किसी खिलाड़ी के लिए अभ्यास कितना उबाऊ होता होगा? मान लीजिये क्रिकेट ही खेलता है तो हर दिन सुबह उठकर वही काम करना है। मैदान में दौड़ लगाओ, फिर और कुछ कसरत करो, फिर बैटिंग या बॉलिंग का अभ्यास करो, बिलकुल एक जैसा नपा-तुला, संतुलित, बिना तला-भुना आहार लेना है। कुछ भी रोचक हो ही नहीं सकता, कोई नया काम नहीं, कोई अलग-अलग किस्म का खाना-पीना नहीं। एक ही ढर्रे पर रोज चलते जाना है। समाजशास्त्र के प्रोफेसर डेनियल चेमब्लिस ने जब अंतर्राष्ट्रीय-ओलंपिक स्तर के तैराकों पर शोध करना शुरू किया, तो उन्हें भी यही लगा कि अव्वल दर्जे का तैराक हो जाना तो बड़ा उबाऊ काम है!
दर्जनों छोटे-छोटे काम हर दिन के अभ्यास से सीख सीख कर उनमें निपुण होना पड़ता है। कुछ तो ध्यान देकर बकायदा सीखे जाते हैं, कुछ दिनचर्या में ऐसे शामिल कर दिए जाते हैं कि न चाहते हुए भी उनका अभ्यास होता रहे। कुछ सेकेंड में तैरकर एक निश्चित दूरी पार कर लेना, जिसके बारे में आम आदमी सोच भी नहीं सकता, वो करने के लिए ये तैराक कई छोटी-छोटी गतिविधियों का हर दिन एक सा उबाऊ अभ्यास बिना थके, बिना खीजे कर रहे होते हैं। फिर यही सारी छोटी-छोटी बातें मिलकर उस तैराक की तैरने की गति इतना बढ़ा देती हैं कि जब ओलंपिक की प्रतियोगीता के बीच वो दिखता है, तो लोग चकित हो जाते हैं।
तैराक केवल तैरने का ही अभ्यास नहीं कर रहा होता है। फ्रीस्टाइल तैरने में स्विमिंगपूल के अंतिम छोर को छूने के बाद पलटना होता है। कैसे तेज गति से पलटा जाए, इसके लिए तैराक को हर दिन अभ्यास करना है ताकि न सिर्फ वो तेजी से पलटे बल्कि दिवार को धकेलने में अपनी गति भी कुछ बढ़ा ले। गोल घूमने में हाथों को सर के ऊपर मोड़ना होता है, हथेलियों को बिलकुल सीधा रखना है ताकि उनके बीच थोड़ी भी हवा न आ जाए। वजन, डम्बल इत्यादि उठाने का सही तरीका सीखना होता है ताकि शारीरिक शक्ति बधाई जा सके। जिनसे सबसे अधिक उर्जा मिलेगी, केवल वही खाना है। कपड़े तक रेस के हिसाब से पहनने हैं। और सबसे बड़ी बात की हर दिन सुबह से शाम तक यही करते रहना है! सुनने में ये सभी छोटे-छोटे कार्य लगते हैं लेकिन जब एक साथ मिलाकर इन्हें देखा जाता है तो हरेक कार्य, तैराक को अपनी गति थोड़ा बढ़ाने में सहयोगी है। अंतिम दिन जब ओलंपिक की प्रतियोगिता के दिन ये दिखाई देता है, उस दिन ये सभी छोटी-छोटी बातें एक साथ मिलकर तय करती हैं कि विजेता कौन होगा।
दूसरी सभी जगहों पर भी यही दिख जायेगा। फिल्मों के नायक-नायिकाओं के बारे में सोच लीजिये। अच्छा-ख़ासा करोड़ों में कमाती सिने-तारिकाओं के लिए क्या नियम होंगे? एक-आध फिल्मों में सुपरहिट होने के बाद खो जाने के बदले अगर थोड़े वर्ष भी टिके रहना है तो वो जो चाहे वो खा सकती है क्या? नहीं, पिज्जा या बाहर का खाना रोज खाने का मतलब है मोटी हो जाएगी और फ़िल्में नहीं मिलेंगी। उसके पास पैसे हैं, लेकिन मन को नियंत्रित रख के उसे नपा-तुला आहार ही लेना है। रात कितने बजे शूटिंग खत्म हुई थी, इससे अगली सुबह उठने पर अंतर पड़ेगा? नहीं जिम जाना ही है। बिना अभ्यास कपड़े उतारने वाली और कलाकार में अंतर पता चलने में तीस सेकंड भी नहीं लगते।
