डिडरो इफ़ेक्ट और उपभोक्ता का व्यवहार

एक बार की बात है, जब एक गरीब लेखक था। अब आप कहेंगे लेखक में गरीब का विशेषण जोड़ने की क्या जरूरत है? लेखक था तो गरीब ही होगा, ये तो मानी हुई बात है! तो ऐसा है कि हम किसी (अपने जैसे) गरीब हिन्दी लेखक की बात नहीं कर रहे। ये कहानी जिस लेखक की है, वो फ़्रांसिसी था। उन्हें दर्शन शास्त्र के अलावा इनसाइक्लोपीडिया जैसी चीज़ें लिखने के लिए भी जाना जाता है। खैर वापस किस्से पर आते हैं। तो किम्वदंती में बताया जाता है कि ये जो गरीब लेखक थे, इनकी बेटी की शादी तय हुई। समस्या ये थी कि लेखक तो गरीब थे और इनके पास शादी का खर्च उठाने के लिए कोई पैसे-वैसे नहीं थे!

 

किसी तरह लेखक महोदय की गरीबी की ये खबर रानी साहिबा तक जा पहुंची। रानी साहिबा पुस्तक प्रेमी थीं, और उन्होंने 1000 फ़्रांसिसी मुद्राओं में लेखक से किताबें खरीद लीं। ये किस्सा डेनिस डिडरो (Denis Diderot) का है जो 1713-1784 के दौर के फ़्रांसिसी विद्वान और दार्शनिक थे। अब के हिसाब से देखें तो उन्हें लाखों की रकम मिल गयी थी। लेखक महोदय की बिटिया की शादी तो अच्छे तरीके से हुई ही, थोड़ा ठीक दिखने के लिए गरीब लेखक ने एक ड्रेसिंग गाउन भी खरीद लिया। अब उनका ध्यान गया कि उनके नए ड्रेसिंग गाउन की तुलना में आस पास की चीज़ें तो बड़ी पुरानी और बेकार लग रही हैं!

 

लेखक महोदय ने अपनी पुरानी कुर्सी फेंककर नयी ले ली। अपनी पुरानी मेज़ को भी बदल दिया। उस दौर में घर में आदमकद आइना होना बड़ी बात होती थी, उन्होंने एक आइना भी लगवा लिया। इसी तरह एक के बाद एक चीज़ें आती गयीं और लेखक फिर से गरीबी में जा पहुंचे! अपनी इस हालत पर उन्होंने एक लेख लिखा “रेग्रेट्स ऑन पार्टिंग विथ माय ओल्ड ड्रेसिंग गाउन” (Regrets on Parting with My Old Dressing Gown)। इस लेख में वो बताते हैं कि कैसे पहले तो अपने पुराने ड्रेसिंग गाउन के वो खुद मालिक थे, मगर नया ड्रेसिंग गाउन उनका ही मालिक बन बैठा।

 

एमबीए कर रहे छात्रों को जब “कंज्यूमर बिहेवियर” यानी उपभोक्ता व्यवहार पढ़ाते हैं तो उन्हें ये “डिडरो इफ़ेक्ट” भी पढ़ाया जाता है। एक चीज़ खरीदने पर दूसरी खरीदने की इच्छा, फिर उस दूसरी से तीसरी – ये उपभोक्ताओं में आसानी से नजर आने वाला व्यवहार है। घर में पहले सोफ़ा आएगा, फिर लगेगा कि सोफे के साथ ड्राइंग रूम का टेबल ठीक नहीं लग रहा, तो बेहतर टेबल आएगा। फिर लगने लगेगा कि बड़ा सा डब्बे वाला टीवी तो इनके साथ मैच ही नहीं कर रहा, तो एलईडी टीवी भी खरीद लिया जाएगा। इस तरह खरीदारी बढ़ती रहेगी, इच्छाएँ ख़त्म ही नहीं होंगी। इस तरीके को जूलिएट स्चोर ने 1992 में आई अपनी किताब “द ओवरस्पेंट अमेरिकन: व्हाई वी वांट व्हाट वी डोंट नीड” में “डिडरो इफ़ेक्ट” नाम से बुलाना शुरू कर दिया था।

 

अब आते हैं भगवद्गीता पर जो हमने धोखे से प्रबंधन (मैनेजमेंट) और विपणन (मार्केटिंग) की कहानी सुनाने के बहाने से आपको सुना डाला है। ये जो एक कारण से दूसरा और दूसरे से तीसरे का उपजना है, वो भगवद्गीता पढ़ने वालों के लिए बिलकुल नया नहीं होता। उन्होंने दूसरे अध्याय के बासठवें और तिरसठवें श्लोक में कारणमाला अलंकार देखा होता है –

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63

 

वैसे तो इन श्लोकों में कहा गया है कि विषयों का चिन्तन करने पर उसमें आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से इच्छा और इच्छा (पूरे न होने) से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है। यहाँ आपको “डिडरो इफ़ेक्ट” का एक ड्रेसिंग गाउन से शुरू होकर फिर से गरीबी तक पहुँच जाने के क्रम जैसी ही कारणों की पूरी माला दिख जाएगी। इन दोनों श्लोकों को एक साथ पढ़ने पर ही पूरा अर्थ समझ में आता है, इसलिए इन श्लोकों में युग्म नाम का अन्वय है।

 

जहाँ तक “डिडरो इफ़ेक्ट” वाले उपभोक्ता की हरकत का प्रश्न है, उसके बारे में भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि जैसे आग में घी डालने पर आग संतुष्ट नहीं हो जाती, और भड़कती ही जाती है, वैसे ही कामनाएँ (और वासना) भी भोग मिल जाने पर संतुष्ट नहीं होतीं, और बढ़ती हैं। इसके लिए तीसरे अध्याय में कहा है –

 

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39

 

स्वामी रामसुखदास के अनुसार इसका अर्थ है – और कुन्तीनन्दन! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले और विवेकियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढका हुआ है। मनुष्य का विवेक उसे ये बता सकता है कि भोग के पूरे हो जाने पर और की इच्छा न जागे, ऐसा नहीं होगा। शराब के शौक़ीन लोगों को एक पेग के बाद दूसरे और दूसरे से तीसरे पर पहुँचने में इसका अनुभव होगा। सिगरेट जैसी चीज़ें छोड़ने के प्रयास में जब दो-चार दिन बाद, चलो आज एक पी लेते हैं, इतने भर से फिर से पुरानी जैसी ही आदत शुरू हो जाती है, उसमें कई युवाओं ने भी इसका अनुभव कर रखा है।

बाकी “डिडरो इफ़ेक्ट” के जरिये जो ये तीसरे अध्याय का उनचालीसवाँ श्लोक बताया है, उसे कई बार अकेले नहीं सैंतीसवें-अड़तीसवें श्लोक के साथ पढ़कर समझा जाता है। यानी अन्वय की दृष्टि से तीन श्लोक एक साथ पढ़ने के कारण यहाँ विशेषक अन्वय भी लागू हो सकता है। हमने जो सिर्फ एक बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा।