सिटी लाइट्स और भगवद्गीता

बोलने की आवाजें पुरानी फिल्मों में नहीं होती थीं और चार्ली चैपलिन करीब-करीब उसी दौर में फ़िल्में बनाते थे। जबतक 1929 का दौर आया, उस समय चार्ली चैपलिन मूक फिल्में बनाने पर अड़े हुए थे। फिल्म का काम भी 1928 में शुरू हो चुका था और लोग समझने लगे थे कि डायलॉग-बातचीत वाली फिल्मों के आते ही मूक फिल्मों का दौर चला जायेगा, फिर भी जब 1931 में “सिटी लाइट्स” आई तो वो एक मूक फिल्म थी। इस समय तक “द ट्रैम्प” जैसी फिल्मों से प्रसिद्धि बटोर चुके चार्ली चैपलिन ने बेघर-गरीब ट्रैम्प वाली अपनी छवि भी गढ़ ली थी। तो इस फिल्म में भी वो एक बेघर की भूमिका में दिखते हैं जो सोने के लिए शहर में नयी बनी एक मूर्ती की गोद में सो जाता है और जैसे ही उद्घाटन होने पर वो मूर्ती की गोद में सोया दिखाई देता है, भीड़ उसे पीटने के लिए खदेड़ती है।

 

इसी क्रम में बेघर की मुलाकात सड़क के कोने पर एक फूलवाली से होती है। वह तुरंत उस पर मोहित हो जाता है और उससे फूल खरीदते समय उसे एहसास होता है कि वह अंधी है। जब वह जाने वाला होता है तो एक कार का दरवाज़ा बंद हो जाता है और युवती उस बेघर को कोई अमीर आदमी समझ लेती है। उस शाम, ट्रैम्प एक शराबी करोड़पति को आत्महत्या से बचाता है। नशे में करोड़पति बेघर को अपना अच्छा दोस्त मान लेता है। अगली सुबह बेघर करोड़पति से कुछ पैसे लेता है, युवती से सारे फूल खरीदता है और करोड़पति की कार में उसे घर ले जाता है। होश में आते ही करोड़पति बेघर को भूल जाता है। बाद में, करोड़पति फिर नशे में होता है और बेघर को सड़क पर देखकर उसे एक शानदार पार्टी के लिए आमंत्रित करता है। अगली सुबह करोड़पति फिर से शांत हो जाता है और फिर से बेघर को बाहर निकाल देता है।

 

इस बीच बेघर को पता चलता है कि युवती बीमार है तो उसके इलाज के लिए वो सफाईकर्मी का काम कर लेता है। बीमार युवती को अखबार पढ़कर सुनाने के क्रम में वो अंधेपन का इलाज करने वाले किसी डॉक्टर के बारे में भी बताता है और युवती कहती है कि उसकी आँखें ठीक हो गयीं तो फिर वो बेघर को देख पायेगी। बेघर ने देख लिया था कि युवती और उसकी दादी से मकान भी खाली करवाया जाने वाला है इसलिए वो किराया देने का वचन भी देता है। नौकरी छूटने के बाद भी वो बेघर युवती की मदद करने के नए-नए तरीके निकालता रहता है। अंततः शराबी करोड़पति उस युवती के ऑपरेशन के लिए पैसे दे देता है। लेकिन यहाँ भी गलतफहमियां होती हैं और बेघर जेल में डाल दिया जाता है। महीनों बाद बेघर को रिहा किया जाता है, तो वह फूलवाली की गली के कोने पर जाता है, लेकिन युवती, जिसकी दृष्टि वापस आ गई है – अब अपनी दादी के साथ एक बड़ी फूलों की दुकान चलाती है।

 

फिल्म के अंत में बेघर दुकान के पास आता है, जहां युवती खिड़की में फूल सजा रही होती है। वह एक फेंका हुआ फूल उठाने के लिए झुकता है और दुकान की खिड़की की ओर मुड़ता है। अचानक दोनों की नजरें मिलीं, बेघर ठिठका, लेकिन फिर एक बड़ी मुस्कान बिखेर देता है। युवती दयालु थी, वो बेघर को एक ताजा फूल और एक सिक्का देती है। शर्मिंदा होता बेघर छिटकने और चुपचाप निकल जाने की कोशिश करता है लेकिन युवती उसे सिक्का थमा देने का प्रयास करती है। जैसे ही वो उसके हाथ को छूती है, वो बेघर का स्पर्श पहचान लेती है। युवती चौंक कर कहती है, “तुम?” बेघर-आवारा शर्मिंदा होता सिर हिलाता है और पूछता है, “अब तुम देख सकती हो?” वह जवाब देती है, “हाँ, अब मैं देख सकती हूँ”, और आंसू भरी मुस्कान के साथ उसका हाथ अपने सीने से लगा लेती है। राहत और प्रसन्नता से बेघर भी मुस्कुराता है।

 

फिल्म का बेघर नायक ऐसी दशा में नहीं था कि वो चार पैसे जोड़ सके लेकिन जब वो एक ही लक्ष्य (व्यवसायात्मिका बुद्धि भगवद्गीता 2.41) – उस युवती की मदद का उद्देश्य लिए निकलता है तो वो कुछ जोड़ लेगा इसका ध्यान कौन रखता है? इसके लिए भारतीय जीवन बीमा का ध्येय वाक्य “योगक्षेमं वहाम्यहम्” याद कर सकते हैं। ये भगवद्गीता के नौवें अध्याय के बाईसवें श्लोक से आता है –

 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22

 

इसका अर्थ है, जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझमें लीन उन भक्तों का योग (जो प्राप्त नहीं है उसका मिल जाना, कुछ जोड़ना) और क्षेम (जो प्राप्त कर लिया उसकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

 

बेघर को जब करोड़पति से पैसे मिलते हैं और युवती को देने के बाद उसे जेल हो जाती है, उस दशा को भी देखिये। अपने लिए पैसे रखकर वो स्वयं सुखी हो सकता था, वो उसने किया नहीं, जेल चला गया तो युवती भी नही मिली। ऐसी स्थिति जिसे “खुदा ही मिला न मिसार-ए-सनम” भी कहते हैं, उसके लिए भगवद्गीता के छठे अध्याय में 37वें-38वें श्लोकों में अर्जुन का प्रश्न है –

 

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38

 

अर्थात, महाबाहो! संसार भी छोड़ दिया और परमात्मप्राप्ति के मार्ग से भी विचलित – दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ साधक तेज हवा से छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?

 

इसके उत्तर में श्री कृष्ण कहते हैं –

श्री भगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।6.40

 

यानि, उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है; क्योंकि कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।

 

कुछ लोगों को इसपर अखबारों की कुछ सुर्खियाँ याद आएँगी जिसमें नौकरी पाते ही युवती निकल भागी हो, लेकिन ध्यान रखिये कि ये घटनाएँ अपवाद न होती, अनूठी न होती तो खबर क्यों बनती? कुछेक अपवाद आम घटनाएँ नहीं होती। बाकी चार्ली चैपलिन के बहाने जो बताया वो नर्सरी स्तर का था और पीएचडी के लिए भगवद्गीता स्वयं पढ़ना पड़ेगा, ये तो याद ही होगा!