लेखकों के लिए भी यही होगा। वो किस मूड में था, कितना व्यस्त था, इन सब बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता, वो हर दिन लिख रहा होता है। सैकड़ों लोग अपनी नौकरी में हर दिन एक सा ही काम दोहरा रहे होते हैं। बिलकुल उबाऊ हैं ये बातें, लेकिन प्रतिदिन के अभ्यास से थोड़े ही वर्षों में उसका परिणाम उनके काम में दिखाई देने लगता है। जो ध्यान से अभ्यास कर रहे हैं, खिलाड़ियों की तरह बिना जीत-हार जैसे किसी परिणाम के बारे में सोचे बिना काम कर रहे हैं, उनके काम में अंतर किसी को भी महसूस हो जाता है। अभ्यास जान बूझकर ये सोचकर कि अभ्यास कर रहे हैं, तब किया गया हो, ऐसा भी आवश्यक नहीं, कभी-कभी अपनेआप भी ऐसा हो जाता है।
महाभारत के कर्ण और अर्जुन के बारे में सोचकर देखीये। कौन सा जादू हो गया होगा कि केवल एक बार किसी के शाप दे देने से कर्ण अपने दिव्यास्त्र चलाना ही भूल जाए? जब पांडवों को वनवास मिला, तो कर्ण तो वापस अपने अंग प्रदेश में शासन व्यवस्था देख रहा होगा, अर्जुन क्या कर रहा था? वो वन में कभी नाग कन्या उलूपी के सामने तो कभी चित्रांगदा से लड़कर हारता है। कभी उसका सामना किरात बने भगवान शिव से हो जाता है तो कभी हनुमान जी से। शुरू में जरूर इनसे साधारण अस्त्र-शस्त्रों से लड़ाई हुई होगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जब वो बेअसर रहे होंगे तो अर्जुन अपने सबसे भयावह दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके इनसे जीतने की कोशिश कर रहा होगा। अर्जुन का अभ्यास था उसे याद रहा, कर्ण का नहीं था, वो भूल गया!
करीब-करीब यही भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के पचासवें श्लोक में कहा गया है, जब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं “योगः कर्मसु कौशलम्” –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50
अर्थात, समत्वबुद्धि युक्त मनुष्य जीवन में पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है, इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है। अर्जुन के लिए किरात आदि से युद्ध में कोई यश मिलने की संभावना नहीं थी, क्योंकि कोई देख ही नहीं रहा था। राज्य, सम्पदा या कोई धन भी जीतने पर नहीं मिलता। किसी पुण्य की संभावना भी नहीं थी। खिलाड़ियों या संगीत-नृत्य आदि का अभ्यास करते कलाकारों के लिए भी प्रतिदिन के अभ्यास में यश, धन या पुण्य का कोई लाभ नहीं होता। इसे #भगवद्गीता के प्रसिद्ध श्लोक – फल की आशा के बिना कर्म, से भी जोड़कर देख सकते हैं।
बाकी अभ्यास के दो दिन, दस दिन, एक-दो महीने में भी हो सकता है कि आपका ध्यान “योगः कर्मसु कौशलम्” पर न जाए, कर्मों में कुशलता योग है, ये पता ही न चले। आपके अभ्यास का परिणाम आपको स्वयं आसानी से नहीं दिखेगा। आस-पास के लोगों को महीने भर में दिखने लगेगा। इसलिए अभ्यास कर रहे हों तो करते रहिये।