राष्ट्रपति चुनाव, पत्रकारिता और उससे जुड़ी राजनीती और षड्यंत्रों के किस्म-किस्म के दांव-पेंच देखने हों तो “आल द प्रेसिडेंट्स मेन” देखिये। इस फिल्म में दो-चार पात्रों की कहानी ही नहीं बल्कि दर्जनों नाम है। कभी बिल्ली के भाग्य से छींका फूटता भी है और कभी पत्रकारों को फर्जी ख़बरें भी मिल जाती हैं। राजनीति में कैसे इनकार का मतलब इंकार नहीं होता, वो भी दिखाया गया है और कैसे किसी दुश्मन को छोटा मानकर छोड़ा नहीं जाता, ये भी नजर आ जाता है। ये फिल्म इसी नाम के एक उपन्यास पर आधारित थी, जिसे कार्ल बर्नस्टीन और बॉब वुडवर्ड नाम के दो पत्रकारों ने लिखा था। ये दोनों “द वाशिंगटन पोस्ट” के वो पत्रकार थे, जिन्होंने अमेरिका के कुख्यात “वाटरगेट स्कैंडल” का खुलासा किया था।
फिल्म की शुरुआत 17 जून 1972 में होती है जब एक सिक्यूरिटी गार्ड को एक दरवाजे के लॉक से की गयी छेड़-छाड़ नजर आ जाती है। पुलिस आती है तो वहीँ पास के डेमोक्रेटिक नेशनल कमिटी के मुख्यालय से पांच घुसपैठियों को गिरफ्तार भी कर लेते हैं। अगले दिन वाशिंगटन पोस्ट से एक नए रिपोर्टर को इस छोटी मोटी चोरी जैसी घटना को कवर करने भेजा जाता है। ये नया रिपोर्टर बॉब वुडवर्ड पता लगा लेता है कि इन पाँचों के पास फोन टेप करने, जासूसी करने के इलेक्ट्रोनिक उपकरण पाए गए थे और इनकी तरफ से एक अच्छा ख़ासा महंगा वकील मुकदमा लड़ने वाला था। अदालत में ये भी पता चल जाता है कि इनमें से सभी हाल तक ही सीआईए के लिए काम करते थे। अब तो मामला पेंचीदा हो सकता है ये वुडवर्ड समझ जाता है।
अगले ही दिन उसके साथ एक और रिपोर्टर कार्ल बर्नस्टीन को भी भेजा जाता है। शुरू शुरू में दोनों को एक दुसरे के साथ काम करने में दिक्कत होती है, लेकिन धीरे धीरे बात सुधरने लगती है। संपादक का मानना था कि ये पत्रकार जो खबर ला रहे हैं, वो धमाकेदार हो सकती है, लेकिन उनके पास भरोसेमंद सूत्र नहीं हैं। वो दोनों पत्रकारों को और खोदबीन करने के लिए प्रोत्साहित करता है। वुडवर्ड अब एक बड़े अधिकारी से संपर्क करता है जिससे उसने पहले भी सूचनाएं ली होती हैं। यही अधिकारी फिल्म का प्रसिद्ध डायलॉग “फॉलो द मनी” कहता है। पैसे का पीछा करने पर जांच में निक्सन का अभियान देखने वाली “क्रीप” की तरफ से हेराफेरी के प्रमाण मिलने लगते हैं। वुडवर्ड और बर्नस्टीन कई सबूत जुटा लेते हैं लेकिन अभी भी वाशिंगटन पोस्ट के अधिकारियों को लगता है की जांच पूरी नहीं है। उनका मानना था कि जब निक्सन ऐसे ही जीत रहा है तो वो डेमोक्रेटिक प्रत्याशी के खिलाफ ऐसे नुस्खे क्यों आजमाएगा?
