कर्म और अकर्म का भेद

वैसे तो फिल्म को एकता कपूर ने बनाया था, लेकिन पता नहीं क्यों फिल्म का नाम “के” से न शुरू होकर “एक विलन” था। ठीक-ठाक सी हिट रही फिल्म थी क्योंकि अपने लागत से उसकी अनुमानित आय करीब तीन गुना ज्यादा रही थी। फिल्म के कलाकारों के लिए भी इसे याद किया जा सकता है क्योंकि रितेश देशमुख इस फिल्म में पहली बार खलनायक की भूमिका में थे। शुरू-शुरू में ऐसी अफवाह थी कि ये एक कोरियाई फिल्म “आई सॉ द डेविल” की नकल है लेकिन इसके निर्देशक मोहित सूरी ने साफ़ तौर पर ऐसा होने से इंकार कर दिया था। वैसे देखा जाए तो कहानी थोड़ी उससे प्रेरित सी लग सकती है, लेकिन दोनों फ़िल्में काफी अलग हैं।

 

कहानी के बारे में कुछ ख़ास बताने की जरुरत नहीं है क्योंकि ये प्रतिशोध पर आधारित फिल्म है। फिल्म की शुरुआत में ही नायिका की हत्या हो जाती है। जो नायिका का पति था, वो पुराने दौर का कोई अपराधियों के एक बड़े सरगना का खासमखास था जो भयावह हत्यारा माना जाता था। उसे एक बार पुलिस ने पकड़ा भी था लेकिन गवाही देने के बदले मृतक की माँ ने उसे ये कहकर छोड़ दिया था कि तुम्हें भी ये सब भुगतना पड़ेगा। बाद में वो सुधर जाता है और नायिका से शादी के बाद सामान्य जीवन जी रहा होता है। दूसरी तरफ रितेश देशमुख जो किरदार निभा रहे हैं वो आम जीवन में बेचारा भला आदमी है।

 

रितेश जो राकेश “रघु” नाम का किरदार निभा रहे हैं वो छोटा मोटा मिस्त्री का काम करने वाला एक जीव है। कम पैसे कमाने और भले से होने के कारण उसकी पत्नी उसकी रोज बेइज्जती करती है, मारती-पीटती भी है। वो रोज पिटता है, मगर अपनी पत्नी को कुछ नहीं कहता। इस गुस्से को वो दूसरी महिलाओं पर निकालता है। जो भी उसे लगता है कि उससे तमीज से बात नहीं कर रही, वो उनकी एक एक करके हत्या करता जाता है। इसी क्रम में उसने नायिका की भी हत्या कर डाली थी। अब पुलिस इस हत्यारे को खोजने के लिए परेशान थी क्योंकि उन्हें पता था कि जिसकी हत्या हुई है उसका पति अगर बदला लेने निकला तो पूरे शहर में कई क़त्ल होंगे।

गैंगवॉर रोकने की कोशिश में एक तरफ रघु को पुलिस ढूंढ रही थी तो दूसरी तरफ उसे नायिका का पति, यानि गुरु ढूंढ रहा था। गुरु उसे ढूंढकर मारता भी नहीं, पीट-पाट कर अस्पताल में डाल देता है, ताकि ठीक होने पर फिर से मार-पीट कर उसे अस्पताल पहुंचा सके। फिल्म है तो कई रोचक घटनाओं के बीच रघु की पत्नी का कत्ल होता है। बाद में गुरु को मारने की कोशिश कर रहा रघु भी मारा जाता है और रघु के बच्चे को गुरु गोद ले लेता है।

 

इस फिल्म के नायक और खलनायक के बीच के किरदारों के बदले हमने आपको फिर से भगवद्गीता का एक श्लोक पढ़ा डाला है। चौथे अध्याय के इस श्लोक में कहा गया है –

 

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18

 

जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। वैसे तो ये बड़ा ही मुश्किल काम है क्योंकि अगर हम स्वयं ही कर्म कर रहे हों तो स्वयं को देखते नहीं। ऐसे में कौन सा कर्म अकर्म था और कब अकर्म में कर्म हो गया ये समझना मुश्किल है। फिल्म के दोनों किरदारों को चूँकि हमलोग बाहर से देख रहे हैं इसलिए उन्हें समझना अपेक्षाकृत आसान है।

 

