Trishagni and Bhagvad Gita

पाली भाषा में गौतम बुद्ध के जो महत्वपूर्ण सन्देश आते हैं, “अदित्तपरियाय सूक्त” उनमें से एक है। मोटे तौर पर समझें तो ये पाँचों इन्द्रियों के निग्रह, और मन की गति को रोकने से सम्बंधित हैं। ये पाली संग्रह “संयुक्त निकाय” में आता है। संस्कृत-प्राकृत जैसी भाषाओँ के लुप्त होने और अंग्रेजी अनुवादों के ज्यादा प्रचार के कारण कभी कभी इसे “फायर सरमोन” (Fire Sermon) बुलाते हैं। इलियट की एक विख्यात कविता “द वेस्ट लैंड” की वजह से भी ये प्रचलित है। अंग्रेजी साहित्य में इसके फायर, या आग से तुलना के पीछे भी संस्कृत-पाली जैसे भारतीय साहित्य ही हैं। अक्सर काम-वासना से दघ्द होना, काम प्रज्वलित होना जैसे जुमले हिंदी में भी आपने पढ़े-सुने होंगे। रूप, रस, गंध, स्पर्श, जैसी चीज़ों की इच्छा क्या होती है, या कैसी होती है ये वो लोग ज्यादा आसानी से समझ सकते हैं जो प्रेमी-प्रेमिका जैसे संबंधों, विवाहित होने का अनुभव रखते हों। शराब जैसी चीज़ों के शौक़ीन भी आसानी से इस “आग” और “जलने” के भाव को समझ जायेंगे। दूधमुहें बच्चों को हो सकता है, थोड़ी दिक्कत हो।

इसी फायर सरमोन को आधार मानकर सरदिंदु बंधोपाध्याय ने एक छोटी सी कहानी लिखी थी। आगे इस कहानी को आधार बनाकर नबेंदु घोष के निर्देशन में एक फिल्म बनी। बिमल रॉय और हृषिकेश मुखर्जी की क्लासिक्स में से एक ये फिल्म थी “त्रिशाग्नी”। अंग्रेजी में ये “द सैंड स्टॉर्म” नाम से आती है। इसमें चार ही किरदार हैं और सभी मुख्य किरदार ही हैं क्योंकि नाना पाटेकर, अलोक नाथ, नितीश भरद्वाज और पल्लवी जोशी ने ये किरदार निभाए हैं। इस 1988 में दर्शन के कठिन सिद्धांत को दिखाने के लिए राष्ट्रिय पुरस्कार भी मिला था। इस फिल्म की कहानी बिलकुल साधारण है जिसमें उच्छंद और पिथुमित्त नाम के दो बौद्ध भिक्षु-सन्यासी हैं, जो एक मठ में रहते हैं। कहानी करीब ईसा से दो सौ साल पहले सारिपुत नाम की किसी जगह घटती है, जो की मध्य एशिया में कहीं रेगिस्तानों में बसा शहर है। यहाँ दस बीस सालों में कभी रेतीले तूफ़ान आते थे। एक दिन भयानक रेतीला तूफ़ान आता है और शहर के दो बच्चे, मठ में भिक्षुओं के साथ शरण लेते हैं। दोनों भिक्षु (अलोक नाथ और नाना पाटेकर) तो बच्चों के साथ बच जाते हैं लेकिन बाकी पूरा शहर ख़त्म हो जाता है।

 

बच्चे वहीँ बौद्ध भिक्षुओं के पास बड़े होने लगते हैं। लड़का का नाम था निर्वाण (नितीश भरद्वाज) और लड़की (पल्लवी जोशी) बड़ी होकर इति होती है। बौद्ध भिक्षु बच्चों को भी अपने ही जैसा त्यागी-तपस्वी बनाने पर तुले होते हैं, मगर दोनों को एक दुसरे से प्रेम हो जाता है। अपनी जिद पर अड़े भिक्षु लड़के को किसी तरह भिक्षु हो जाने के लिए राजी करते भी हैं तो लड़की उसे खींच कर वापस ले आती है। खीजे, गुस्साए, निराश हुए दोनों सन्यासी, दोनों को मठ से निष्काषित कर देते हैं। उनके निकाले जाते ही, सालों बाद फिर से उस शहर में रेतीला तूफ़ान आता है और फिल्म वहीँ ख़त्म होती है।

 

वैसे तो फिल्म बौद्ध दर्शन पर है, लेकिन इस फिल्म के साधुओं का नाराज होना देखकर आप भगवद्गीता के दुसरे अध्याय का 62वां और 63वां श्लोक याद कर सकते हैं। विषयों के बारे में सोचते रहने से उनसे लगाव होगा, जिस से लगाव है उसे पाने की इच्छा भी होगी, इच्छा पूरी ना होने पर गुस्सा आएगा, गुस्से में मूर्खता होगी, मूर्खता में बेवकूफियां करने पर पतन भी होना ही है। भिक्षु थे तो उनपर अपरिग्रह का सिद्धांत लागू होता। योग के जो आठ अंग बताये जाते हैं, उनमें सबसे पहले यम और नियम की बात होती है। महर्षि पतंजलि के अनुसार यम-नियम को देखें तो पांच मुख्य यम होते हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ऐसे ही मुख्य नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। दूसरे ग्रंथों में कुछ और यम-नियम या मुख्य के अलावा गौण यम-नियम भी होते हैं। यम में अहिंसा का अर्थ मन, वचन और कर्म से किसी को कष्ट नहीं पहुँचाना होगा, ये गाँधी वाली अहिंसा नहीं है। सत्य का आपको पता ही है, अस्तेय का अर्थ चोरी नहीं करना होता है जो खादी के सिद्धांतों में उचित मूल्य चुकाकर खरीदने में आपको दिखेगा। अपरिग्रह मतलब अपनी आवश्यकता से अधिक इकठ्ठा न करना होता है और ब्रह्मचर्य भी मोटे तौर पर आप जानते हैं।

