वैसे तो चित्रकला, लेखन से बिलकुल अलग मामला है, लेकिन कभी कभी कहानियां चित्रकारों पर भी लिखी जाती हैं। ऐसी ही एक कहानी में कोई चित्रकार था जो दरबार के लिए काम करता था। एक बार उसे मासूमियत का चित्र बना लाने का आदेश हुआ। चित्रकार ने सोचा भला बच्चों से मासूम और कौन होगा? तो चित्रकार राज्य भर में घूमने निकला और कहीं से एक सुन्दर से मासूम बच्चे का चित्र उतार लाया। लोगों ने चित्र देखा तो वाह-वाह कर उठे। चित्र से सचमुच में मासूमियत टपकती थी। वर्ष बीतते रहे चित्रकार दरबार में ही रहा, महलों इत्यादि के लिए चित्र बनाता रहा।
जब चित्रकार बूढ़ा हो चला तो एक दिन उसने सोचा अब काम-काज से छुट्टी ली जाए। यही सब सोचते उसे याद आया कि उसने मासूमियत का चित्र तो बना रखा है, मगर हिंसा, पाप, नफरत आदि से भरी हुई कुरूपता का कोई चित्र तो उसने कभी बनाया ही नहीं! उसे लगा क्या वो केवल सौन्दर्य को चित्रित कर सकता है, या कुरूपता को भी? तो चित्रकार ने हिंसा, कपट आदि का चित्र बनाने का इरादा किया। ऐसा कोई व्यक्ति आसानी से कहाँ मिलता जो विकृतियों से भरा हो? तो चित्रकार ने राज्य के जेलों में बंदीगृहों में सबसे विकट सजाएं पाए लोगों को ढूंढना शुरू किया।
थोड़े ही दिनों में उसे फांसी की सजा की प्रतीक्षा कर रहा एक कैदी मिल गया। ये कोई दुर्दांत डाकू था। पहले लोगों को लूटने-मारने, बलात्कार जैसे जो अपराध किये थे वो तो किये ही थे, लूट का माल अकेले हड़पने के लिए वो अपने साथियों की भी हत्या करता रहा था। ऐसे ही कृत्यों के कारण एक दिन वो पकड़ा गया, और अब कारागृह में बंद फांसी के इंतजार में था। चित्रकार ने देखा तो ऐसा वीभत्स चेहरा उसने कभी देखा ही नहीं था। वो फ़ौरन उसका चित्र बनाने में जुट गया। कैदी चुपचाप अपनी कोठरी में बैठा रहा और उसने चित्रकार पर कोई ध्यान नहीं दिया।
जब चित्र पूरा हुआ तो चित्रकार ने चित्र कैदी को दिखाना चाहा। कैदी थोड़ी देर तक तो चित्र देखता रहा, फिर फूट-फूटकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर जेल के रक्षक आदि भी आ गए। किसी ने उसे कभी अपने अपराधों पर पछताते नहीं देखा था। सबने कैदी से जानना चाहा कि वो रो क्यों रहा है? तो कैदी ने बताया कि वर्षों पहले जिस मासूमियत का चित्र कलाकार ने बनाया था, वो बच्चा मैं ही था। कर्मों का असर है कि आज वो ऐसा कुरूप हो गया है कि जब पाप का चित्र बनाना था तो कलाकार ने फिर से उसे ही चुन लिया!
भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में यही कहा गया है –
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।17.3
यहाँ कहा गया है कि सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है। इसलिए जो जिस श्रद्धा वाला है वैसा ही उसका स्वरूप होता है। तो अगली बार आइना देखते समय अगर लगे कि आप उतने सुन्दर नहीं लग रहे हैं, आपका स्वरुप वैसा नहीं है जिससे आपको प्रसन्नता होती, तो एक बार इस श्लोक को याद कर लीजियेगा। सोचियेगा कि कहीं आपका ये स्वरुप इसलिए तो बदला हुआ नहीं क्योंकि किसी पड़ोसी की नयी गाड़ी देखकर जलने-भूनने से आपका रंग रूप बिगड़ गया है? किसी परिचित की अच्छी नौकरी, बड़े होते मकान, अधिक सफल बच्चों से इर्ष्या तो नहीं पाल ली? किसी की अधिक सुन्दर “गरल सखी” अथवा किसी के अधिक सफल “पुरुष सखा” के कारण उससे द्वेष का भाव जगा हो ऐसा भी हो सकता है।
तो अगली बार जब इर्ष्या, द्वेष, घृणा, शत्रुता जैसे भाव मन में उठें, तो याद रखियेगा कि इनका असर स्वरुप पर भी होने वाला है। महंगे सौन्दर्य प्रसाधन, कपड़े-आभूषण, इस कुरूपता को ढक भी नहीं पाएंगे। बाकी पुरानी सी कहानी के धोखे में जो एक श्लोक याद दिला दिया है वो नर्सरी स्तर का था और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा?
(चित्र का स्रोत इन्टरनेट है, कलाकार फ़िलहाल ज्ञात नहीं)