राजा साहब राजा थे तो विचित्र निर्णय लेने से उन्हें रोकता कौन? इसलिए जब उन्होंने निर्णय लिया कि उनकी राजधानी के बाजारों में जो भी बिकने आये, वो सूर्यास्त तक न बिके तो वो स्वयं खरीदेंगे, या कहिये राज्य क्रय कर लेगा, तो किसी ने उन्हें नहीं टोका। वैसे भी राज्य की व्यवस्था अच्छी चल रही थी। आय अधिक था, खर्चे कम थे। तो शुरू में तो इस निर्णय से कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन थोड़े ही दिन में देवताओं का ध्यान इस व्यवस्था पर चला गया। उन्होंने सोचा ऐसा कैसे? कोई राजा इतने पुण्य करे तो लोग कष्टों से बच जायेंगे और हमपर तो कोई ध्यान ही नहीं देगा। कष्ट हों, तब तो लोग सहायता के लिए देवताओं को पुकारते!
चुनांचे देवताओं ने राजा की जांच करने की ठानी। धर्म ने स्वयं एक ब्राह्मण का वेश धारण किया, एक संदूक में कबाड़ भरा और राजा की राजधानी में उसे बेचने पहुँच गए। हाट में बैठकर उन्होंने कबाड़ की कीमत हजार अशर्फियाँ बतानी शुरू की। कोई हजार अशर्फियों में कबाड़ क्यों खरीदता? जैसा कि होना था, सूर्यास्त हुआ और वो बिना अपना सौदा बेचे बैठे थे। राज्य के कर्मचारी जांच के लिए आये तो देखा कि उनका सौदा बिका नहीं। मूल्य पूछा गया, और जब देखा गया कि हजार अशर्फियों में वो क्या बेचने बैठे हैं, तो सबने उनकी मूर्खता का मजाक उड़ाया। नियम था ये सभी को पता था, इसलिए जब कबाड़ बेचने बैठा ब्राह्मण नहीं माना तो उच्चाधिकारियों को इस विषय में बताया गया।
थोड़ी देर और मामले की जांच हुई क्योंकि पहले कभी ऐसा हुआ नहीं था। अंततः राजा तक बात पहुंची। राजा बोले नियम तो मैंने ही बनाया है, अब अपनी बात से कैसे फिरूं? खरीद लो जो कुछ भी है। रात में राजा भोजन इत्यादि करके एक बाहर के ओसारे सी जगह में बैठे थे जब कुछ नौकर-चाकर कबाड़ भरा संदूक उनके पास रख गए। देर रात तक राजा इसी सोच में बैठे थे कि कहीं राज्य के और लोग भी देखा-देखी ऐसा ही करने लगे तो? गुप्तचरों को उन्होंने पहले ही ब्राह्मण का पीछा करने भी भेज दिया था। आधी रात बीत चुकी थी कि महल के अन्दर की ओर से पायलों-चूड़ियों के खनकने की सी आवाज आई।
राजा चौंके, इतनी रात में भला कौन स्त्री महल से बाहर जा रही है? उन्होंने स्त्री को जाते देख आवाज लगाई तो वो ठहरी। राजा ने पास जाकर देखा तो स्वर्ण-आभूषणों से लदी कोई सुन्दर स्त्री थी जिसे उन्होंने कभी देखा नहीं था। स्त्री ने स्वयं अपना परिचय देते हुए कहा कि वो राज्य-लक्ष्मी है। संदूक में भरे कबाड़ के साथ महल में दरिद्रता का प्रवेश हो गया है, इसलिए वो जा रही है। राजा ने हाथ जोड़े और उन्हें विदा किया। वो वापस आकर बैठे ही थे कि श्वेत वस्त्रों में एक युवक निकलता दिखा। राजा ने उसे भी टोका तो उसने कहा कि वो दान है, जहाँ लक्ष्मी ही नहीं वहाँ दान कहाँ होगा? राजा ने उसकी बात से सहमती जताई और उसे भी जाने दिया।
थोड़ी देर और बीतने के बाद एक और सुदर्शन युवक निकला। राजा कुछ पूछते, इससे पहले ही उसने स्वयं बताया। वो धर्म थे। उनका कहना था लक्ष्मी और दान के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता, इसलिए उन्हें भी विदा दी जाए। राजा ने सोचा, बात तो सही है और धर्म को भी जाने दिया। उसके पीछे पीछे एक और युगल निकले जिन्होंने बताया कि वो यश और कीर्ति हैं। लक्ष्मी, दान और धर्म के बिना यश-कीर्ति कहाँ हो? इसलिए वो भी जा रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त होने में अभी कुछ ही देर बाकी था कि चेहरा ढकने का प्रयास करते एक और युवक निकलने लगा। राजा ने उसे भी नहीं पहचाना और परिचय पूछा। युवक ने बताया कि वो सत्य है। जहाँ लक्ष्मी, दान और धर्म नहीं, वहाँ उसकी जरुरत भी नहीं होगी, लेकिन राजा ने बड़ी निष्ठा से उसका पालन किया था, इसलिए वो मुंह छुपाता हुआ जा रहा था।
