करीब साठ साल पहले (1968 में) ‘संघर्ष’ नाम की एक फिल्म आई थी। बाद में इसी नाम की कई दूसरी फ़िल्में भी बनी है, लेकिन ये फिल्म कुछ दूसरी वजहों से महत्वपूर्ण होती है। एक तो इसकी कहानी ‘लेली आसमानेर आयना’ (लगभग यही उच्चारण) नाम की एक कहानी पर आधारित थी जिसे ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी ने लिखा था। उनकी कहानी ठगी की प्रथा और उसके कारण दो परिवारों में जारी संघर्ष पर आधारित थी, इसलिए फिल्म का नाम भी ‘संघर्ष’ था। शकील बदायुनी और नौशाद उस समय की संगीत देने और लिखने वाली सबसे चर्चित जोड़ी थी, उसी ने इस फिल्म का संगीत दिया था। फिल्म का ‘मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे, तो फिर मेरी चाल देख ले’ जैसे गीत अब भी कभी कभी सुनाई दे जाते हैं। फिल्म इसलिए भी याद की जाती है क्योंकि ये वो आखरी फिल्म थी जिसमें दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला साथ साथ नजर आये थे।
फिल्म की कहानी भवानी प्रसाद की है जो कि काशी में एक बड़े मठ के महंत हैं और ठग भी हैं। वो अपने मठ में आये अमीर तीर्थयात्रियों की हत्या करके उनका धन इत्यादि हड़प लेते हैं। उनका बेटा शंकर उनके इस काम से नाराज रहता है और इस पुश्तैनी धंधे में शामिल नहीं होना चाहता। वो घर छोड़कर जाना चाहता है लेकिन भवानी प्रसाद अपने पोते कुंदन को अपने पास जबरन रख लेता है। भवानी प्रसाद अपने ही बेटे शंकर को मरवाकर उसका इल्जाम भी अपने दुश्मन नौबतलाल पर डाल देता है। पहले भवानी प्रसाद ने नौबतलाल के पिता की हत्या की थी इसलिए दोनों खानदानों में पहले से शत्रुता थी। कथित रूप से अपने बेटे की हत्या का बदला लेने के लिए भवानी प्रसाद नौबतलाल को भी मार डालता है। नौबतलाल के बेटे द्वारका और गणेशी भी अपने पिता का बदला भवानी के खानदान से लेने का प्रण करते हैं और दुश्मनी एक पीढ़ी और आगे बढ़ जाती है।
नौबतलाल का परिवार अपने बच्चों के साथ कलकत्ता में जा बसता है, जहाँ वो आगे बड़े व्यापारी बन जाते हैं। यहाँ दोनों भाई द्वारका और गणेशी अपने पुराने शत्रु भवानी और उसके पोते कुंदन को मारकर बदला लेने की योजना भी बनाते हैं। अपनी बहन की शादी में गाँव जाने पर कुंदन की मुलाकात अपनी माँ-दादी और घर के दूसरे सदस्यों से होती है। वहीँ उसे ‘लैला-ए-आसमान’ नाम की तवायफ भी मिलती है जो कलकत्ता से आई हुई थी। कुंदन पहचान लेता है कि ये लड़की उसकी बचपन की दोस्त मुन्नी है। वो मुन्नी से विवाह करना चाहता था लेकिन भवानी प्रसाद इस शादी के खिलाफ था। उसे पता था कि इस तवायफ को द्वारका और गणेशी ने किसी तरह कुंदन को फंसाकर कलकत्ता लाने भेजा है। पूरी कहानी कुंदन को समझ में आने लगती है। वो भवानी प्रसाद के पापों का प्रायश्चित करने का फैसला करता है।
वो पहले द्वारका से सुलह करने की कोशिश करता है लेकिन द्वारका छल से कुंदन को मारना चाहता था और इसी कोशिश में खुद मारा जाता है। अब अपने दादा के पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए कुंदन भेष बदलता है, और बजरंगी नाम रखकर कलकत्ता रवाना होता है। वहां जाकर उसे पता चलता है कि गणेशी भी उससे उतनी ही शत्रुता पालता है और लैला को अपनी दूसरी पत्नी भी बनाना चाहता है! अब कलकत्ता पहुंचकर बजरंगी बना कुंदन क्या गुल खिलाता है, ये तो आपको फिल्म देखकर ही पता करना होगा। पूरी कहानी बता देना, हर बार सही तरीका नहीं होता। हाँ, ये जरूर है कि फिल्म की कहानी के जरिये हमने एक बार फिर से आपको भगवद्गीता पढ़ा दी है। इसके लिए आपको फिल्म के मुख्य नायक कुंदन का नहीं इसी फिल्म के द्वारका का किरदार देखना होगा।
