अनब्रोकन – कर्म और कर्मफलों का त्याग

प्रेरक फिल्मों की बात की जाये तो हाल में एक “अनब्रोकन” नाम की फिल्म आई थी। एंजेलीना जोली द्वारा निर्देशित इस 2014 में आई फिल्म की कहानी इसी नाम के एक उपन्यास पर आधारित है। सत्य घटना पर बनी इस फिल्म की कहानी द्वित्तीय विश्व युद्ध के समय की है जब अप्रैल 1943 में लुइ नाम के एक लेफ्टिनेंट का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। अपने साथियों को बचाने के लिए बचाव दल भेजा जाता है मगर वो एक ऐसा जहाज इस्तेमाल कर रहे थे जिसके पुर्जे खोलकर दुसरे जहाजों को ठीक किया जा रहा होता है। जाहिर है ये जहाज भी दुर्घटनाग्रस्त होता है और लुइ के साथ फिल और मैक नाम के उसके सिर्फ दो साथी बच पाते हैं।
फिल्म थोड़ा सा फ़्लैश बेक में भी जाती है और दिखाया जाता है कि लुइ विद्रोही स्वभाव का था। शराब पीने, चोरी जैसी बदमाशियां करता रहता था। इटालियन होने के कारण कई लोग उसे मारते पीटते भी रहते थे। थोड़े ही दिनों में उसके भाई पीटर को दिख जाता है कि वो कितना तेज दौड़ता है, और वो उसे प्रशिक्षित करने लगता है। धीरे-धीरे लुइ अपना अनुशासन बढ़ाता है और लम्बी दूरी के धावक के रूप में उसे ख्याति मिलने लगती है। उसे 1936 के ओलंपिक में आठवां स्थान मिला था और पांच हजार मीटर की दूरी में उसने नया कीर्तिमान भी बनाया था।
वापस जब फिल्म 1943 पर आती है तो पता चलता है कि कई दिनों तक बहने के बाद सत्ताईसवें दिन उनपर एक जापानी हवाई जहाज की नजर पड़ जाती है। वो लोग गोलियां चलाते हैं लेकिन लुइ और उसके साथी बच जाते हैं। कुछ दिनों बाद उनके एक साथी मैक की मौत हो जाती है और आखिरकार सैंतालिस दिन बाद जापानी नाविक फिल और लुइ को पकड़ लेते हैं। उनसे अमरीकी हवाई जहाजों के बारे में पूछताछ की जाती है। दोनों को अलग-अलग बंदियों के कैंप में भेजा जाता है।
यहाँ एक अलग ही मुसीबत लुइ का इन्तजार कर रही थी। इस बंदी कैंप का प्रमुख जापानी कुछ ज्यादा ही क्रूर था। पिटाई इत्यादि से लुइ का रोज ही सामना होता है। दो साल बाद जब उस जेलर का तबादला होता है तो लुइ को थोड़ी राहत मिली लेकिन थोड़े ही दिन बाद जब टोक्यो पर बमबारी हुई तो उन सभी को दूसरे कैंप में भेजा जाता है। यहाँ उसका जेलर फिर से वही जापानी था जो अब पदोन्नति पाकर और ऊँचा अधिकारी हो गया था। यहाँ लुइ को कोयला ढोने के काम में लगाया गया था। एक दिन जब वो मजदूरी करते, थोड़ा ठहर जाता है तो सजा के तौर पर उसे एक भारी लट्ठ सर के ऊपर उठाये खड़े रहने की सजा मिलती है।
आदेश था कि अगर लट्ठ गिरे तो लुइ को गोली मार दी जाए। लेकिन लुइ थकने टूटने के बाद भी न तो लट्ठ गिरने देता है ना ही जेलर के सामने नजरें झुकाता है। इससे नाराज जेलर उसकी जमकर धुनाई कर देता है। जब अमरीकी जहाज जापान पर बमबारी करने लगते हैं तो सबको समझ में आता है कि युद्ध समाप्त हो गया और जापान हार चुका है। लुइ उस जेलर को ढूँढने की कोशिश करता है लेकिन तबतक वो भाग चुका था। वो बैठकर जेलर की बचपन की तस्वीर को काफी देर तक देखता है, जिसमें जेलर अपने पिता के साथ खड़ा नजर आता है। फिल्म के अंत में लुइ को वापस अमेरिका भेज दिया जाता है जहाँ उतरते ही वो जमीन को चूमता है।
फिल्म के अंत में असली लुइ की तस्वीरें दिखाते हैं। ये भी बताया जाता है कि वो जेलर लम्बे समय तक फरार रहा। लुइ ने बाद में इसाई रिलिजन अपना लिया था।
ये फिल्म इसलिए देखी जानी चाहिए क्योंकि ये हाल के दौर में बनी सबसे प्रेरक फिल्मों में से एक है। आखरी दृश्य का लुइ जब जमीन चूमता है तो पता चलता है कि उसने सभी मुसीबतों को झेलकर भी जीने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी। भारी लट्ठ उठाये जेलर के सामने नजरें ना झुकाने को तैयार लुइ किसी को भी एक बार फिर से उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकता है। अब जैसा कि जाहिर है, हम फिल्म की कहानी के जरिये सिर्फ फिल्म तो देखने कह नहीं रहे होंगे। हमने धोखे से आपको फिर से भगवद्गीता के कुछ श्लोक पढ़ा डाले हैं।
यहाँ जो सबसे पहले ध्यान देने लायक बात है वो ये है कि जब प्रशांत महासागर में नीचे शार्क और ऊपर जापानी हवाईजहाजों के बीच लुइ फंसा हुआ तो तो उसे हाथ पैर मारने किसने कहा था? चुपचाप मर क्यों नहीं गया? जान बचाने और हालात का मुकाबला करने किसी ने नहीं कहा। समुद्र से बच भी गया तो जापानी जेल में जाकर नहीं मरेगा इसकी भी किसी ने गारंटी नहीं ली थी। वो सिर्फ अपना कर्म कर रहा था। एक-दो, पांच-दस दिन नहीं, 27वें दिन एक साथी के गुजरने पर नहीं, 47वें दिन पकड़े जाने पर भी वो अपना कर्म बंद ही नहीं करता! उसके 47वें दिन पर भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का 47वां श्लोक याद कर लीजिये –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47
ये इतना प्रसिद्ध है कि इसका मतलब अलग से बताने की भी जरूरत नहीं, फिर भी, यहाँ कहा गया है कि आपका अधिकार सिर्फ आपके कर्म पर है, उनके फलों पर आपका कोई अधिकार नहीं होता। कोई फायदा होगा, हो रहा है या नहीं, आगे कभी होगा, इन बातों की परवाह किये बिना लुइ कर्म किये जा रहा था। श्लोक के बिलकुल दूसरे हिस्से जैसा वो कभी अकर्मण्य होने में आसक्ति नहीं दिखाता। इस एक श्लोक से जुड़े हुए कई दूसरे श्लोक भी हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि आज के दौर के हिसाब से देखें, या जिस समय इसे कहा गया होगा, तब के हिसाब से, कर्म करते जाना और फल की आशा ही ना करना सरल तो नहीं।
अभी के दौर के हिसाब से इसे मेडिकल प्रोफेशन, यानि चिकित्सकीय काम से जोड़कर देख सकते हैं। एक डॉक्टर, या एक नर्स, वार्डबॉय और ऐसे कई कर्मचारी जो अपने काम से ये अपेक्षा कर रहे हैं कि उनके प्रयासों से किसी का जीवन बच जायेगा, उनपर क्या बीतती होगी जब उनके किसी मरीज को वो बचा नहीं पाते होंगे?
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19
अर्थात जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ संकल्प और कामना से रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं। यानी कार्य शुरू करने से पहले कोई संकल्प भी नहीं और कार्य करते हुए किसी फल की कामना भी नहीं! ये श्लोक इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ कामना और संकल्प दोनों शब्द एक साथ आये हैं। छठे अध्याय का चौथा श्लोक देखेंगे तो केवल संकल्प का और दूसरे अध्याय के पचपनवें श्लोक में केवल कामना का त्याग करने कहा गया है।
चिकित्सकों के लिए कामना तो यही होती होगी कि हरेक मरीज को बचा लें, लेकिन अपने अनुभव के कारण उन्हें अच्छी तरह पता होता है कि ये हर बार संभव नहीं होगा, इसलिए बचा लेने जैसा कोई संकल्प तो नहीं ही करते होंगे। क्या होगा अगर करने लगें? फिर तो सौ जीवन बचाने के बाद भी जो एक नहीं बचा उसके लिए अवसाद में जायेंगे। या फिर संकल्प किया और एक को बचा लिया तो जिनका जीवन नहीं बचा पाए, वहाँ से कुछ सीखेंगे नहीं और स्वयं को सचमुच ईश्वर समझने वाले अहंकारी होने लगेंगे।
ये कोई आसान काम नहीं होता इसलिए इसे बार-बार दोहराया गया है। छठे अध्याय के चौबीसवें श्लोक में कामना और संकल्प फिर से एक श्लोक में मिलते हैं। यहाँ दोनों को रोकने का मार्ग बताया गया है –
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।6.24
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25
अर्थात, संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके और मन से ही इन्द्रिय-समूह को सभी ओर से हटाकर, धीरे-धीरे धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त हो। मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे। ये कुछ वैसी स्थिति है जैसे में अस्पताल के कोविड वार्ड के कर्मचारी होंगे। जितनी देर काम पर हैं, उतनी देर उनमें से किसे याद रहता होगा कि उनके पास कोई घर-परिवार, पत्नी-बच्चे भी हैं? कुछ पुराने वीडियो में तो पीपीई किट उतरने पर पसीने से जैसी हालत दिखी थी, लगता नहीं कि उनके पास कोई शरीर है, इसकी याद भी उन्हें रहती होगी!
फिल्म का लुइ भी ऐसा ही अकेला है, नितांत अकेला। मैक और फिल जैसे उसके साथी भी छूट जाते हैं और परिस्थितियों के सामने वो अकेला ही डटकर खड़ा होता है। जीवन में जिन मोर्चों को कठिन कहा जाता है, वहाँ आप अपने को अकेला ही पाएंगे। ये कुछ ऐसा ही है जैसे पांडवों के पास पूरी सेना तो थी, लेकिन वो बीच मैदान में जाकर अकेला रथ खड़ा करवा लेता है! वो भी ऐसी ही जगह पर था जहाँ उसके साथ केवल भगवान होते हैं। अब वापस हमलोग दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक पर चलें जहाँ से बात शुरू की थी।
यहाँ “कर्मणि” पद में एकवचन है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्य पशुओं की तरह केवल पूर्वजन्म के कर्मफल नहीं भोगता। हमेशा तो नहीं लेकिन अक्सर मनुष्य के पास इस जन्म में नए कर्म करने की, चुनाव की स्वतंत्रता होती है। यहाँ अर्जुन के पास चुनाव की स्वतंत्रता नहीं है। वो पूर्वजन्म के कर्मफल का केवल भोग या नए कर्मों का चुनाव नहीं कर सकता। उसके सर पर युद्ध है और उसके पास एक ही विकल्प है। कोई दान-पुण्य, भजन-सेवा जैसे काम वो रोजमर्रा के कार्यों के साथ नहीं कर पायेगा। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों या उनके परिवारों जैसी ही हालत है। युद्ध जारी है और एक दिन किसी प्रियजन के बिछुड़ने का अफ़सोस करने का समय भी नहीं है। उठिए,
खड़े हो जाइये क्योंकि लड़ना ही होगा।
बिलकुल फिल्म के लुइ की तरह समुद्र में हैं तो वहाँ हाथ पैर मारने होंगे, और जेल में हैं तो जेलर से मुकाबला करना होगा और इसका कभी कोई फल मिलेगा या नहीं, मिलेगा तो क्या मिलेगा, इसका कुछ भी पता नहीं। इसलिए उसकी आशा भी नहीं करनी। बाकी ये जो अनब्रेकेबल के बहाने पढ़ा डाला है वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!