इस बार राजा ने कड़क कर कहा, आप जा नहीं सकते। सत्य के पालन की खातिर ही मैंने हजार अशर्फियों में इस कबाड़ रुपी दरिद्रता को लाना स्वीकार किया। आपके पालन की लिए ही लक्ष्मी जाने पर चुप रहा, दान-धर्म को जाने दिया, आप कैसे जा सकते हैं? सत्य सोच में पड़ गया। राजा की बात सही थी। सत्य ने आपनी भूल स्वीकार की और महल में वापस लौट गया। राजा वापस बैठे ही थे कि भागे-भागे यश-कीर्ति वापस आ गए। राजा ने उन्हें देखकर हाथ जोड़े तो यश ने कहा, महाराज, सिर्फ सत्य पर टिके रहे तो यश और कीर्ति तो उससे मिलेगी ही। सत्य के बिना यश-कीर्ति मिल भी जाएँ तो ठहरते नहीं। सत्य आपके पास ही है, इसलिए हम जा नहीं पाए। वो अन्दर गए ही थे कि पीछे-पीछे धर्म लौटे।
धर्म ने कहा धर्म का पालन अवश्य लक्ष्मी और दान से होता है, लेकिन धर्म का मूल स्वरुप तो सत्य ही है। इसलिए सत्य के पास वो भी लौट आये थे। थोड़ी देर में दान लौटे। उन्होंने कहा कि जहाँ सत्य न हो वहाँ दान की बातें चाहे जितनी हों, दान तो होगा नहीं। इसलिए वो भी सत्य के पास लौट आये हैं। थोड़ी देर और हुई, तो ब्रह्म मुहूर्त होते-होते लक्ष्मी लौट आयीं। उन्होंने कहा मैं तो दान-धर्म, यश-कीर्ति और सत्य का प्रतिफल हूँ। जैसे मेरे द्वारा इनका पालन होता है, वैसे ही इनके माध्यम से मैं आती हूँ। इसलिए राजन मैं भी तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकती!
सिर्फ एक सत्य का पालन करने पर क्या होता है, ये हम लोगों ने हाल ही में एक फिल्म के बनने में देखा है। फिल्म केवल सत्य घटनाओं पर आधारित थी। कोई बड़े सितारे फिल्म में नायक-नायिका नहीं थे, फिल्म में गाने-आइटम सोंग्स नहीं थे। कोई नामी गिरामी डायरेक्टर नहीं था, प्रचार में बहुत पैसे खर्च नहीं हुई क्योंकि बड़ा बजट भी नहीं था। सिर्फ सत्य का आधार बनाये रखने का नतीजा ये हुआ कि यश-कीर्ति आई। धर्म की साथ है ये कहा जाने लगा। सचमुच कुछ दे या नहीं, दान की बातें हो रही हैं। लक्ष्मी आई या नहीं, इसके बारे में तो खैर, कुछ कहने की भी जरुरत नहीं रह गयी है।
सत्य को भगवद्गीता के आधार पर देखें तो ये सत्रहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक के हिसाब से देखें तो तीन नामों से परमात्मा का निर्देश दिया गया है –
तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।17.23
अर्थात, ऊँ, तत् और सत् — इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है।
अगर दूसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक में देखें तो वहाँ भी सत्य की चर्चा आती है –
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16
यहाँ कहा गया है कि असत्य की तो सत्ता ही नहीं है, यानि वो होता ही नहीं, और सत्य कभी विद्यमान न हो, ऐसा भी नहीं होता। इसके अलावा भी अलग-अलग स्थानों पर भगवद्गीता में माया और सत्य के अंतर पर बातें हुई हैं। अगर सत्रहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक से पहले देखेंगे तो वहाँ दान के विषय में भी चर्चा मिल जाएगी।
बाकी किसी पुरानी सी, नैतिकता की कहानी के जरिये आप ये भी सीख सकते हैं कि शासन-सत्ता को मुफ्तखोरी को बढ़ावा क्यों नही देना चाहिए। जो भगवद्गीता के श्लोको के सम्बन्ध मी बताया वो नर्सरी स्तर का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद ही पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा?
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