निक्सन के लिए काम करने वाले “क्रीप” के एक पूर्व ट्रेजरर से वुडवर्ड और बर्नस्टीन को एक लाखों डॉलर के एक ऐसे फण्ड का पता चल जाता है, जो व्हाइट हाउस के चीफ ऑफ़ स्टाफ और पूर्व अटॉर्नी जनरल को भी डेमोक्रेटिक पार्टी के अभियान को बर्बाद करने के लिए इस्तेमाल होता था। अब जब वुडवर्ड अपने संपर्क से दोबारा मिलता है, तो उसे पता चलता है कि सीआईए और एफबीआई जैसी संस्थाओं का भी दुरूपयोग हुआ था। वो वुडवर्ड को ये भी बताता है कि उसकी और उसके दूसरे पत्रकार साथी की जान खतरे में भी है। इस वक्त तक निक्सन दोबारा राष्ट्रपति चुने जा चुके थे। वुडवर्ड और बर्नस्टीन नाम के दो मामूली पत्रकार जो खबर अब छापने जा रहे थे, वो सीधे सीधे अमेरिका के लिबरल राष्ट्रपति को भ्रष्टाचार में लिप्त और चुनावी प्रक्रिया को पैसे और रसूख के दम पर प्रभावित करने वाला बता रहा था।
फिल्म के अंतिम दृश्य में बर्नस्टीन और वुडवर्ड इस पूरी खबर को टाइप करते दिखते हैं, जबकि 20 जनवरी 1973 को टीवी पर निक्सन का शपथग्रहण दिखाया जा रहा होता है। “द वाशिंगटन पोस्ट” की इस खबर का नतीजा “वाटरगेट स्कैंडल” का खुलासा था जिसकी वजह से निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा और उपराष्ट्रपति गेराल्ड फोर्ड ने 9 अगस्त 1974 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी।
हिन्दी पत्रकारिता में, या भारत की पत्रकारिता में शायद ही कोई ऐसे मामले होंगे जहाँ किसी पत्रकार ने साल भर तक किसी एक ही कहानी का पीछा किया हो, और फिर उसे छापा हो। यहाँ अधिक से अधिक नाम्बी नारायणन जैसे वैज्ञानिकों को फर्जी जासूसी काण्ड में लिप्त बताने जैसे मामले होते हैं। एनडीटीवी तो असम के मुख्यमंत्री को छः बच्चों का पिता बता देने की मूर्खता भी कर चुका है। पहले तो ऐसा नहीं होता था लेकिन हाल के दौर में तो समाचार चैनलों पर जुर्माने भी होने लगे हैं और एबीपी न्यूज़ को भी भारी जुर्माना भरकर माफीनामा प्रसारित करना पड़ा है। इन सबसे पत्रकारिता के स्तर में कोई ख़ास सुधार आया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक “आल द प्रेसिडेंट्स मेन” का सवाल है, इस फिल्म कहीं गोलीबारी नहीं हो रही होती, लेकिन थ्रिलर का तनाव बना रहता है। काफी पुराने दौर की होने के बाद भी इसमें एक्टिंग-डायरेक्शन की खोट निकालना मुश्किल है।
अब चुंकि इस फिल्म के बहाने से भी हम भगवद्गीता पढ़ाने वाले थे, इसलिए देखते हैं कि यहाँ हो क्या रहा है। फिल्म के नायक भी अपना काम ही कर रहे होते हैं और निक्सन भी अपना काम ही कर रहा था। फिर ऐसा क्यों है कि नायक का काम तो उसे श्रेय दिलाता है, और निक्सन का राजनीती करना समस्याएँ खड़ी कर रहा है? अगर भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में देखेंगे तो नजर आएगा कि ऐसा ही कुछ कहा गया है –
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5
