पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में नागों और दूसरे जीवों से मिलते हैं। इंद्र के पास जाकर लम्बे समय तक वहां भी शिक्षा ग्रहण करते हैं। बाद में वो दक्षिण भारत में होते हैं जहाँ वो हनुमान जी से उलझ जाते हैं लेकिन अंततः इसका भी उन्हें लाभ ही होता है। युद्ध के समय हनुमान जी उनकी ध्वजा पर होते हैं। सोचिये कि इन सब से युद्ध करते समय अर्जुन कौन से अस्त्र निकालते होंगे? साधारण का तो इनपर कोई असर होने से रहा, निःसंदेह अर्जुन अपने दिव्यास्त्र चला रहे होंगे। इनकी तुलना में कर्ण कहाँ थे? क्या वो लगातार दिव्यास्त्रों का संधान कर रहे थे?

चलिए इस प्रश्न को तर्क का प्रश्न मानते हुए फ़िलहाल यहीं छोड़कर आगे चलते हैं और भगवद्गीता को देखते हैं। युद्ध के समय श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच हुई इस चर्चा को आज भी पढ़ा जाता है। बस इसमें एक समस्या है। वो ये कि पुराने दौर की तरह हमारे पास गुरु-शिष्य परंपरा नहीं होती और अधिकांश लोग इसे स्वयं ही पुस्तकों से पढ़ने का प्रयास करते हैं। संस्कृत भाषा के ज्ञान की कमी से भी काम कठिन लगता है। हमलोग हिंदी-अंग्रेजी अनुवादों से काम चला रहे होते हैं। ऐसे में पढ़ा कैसे जाए आइये इसके लिए हमलोग काव्य में अन्वय देखते हैं।

अन्वय का अर्थ है, शब्दों का तर्कपूर्ण क्रम। अन्वय का शाब्दिक अर्थ है- सकारात्मक। काव्य में शब्दों का ही नहीं, श्लोकों का भी अन्वय होता है। इसके चार भेद माने जाते हैं — युग्म, विशेषक, कलाप और कुलक। कितने श्लोकों को एक साथ पढ़ने या कहने पर एक तार्किक अर्थ सामने आता है, ये भेद उसके आधार पर किये गए हैं। इसके लिए संस्कृत में कहा जाता है –

द्वाभ्यां युग्ममिति प्रोक्तं त्रिभिः श्लोकैर्विशेषकम्।

चतुर्भिः कलापं ज्ञेयं तादूर्ध्वं कुलकं स्मृतम्।।

जहाँ दो श्लोकों का एक साथ अन्वय हो उसे ‘युग्म’ कहते हैं। जहाँ तीन श्लोकों का एक साथ अन्वय किया जाता है, उसे ‘विशेषक’ कहा जाता है। ‘कलाप’ में चार श्लोकों का एक साथ अन्वय किया जाता है। जहाँ चार से अधिक श्लोकों का एक साथ अन्वय किया जाए उसे ‘कुलक’ कहा जाता है। भगवद्गीता में इन चारों का प्रयोग होता है। सबसे पहले आइये ‘कुलक’ का प्रयोग देखते हैं। यहाँ चार से अधिक श्लोक एक साथ पढ़े बिना कोई तार्किक अर्थ नहीं निकलता।

भगवद्गीता के चौथे अध्याय में चौबीसवें से लेकर तीसवें श्लोक को देखिये। भगवद्गीता का ये चौबीसवां श्लोक अक्सर लोग भोजन शुरू करने से पहले पढ़ रहे होते हैं –

ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24

मोटे तौर पर इसका अर्थ होता है कि जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। अक्सर इसे अकेले ही पढ़ा जाता है, लेकिन ये ‘कुलक’ है, इसलिए अगर पूरे तर्क पूर्ण अर्थ में देखना हो तो आपको इसे तीसवें श्लोक तक एकसाथ लेकर देखना होगा। ऐसा ही तेरहवें अध्याय में सातवें से लेकर ग्यारहवें श्लोक तक भी ‘कुलक’ अन्वय प्रयुक्त होता है। अगर श्री अभिनवगुप्त की भगवद्गीता के श्लोकों की व्याख्या देखेंगे तो 13.8 से 13.12 तक की व्याख्या एक साथ आती है।