रघु जो फिल्म का खलनायक है वो अनगिनत स्त्रियों की हत्या कर रहा था। इस कर्म का उसे फल क्या चाहिए था? उसे अपनी पत्नी से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा थी। बस वो मान ले कि उसका पति हीरो है, इतना ही चाहिए था उसे। लेकिन उसने अपनी पत्नी को अपने कर्म (या कहिये कुकर्म) के बारे में तो कभी बताया ही नहीं! तो कर्म का समाज पर, बाकी की दुनियां पर तो प्रभाव पड़ा, लेकिन उसे जो फल चाहिए वो मिला ही नहीं, इसलिए उसके लिए तो वो अकर्म जैसा ही रहा। इतनी हत्याओं के लिए पकड़ा जाता तो भी फांसी होती, नायक के हाथों भी मारा ही गया। अगर वो ये हत्या जैसा कर्म नहीं करता तो उसके व्यक्तिगत जीवन में क्या फर्क पड़ता? इसलिए कर्म होते हुए भी उसकी पत्नी के हिसाब से देखें तो वो अकर्म ही रहा।

(इन्टरनेट से साभार लिया गया वीडियो  जो दृष्टिकोण के बदलते ही वस्तु का अलग दिखना दर्शाता है)

 

दूसरी तरफ फिल्म का खलनायक जैसा नायक है जो अपराध छोड़ चुका है, लेकिन हिंसा उसके लिए कोई वीभत्स चीज़ नहीं। खलनायक के ठीक विपरीत इसके पास अकर्म का विकल्प था। वो मामले को पुलिस के लिए छोड़कर बैठ सकता था। खुद को बचाता, कोई कर्म न करता तो अकर्म हो जाता। लेकिन उसका अकर्म भी अकर्म नहीं रहता क्योंकि वो अगर रघु को जीवित छोड़ता तो रघु और हत्याएं करता। इस तरह गुरु तो हत्या न करके अकर्म कर रहा होता लेकिन उसकी वजह से रघु का कर्म (या कुकर्म) अपनेआप ही हो जाता। जैसे रघु का कर्म अकर्म होता है, उसका उल्टा गुरु का अकर्म कर्म हो जाता। यहाँ रघु और गुरु नाम भी एक दूसरे को उल्टा करने पर बनने वाले जैसे लगते हैं, लेकिन उर्दूवुड की फिल्मों में इतना सोचा गया होगा, इसकी अपेक्षा हम नहीं करते।

 

जहाँ तक कर्म में अकर्म और अकर्म में भी कर्म देखने का सवाल है, इस बारे में कई बार दार्शनिक कहते रहे हैं कि कोई फैसला न लेने का फैसला करना भी तो एक फैसला ही है। टाल देना किसी समस्या का निदान नहीं होता। मुश्किल परिस्थितियों में जब हम कठिन निर्णय लेना छोड़ देते हैं, “कड़वी गोली” की हिम्मत नहीं जुटा पाते तो उस अकर्म में अपने आप ही कर्म हो जाता है। इसके विपरीत कड़े फैसले से एक कोई नाराज हो जाए तो भी कई लोगों का भला हो रहा होता है, इसलिए वो कर्म भी अकर्म है। उसका फल नहीं आएगा। ये करीब करीब भारतीय न्याय के सिद्धांत जैसा है। भारतीय न्याय व्यवस्था में भी केवल इसलिए फांसी नहीं दे दी जाती क्योंकि किसी की हत्या कर दी गयी है। किस कारण से हत्या हुई उसके हिसाब से दंड देना या न देना तय होता है।

 

इनके अलावा कर्म के मामले में काफी कुछ हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जो हमारे हिसाब से कर्म है वो किसी और के हिसाब से कुकर्म हो ऐसा भी हो सकता है। इसके लिए भगवद्गीता कहती है –

 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48

 

यानि दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं। देखने का दृष्टिकोण बदल दिया जाए तो हर कर्म में दोष भी दिखने लगेंगे। इस वजह से हरेक कर्म का त्याग नहीं किया जा सकता। ये कुछ वैसा ही है जैसा इस फिल्म का तथाकथित नायक। उसके लिए जो सहज ही कर्म था, वो दोषों से भरा हुआ दिखेगा, लेकिन उनका त्याग नहीं किया जा सकता है। इसकी तुलना में खलनायक को देखेंगे तो उसके कर्म किसी भी दृष्टि से कुकर्म ही थे। उन्हें सहज कर्म कहा ही नहीं जा सकता, इसलिए ये श्लोक उसपर लागू नहीं होता।

 

बाकी आपकी मंशा, नियत, या कर्म के पीछे की सोच से कर्म कैसे अकर्म होता है, और अकर्म कैसे कर्म हो जाता है उस बारे में जो बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं ही भगवद्गीता पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!

#गीतायन #Geetayan