यहाँ कहा गया है कि दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा प्राणी को बाँधने के लिए होती है। आसुरी सम्पदा के लक्षणों को भी इससे ठीक पहले बताया गया है, जिसमें दम्भ, क्रोध, कठोरता और अज्ञान शामिल हैं। नायकों और खलनायकों में यही दैवी और आसुरी सम्पदा का अंतर है। आगे इस तरह की आसुरी सम्पदा के बारे में कहा गया है –
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16
यानी कामनाओं और उनकी गलत तरीके से पूर्ती करने के कारण, अपराधबोध, पकड़े जाने का भय, आपसी द्वेष-द्वन्द वगैरह उनके लिये जीतेजी ही नरक है और मरने के बाद उन्हें कुम्भीपाक, रौरव जैसे नरकों में जाना होगा। निक्सन के लिए भी और अभी के भारत के कई भ्रष्टाचारियों-दुराचारियों के लिए भी ऐसे नरक आसानी से नजर आ जायेंगे। बुढ़ापा कैसा रहा, अगली पीढ़ियों का क्या हुआ, ये देखते ही उनका जीवित ही नरक में होना दिख जायेगा।
यहीं आगे उन्नीसवें और बीसवें श्लोकों में देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि सनातनी परम्पराओं में केवल भाव भी काफी होता है। केवल कर्म के पाप ही नहीं जोड़े जायेंगे बल्कि यहाँ मन-वचन तक जोड़ा जाता है। आसुरी सम्पदा का प्रभाव मन ही मन किसी से इर्ष्या रखने, किसी का नुकसान पहुँचाने की योजना बनाने या चर्चा करने जैसा भी होगा और इसके नतीजे में फल भी वैसे ही होंगे। जैसा कई दूसरे छोटे-मोटे मजहब-रिलिजन वगैरह में माना जाता होगा, वैसे एक सीधी रेखा की तरह सनातनी सिद्धांत जन्म से मृत्यु तक के समय को केवल एक बार नहीं जोड़ा जाता। सनातनी परम्पराएं पाप-पुण्यों के बचे हुए फल को प्रारब्ध के रूप में पुनर्जन्म में मिलने की बात करती हैं। इसलिए यहाँ भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग बार-बार ऐसी ही जगहों पर जन्म लेंगे जहाँ उनके लिए आसुरी सम्पदा और बटोरने के संयोग बन जाएँ। इसका उल्टा भगवान ने योगभ्रष्ट की स्थिति में कहा था, जहाँ वो बताते हैं कि सत्कर्म करने वाला या भक्ति भाव रखने वाला योगभ्रष्ट भी हो तो पुण्य का फल मिलता है (भगवद्गीता 8.25, 6.41)।
इस फिल्म का नया सा पत्रकार जैसे धीरे-धीरे कर्तव्य पालन से आगे बढ़ता रहता है, उसके लिए चौथे अध्याय का तेईसवां श्लोक देखिये, जहाँ कहा गया है कि कर्तव्यपालन से पाप नष्ट हो जाते हैं। लगातार पूरे ध्यान से एक ही काम में लगे व्यक्ति का, या एक ही विषय का अध्ययन कर रहे मनुष्य का ज्ञान भी बढ़ता जाता है। ये चौथे अध्याय का सैंतीसवां श्लोक कहता है। अगर इन दोनों में कोई असमर्थ हो और बेचारे के पास केवल भक्ति होगी, तो उसके पाप नष्ट करने का काम भगवान स्वयं कर देते हैं (भगवद्गीता 18.66)। इसलिए जो असफल होने पर भी प्रयास करते रहे, फिल्म के पत्रकारों जितने कर्मठ नहीं हैं, या “फॉलो द मनी” का ज्ञान देने वाले “डीप थ्रोट” जैसे नहीं हैं, उन्हें भी कोई विशेष चिंता करने की जरुरत नहीं है। अगर आप सिर्फ आसुरी सम्पदा और दैवी सम्पदा में अंतर करना भी सीखने लगते हैं, तो संभव है कि ईश्वरप्राप्ति का द्वार आपके लिए भी खुल जाए।