द्वारका का किरदार संजीव कुमार निभा रहे होते हैं और अपने पिता की हत्या की कहानी जानने के बाद से उसका एक ही मकसद होता है, भवानी प्रसाद और उसके परिवार, यानि कुंदन से बदला। लगातार एक ही विषय में सोचते सोचते उसका क्या होता है, ये फिल्म में आसानी से दिख जाता है। एक तवायफ़ को भेजकर पहले वो कुंदन को अकेले में लाना चाहता था, ताकि उसकी हत्या की जा सके, लेकिन जब उसे लगता है कि कुंदन अच्छा खासा लड़ने का अभ्यस्त जवान है तो वो छल से मारने की कोशिश भी करता है। अंततः वो खुद अपने ही विष का शिकार होता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63
मोटे तौर पर इन दोनों श्लोकों का अर्थ है विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना पूरी न होने से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूर्खता का भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
यहाँ जिस विषय का चिंतन किया जा रहा है, आवश्यक नहीं कि वो स्वर्ण-धन, जमीन जायदाद जैसी चीज़ें ही हों, आसक्ति व्यक्ति में भी हो सकती है और ये प्रेम और घृणा दोनों ही स्थितियों में काम करती हैं। एक व्यक्ति के बदले अगर एक समुदाय पर ये लागू हो तो हिटलर, पोल पॉट, माओ, या हाल के सद्दाम हुसैन और गद्दाफी जैसे लोग भी बन जाते हैं। यहीं पर एक दूसरा किरदार जो बचपन में कुंदन की मित्र मुन्नी होती है, वो बड़ी होकर ‘लैला-ए-आसमान’ नाम की तवायफ़ बन चुकी है। इससे उसके चरित्र में कितना परिवर्तन आया? इसके सम्बन्ध में दूसरे ही अध्याय से दो श्लोक देखे जा सकते हैं –
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13
मोटे तौर पर यहाँ कहा गया है कि जैसे शरीर के लिए बचपन, युवावस्था और बुढ़ापा है, वैसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति (मृत्यु के बाद) भी है। उसके विषय में दुखी नहीं होना चाहिए। इसी के सम्बन्ध में दूसरा श्लोक दूसरे अध्याय का बाईसवाँ श्लोक है –
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22
इस श्लोक में कहा गया है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़े छोड़ कर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त करती है। दोनों श्लोकों में एक ही बात अलग-अलग तरीके से समझायी गयी है। इन श्लोकों को आप कुंदन के चरित्र पर भी रखकर देख सकते हैं। मूलतः उसका जो स्वभाव है, वो उसके माता-पिता के कारण आता है। दादा उसे लड़ने में, शस्त्रधारी गुंडों के नियंत्रण में, मठ चलाने आदि में निपुण तो कर देते हैं, लेकिन इससे उसके चरित्र पर कोई असर नहीं होता। वो अन्दर से वैसा ही है जो जीवों की हत्या करके अपना पालन-पोषण नहीं करना चाहता।
बाकी ये जो दिलीप कुमार की ‘संघर्ष’ के बहाने बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद ही पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!