‘कलाप’ में चार श्लोकों का अन्वय एक साथ किया जाता है और इसका उदाहरण चाथे अध्याय के बीसवें श्लोक से तेईसवें श्लोक में दिख जायेगा। आदिशंकराचार्य के अलावा श्री रामानुजाचार्य और श्री अभिनवगुप्त दोनों इन श्लोकों का अन्वय एक साथ ही करते हैं। ऐसे ही अठारहवें अध्याय के बयालीसवें से लेकर पैंतालिसवें श्लोक तक ‘कलाप’ अन्वय का प्रयोग होता है।

आप इसे पॉडकास्ट की तरह भी सुन सकते हैं

तीन श्लोकों का अन्वय ‘विशेषक’ पहले अध्याय के चौथे से छठे और सोलहवें से अठारहवें श्लोक तक प्रयोग में आता है। दूसरे अध्याय में बयालीसवें से चौवालिसवें श्लोक तक, सोलहवें अध्याय में पहले से तीरसे और अठारहवें अध्याय में इक्यावनवें से लेकर तिरपनवें श्लोक तक ‘विशेषक’ अन्वय का प्रयोग हुआ है। सत्रहवें अध्याय का आठवें से लेकर दसवें श्लोक तक में जो भोजन की बात है, उसे भी ‘विशेषक’ की ही तरह देखा जाना चाहिए।

‘युग्म’ में एक साथ दो श्लोकों का अन्वय किया जाता है। भगवद्गीता में इसका प्रयोग कई बार हुआ है। पहले अध्याय में चौंतीसवें-पैंतीसवें, दूसरे अध्याय में बासठवें-तिरसठवें, तीसरे अध्याय के चौदहवें-पन्द्रहवें और बयालीसवें-तैंतालीसवें श्लोक में ‘युग्म’ अन्वय है। पाँचवें अध्याय के आठवें-नौवें, आठवें अध्याय के बारहवें-तेरहवें, नौवें अध्याय के चौथे- पाँचवें और दसवें अध्याय के चौथे-पाँचवें तथा बारहवें-तेरहवें श्लोक में ‘युग्म’ है। ऐसे ही ग्यारहवें अध्याय के इकतालीसवें-बयालीसवें और बारहवें अध्याय के अठारहवें-उन्नीसवें, तथा चौदहवें अध्याय के चौबीसवें-पच्चीसवें आदि श्लोकों में ‘युग्म’ अन्वय का प्रयोग हुआ है।

अब चलिए वापस शुरूआती कहानी पर चलते हैं जहाँ कर्ण उसी समय सारा ज्ञान भूल जाते हैं जब उन्हें उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। शाप को अगर हम अभ्यास की कमी मान लें तो ये समझ में आता है कि अर्जुन की तुलना में कर्ण का दिव्यास्त्रों के प्रयोग का अभ्यास बहुत कम था। संभावना है कि वो अभ्यास की कमी के कारण अंतिम समय इनका प्रयोग ही नहीं कर पाए! अब जब आपको अन्वय बता भी दिए हैं तो इतने सारे अन्वय याद रहेंगे क्या? ये याद रखने का एक आसान सा तरीका है इन्हें लिख लेना।

अपनी भगवद्गीता की प्रति पर श्लोकों के बगल में लिख लें की कौन से श्लोक युग्म थे, कौन से कुलक। इस तरह हर बार उन्हें पढ़ते समय आपको तार्किक क्रम याद आ जायेगा। आप कितना सीख पाते हैं, ये इसपर भी निर्भर है कि आप अभ्यास कितना करते हैं। प्रयास कीजिये, लिख लीजिये, ये उतना भी कठिन नहीं है!

आप इसे पॉडकास्ट की तरह भी सुन सकते हैं