दुर्योधन को क्यों न सिखा दी भगवद्गीता?

एक बड़ा ही मजेदार सा शेखुलर प्रश्न कभी कभी भगवद्गीता के बारे में पूछा जाता है। बच्चे पूछें तो चलता है, मगर धूप में बाल पका चुके कई क्यूट किस्म के उम्रदराज लोग भी ये सवाल लिए आ जाते हैं। उनको जानना होता है कि भगवान श्री कृष्ण जब भगवद्गीता का ज्ञान दे ही सकते थे, तो महाभारत का युद्ध शुरू होने पर अर्जुन को देने की क्या जरुरत थी? उससे बहुत पहले ही कई बार दुर्योधन से मिले थे, उसे ही दे देते। वो ज्ञानी हो जाता तो युद्ध होता ही नहीं और लाखों लोगों की जान बच जाती!

 

इस क्यूटियापे से भरे प्रश्न का जवाब भी भगवद्गीता में मिल जाता है। तीसरे अध्याय के छत्तीसवें श्लोक पर स्वामी रामसुखदास जी की एक टिप्पणी इसका समाधान कर देती है। ऐसा नहीं था कि श्री कृष्ण पहले कभी दुर्योधन को समझाने नहीं गए थे। ऐसी ही एक चर्चा का जिक्र गर्ग संहिता के अश्वमेघ पर्व (50.36) में आता है। यहाँ दुर्योधन ने कहा है –

 

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। (गर्गसंहिता अश्वमेध0 50। 36)

 

यानि मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ। यहाँ दुर्योधन कुछ पूछ नहीं रहा। ये निश्चयातम्क वाक्य है। जब पूछ ही नहीं रहा, सीखने को तैयार ही नहीं तो कोई कुछ सिखाये कैसे? ये जेन के प्रसिद्ध ग्लास में पानी भरने वाली स्थिति है। अगर कोई ग्लास, कोई कप पहले से ही पानी से भरा हो तो आप उसमें पानी कैसे भर सकते हैं? पहले उस भरे हुए को खाली करना होगा, तभी उसे भरा जा सकता है। इसकी तुलना भगवद्गीता में अर्जुन से कीजिये।

 

अर्जुन उवाच

 

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3.36

 

अर्जुन पूछते हैं – वार्ष्णेय, मनुष्य जबरन बाध्य किये गए जैसा, इच्छा न होने पर भी किससे प्रेरित होकर पापपूर्ण आचरण करता है? ये बिलकुल वही बात है जो दुर्योधन ने कही थी। कोई है जो मुझसे करवाता है और मैं करता जाता हूँ। बस यहाँ अंतर ये है कि अर्जुन पूछ रहा है। वो जानना चाहता है, कैसे उससे बचा जाए कि पापपूर्ण आचरण न करना पड़े, बचने की कोशिश में है। और भगवान उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद स्वयं करना चाहता है। यहाँ ग्लास के खाली होने वाली स्थिति है इसलिए उसमें कुछ भरा जा सकता है।

 

बस इतना सा ही अंतर था जिसकी वजह से अर्जुन को भगवद्गीता की शिक्षा मिलती है और दुर्योधन को कुछ भी नहीं। बाकी ये जो एक श्लोक के बारे में बताया है, वो नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा।