जिन्होंने हिंदी माध्यम से पढ़ाई की होती है, उनके लिए ये समझना आसान है कि योग का अर्थ होता है जोड़ना। स्कूल में गणित के प्रश्नों में लिखा होता था “निम्नलिखित संख्याओं का योग बताये – 9 + 22 = ?”, या ऐसा ही कुछ। आम जीवन में भी हमलोग कुछ न कुछ जोड़ते रहते हैं, जिसका अर्थ इकठ्ठा करने जैसा भी लिया जा सकता है। दसवीं तक के स्तर का इतिहास का ज्ञान बटोरा, फिर बारहवीं, फिर स्नातक यानी ग्रेजुएशन, और ऐसा करते-करते अंततः पीएचडी भी हो गए। यहाँ ज्ञान इकठ्ठा कर रहे थे, जोड़ रहे थे, इसलिए ये भी योग है। पैसे बचाकर कोई कार खरीदने, मकान बनवाने आदि में भी योग यानी पैसे जोड़ना होता है।
ये वाला यानी योग का हिस्सा थोड़ा मुश्किल है। इससे अधिक, यानी असली मुश्किल वाला हिस्सा होता है जो जोड़ा, जो इकठ्ठा किया, उसे सहेजना या बचाए रखना। हम सभी लोगों को पता है कि इतिहास से पीएचडी हो भी गए तो दसवीं से पहले जो इतिहास में पढ़ा था, उसके कई हिस्से हमलोग भूल चुके होते हैं। पैसे के मामले में भी ऐसा होता है कि कमाया और इकठ्ठा तो किया मगर फिर उसे किसी-किसी और काम में खर्च कर डाला, बचाया नहीं। पैसे-संपत्ति में तो लूट-चोरी इत्यादि से बचाए रखने के लिए बैंक में जमा करने, फिक्स डिपोजिट कर देने जैसी व्यवस्थाएं भी प्रयोग में लायी जाती हैं। जो जमा किया, जोड़ा, उसे बचाए रखने की इस विधा को “क्षेम” कहते हैं।
बीमा यानी इन्स्युरेंस का जो सिद्धांत है, वो कहता है कि आप बीमार वगैरह हो जाएँ और काम न करने की स्थिति में हों तो आपका कमाना-जोड़ना न रुके, योग कुछ होता रहे, इसकी जिम्मेदारी बीमा कंपनी की है। एक्सीडेंट हो जाने पर, अस्पताल में भर्ती होने पर कुछ पैसे बीमा कंपनी देगी। ऐसे ही जो आपने बीमा कंपनी में जमा किया है, वो एक निश्चित समय अविधि से पहले निकाल न सकें, कोई खर्च न कर सकें, चोरी न हो, खोये ना, इसका इंतजाम भी बीमा कंपनियां करती हैं। इसी लिए एलआईसी के ध्येय वाक्य में आपको “योगक्षेमं वहाम्यहम्” लिखा हुआ दिखेगा। वो कहना चाहते हैं कि आप जोड़ते भी रहें और आपका जोड़ा हुआ सुरक्षित आपका ही रहे, ये दोनों दायित्व बीमा कंपनी उठाएगी!
असल में ये ध्येय वाक्य #भगवद्गीता के नौवें अध्याय के बाईसवें श्लोक से आता है –
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22
यहाँ (मोटे तौर पर) भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जो भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, निरन्तर जिनका ध्यान मुझपर ही है, उन भक्तों का योग (यानि अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (यानि उन्होंने जो प्राप्त किया उसकी रक्षा) का भार मैं वहन करता हूँ।
योग और क्षेम के इस सिद्धांत को सोशल मीडिया के दौर में समझना और भी आसान है। प्रसिद्धि या यश भी ऐसे ही प्राप्त करने की वस्तु है। सोशल मीडिया के दौर में यश/प्रसिद्धि प्राप्त कर लेना बहुत कठिन भी नहीं है। अचानक किसी को मिल गया, दिल्ली में ढाबा चलाने वाले किसी बाबा को, स्टेशन पर या ट्रेन में गाना गाने वाली किसी महिला को, अनाप-शनाप बयान देती, विचित्र वेशभूषा बनाए किसी युवती को मिल गया, अशोभनीय हरकतें करने वाले किसी मसखरे को भी यश मिल जाता है। योग का प्रबंध यानी जो प्राप्त नहीं था उसकी प्राप्ति हो गयी, लेकिन क्षेम यानी जो प्राप्त हुआ उसकी रक्षा का क्या हुआ? यश टिका रहा या खो गया?
जब यहाँ तक सोचने पर पहुँच गए हैं तो योग और क्षेम का अर्थ आप समझ चुके हैं। अब एक बार वैशाली और प्रज्ञानानंद नाम के भाई बहन को याद कर लीजिये। उनकी माता के चेहरे पर जो अचम्भे और गर्व से भरी मुस्कान थी, वो भी संभवतः आप तस्वीरों में देख चुके हैं। विख्यात होने के साथ ही कुख्यात भी हुआ जा सकता है, इसलिए मनुस्मृति जलाकर उससे सिगरेट सुलगाने वाली की ख्याति भी सोशल मीडिया पर हुई थी ये याद कर लीजिये। क्या उसका नाम भी वैसे ही याद है या दस वर्ष बाद याद रह जायेगा, जैसे आसानी से वैशाली और प्रज्ञानानंद नाम के शतरंज के विजेताओं का नाम याद आएगा?
याद ये भी कीजियेगा कि टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे पेड पब्लिकेशन माध्यमों ने जब इनके चित्र छापे थे तो फोटोशोप से इनका तिलक भी गायब कर देने का प्रयास किया था। क्या कीर्ति कम हो पाई उससे? बाकी योग और क्षेम के वहन का दायित्व कैसे ईश्वर का हो जाता है, और कब नहीं होगा, उसके बारे में जो बताया है वो केवल नर्सरी के स्तर का है, पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी पड़ेगी, ये तो याद ही होगा!
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#Gitayan