 

बौद्ध भिक्षु जो यहाँ कर रहे थे वो अहिंसा के विरुद्ध जाता था क्योंकि उनके कर्मों-आदेशों से किसी को दुःख हो रहा था। अपने मठ के भविष्य के लिए वो जो शिष्य इकठ्ठा कर रहे थे, वो अपरिग्रह के नियम के विरुद्ध जायेगा। भगवद्गीता योग की बात लगातार ही कर रही होती है, ये भी आपको याद होगा। इसलिए जो अष्टांग योग के नियम हैं, वो भी इसे समझने पर लागू होते हैं। यम-नियम, धारणा, ध्यान, आदि का पालन किये बिना जब सिर्फ आसन-प्राणायाम करते हैं तो उनका पूरा लाभ भी नहीं मिलता। नियम में एक नियम संतोष का था, अगर बच्चे नहीं मान रहे थे, तो संतोष करना चहिये थे, लेकिन वो भी टूट रहा था। आम लोगों के लिए देखेंगे तो अक्सर लोग पढ़े लिखे होने के बाद भी कुछ भी नहीं पढ़ते। साल भर में एक पुस्तक भी नहीं पढ़ी तो स्वाध्याय का नियम भी गया। यहाँ फ़ौरन तीसरे अध्याय का छठा श्लोक भी याद दिला दें कि ये यम-नियम में ऊपर-ऊपर से रोकने की बात नहीं की जा रही है। भगवान तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं –

 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6

 

यानि कि जो सम्पूर्ण इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूर्ख मनुष्य मिथ्याचारी यानि ढ़ोंगी कहा जाता है। इसलिए सिर्फ दिखावे के लिए कुछ-कुछ कम नहीं करने वाला कपटी होता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कहने के लिए तो सनी लियॉन को दुश्चरित्र घोषित करें, विज्ञापनों पर आपत्ति जताएं मगर अकेले में व्हाट्स-एप्प ग्रुप में उसके विडियो आते-जाते हों, तो वो नहीं चलेगा। या तो मन में बंद कीजिये या बोलना बंद कीजिये।

 

इस मन को रोकने से सम्बंधित रोचक सा किस्सा शायद आपने सुन रखा होगा। इस कहानी में होता यूँ है कि एक स्त्री अपने छोटे से बच्चे के साथ किसी साधू के पास जाती है। उसकी समस्या ये थी कि बच्चा मीठी चीजें बहुत खाता था। दांत खराब न हों इसलिए बच्चे की माँ उसे रोकना चाहती थी, लेकिन बच्चा मानता नहीं था। स्त्री का विचार था कि साधू को बच्चा बड़ा मानता है, वो अगर मना कर देंगे तो बच्चा मान जायेगा। इसलिए वो बच्चे को साधू के पास ले आई थी। साधू ने समस्या सुनी और कहा कि वो अगले सप्ताह बच्चे को लेकर आये तो बच्चे को समझाया जायगा। अगले सप्ताह जब स्त्री अपने बच्चे को लेकर आई तो साधू ने बच्चे से कह दिया, अधिक मीठा खाना अच्छी बात नहीं, आपको ये बंद कर देना चाहिए। स्त्री ने पूछा महाराज यही एक वाक्य तो आप पिछले सप्ताह भी कह सकते थे! साधू ने जवाब दिया, माता पिछले सप्ताह मैं स्वयं मीठा अधिक खाता था। जो गलती खुद ही किये जा रहे हैं, उससे किसी को रोकते कैसे? यानि मन से छोड़ना है, ऊपर-ऊपर नहीं।

 

अब इस मन को रोकने की बात को सुनते ही अर्जुन ने भी सोचा था कि ये तो बड़ा मुश्किल काम है ! ये हो भी सकता है क्या? छठे अध्याय के में अधिकांश योग और योगियों की ही चर्चा है। वहीँ देखें तो अर्जुन चौंतीसवें श्लोक में कहते हैं –

 

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34

 

मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ। पूछे जाने पर इसी के जवाब में आगे छठे अध्याय में पैंतीसवें और छत्तीसवें श्लोक में भगवान बताते हैं –

 

श्री भगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36

 

नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। असंयत मन के पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है। यानि कि ये मुश्किल जरूर लग सकता है, मगर बिना मन को वश में किये योगी होना संभव नहीं, अभ्यास से ये किया जा सकता है।

 

बात इतने पर ही ख़त्म नहीं हो जाती, अभ्यास जैसे शब्दों को समझने के लिए भी आपको और कई श्लोक पढने होंगे। दो चार देखते ही आगे के लिए सन्दर्भ मिल जाते हैं तो बाकी को खुद ही ढून्ढ के देखिये, क्योंकि ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है। पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?