तेरे घर के सामने

Tere Ghar Ke Samne
कुतुबमीनार को लेकर बीच बीच में विवाद उठते रहते हैं। जैसा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का विभाग स्वीकारता है, ये हिन्दुओं और जैनियों के कई मंदिरों को तोड़कर बना था। जब लोगों को नजर आने लगा कि ये क्या है और उन्होंने दूसरों को भी बताना शुरू कर दिया था करीब करीब उसी दौर में बहाने से इसमें अन्दर घुसने की सीढ़ियाँ बंद करवा दी गयीं। ऐसा माना जाता है कि इसके पीछे बहाना ये बताया गया था कि लोग इसके छत के कूदकर आत्महत्या कर लेते हैं, इसलिए इसे बंद करवाया गया था। हालाँकि अब उससे ऊँची कई इमारतें हैं, और सबके छत बंद हों ऐसा मुमकिन नहीं होता, लेकिन फिर भी कुतुबमीनार की सीढ़ियाँ नहीं खुली।
जब कुतुबमीनार की सीढ़ियाँ आम आदमी के लिए खुली थीं, तब दौर दूसरा था। उस समय फ़िल्में भी शुक्रवार को ही रिलीज़ हों, ऐसा जरूरी नहीं होता था। देवानंद-नूतन अभिनीत फिल्म “तेरे घर के सामने” भी जब रिलीज़ हुई थी, तो मंगलवार (1 जनवरी 1963) को रिलीज़ हुई थी। इसका सुप्रसिद्ध गाना “दिल का भंवर करे पुकार, प्यार का राग सुनो”, कुतुबमीनार की सीढ़ियों पर फिल्माया गया है। अपने समय के हिसाब से ये एक कॉमेडी वाली प्रेम कथा थी। आज इसकी याद इसलिए भी क्योंकि जासूसी-थ्रिलर जैसी कहानियों के लिए विख्यात विजय आनंद की आज जयंती है। कुछ लोगों को वो टीवी श्रृंखला “तहकीकात” के लिए याद होंगे।
ये विजय आनंद की दूसरी कई जासूसी-थ्रिलर कहानियों जैसी बिलकुल नहीं थी। इसकी कहानी दो बड़े व्यापारियों की आपसी खींचतान पर शुरू होती है। दोनों लाला जग्गनाथ और सेठ करमचंद, एक दूसरे को प्रतिस्पर्धा में नीचा दिखाने पर तुले होते हैं और दिल्ली में एक प्लाट के लिए ऊँची से ऊँची बोली लगा रहे होते हैं। अंततः दोनों आमने-सामने के प्लाट ही खरीदते हैं। सेठ करमचंद ने पीछे वाला प्लाट लिया था और कहीं उसके मकान की खूबसूरती लाला जगन्नाथ के मकान से ढक न जाए, इसलिए वो एक विदेश से पढ़ाई करके हाल ही में लौटे नौजवान को मकान का नक्शा बनाने का काम सौंपता है।
इस आर्किटेक्ट राकेश को सेठ करमचंद की बेटी सुलेखा पसंद भी आने लगती है। समस्या ये थी कि ये आर्किटेक्ट और कोई नहीं बल्कि सेठ करमचंद के प्रतिद्वंदी लाला जगन्नाथ का ही बेटा होता है। जैसा कि जाहिर है लाला जगन्नाथ और सेठ करमचंद को अपने अपने बंगले के लिए एक ही डिज़ाइन पसंद आता है। इन दोनों की प्रतिस्पर्धा के बीच जब सुलेखा को पता चलता है कि राकेश किसका बेटा है, तो वो नाराज भी होती है और नायक नायिका को मनाने के लिए गाने भी गाता है। अंत भला तो सब भला की तर्ज पर आखिर बच्चों के मनाने पर सेठ करमचंद और लाला जगन्नाथ भी मानते हैं। नायक-नायिका का मिलन होता है और फिल्म ख़त्म होती है।
वैसे तो इस फिल्म का मकसद ये दिखाना था कि नया सब कुछ बुरा ही नहीं होता और पुराना है तो अच्छा ही होगा, ऐसा भी जरूरी नहीं होता, लेकिन जाहिर है ऐसी चीज़ों के बारे में हम जैसे लोग जब बात करेंगे तो कुतुबमीनार भी दिखाया जाएगा। फिर ये भी पूछा जायेगा कि “दिल का भंवर करे पुकार” गाना शुरू होने से ठीक पहले जो सीढ़ियों के सबसे ऊपर लगा हुआ एक पत्थर सा दिखाते हैं, वो पत्थर कैसा दिख रहा है? अब जब आप यहाँ तक पहुँच गए हैं, तो बता दें कि हमेशा की तरह इस बार भी हमारा फिल्म के बहाने भगवद्गीता पढ़ाने का इरादा था। इस फिल्म के जरिये भगवद्गीता में जिन यज्ञों की चर्चा है, उसके बारे में बता दिया है।
भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण यज्ञों को तीन भागों में बांटते हुए, राजस यज्ञ के बारे में बताते हैं –
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।17.12
अर्थात जो यज्ञ दम्भ के लिए और फल की आकांक्षा में किया जाता है, उस यज्ञ को राजस माना जाना चाहिए। अब फिल्म के शुरूआती हिस्से में ही सेठ करमचंद और लाला जगन्नाथ का एक ही भूखंड के लिए एक दूसरे के खिलाफ बोली लगाना देखिये। ये सिर्फ भूमि का क्रय नहीं बल्कि समाज में अपनी नाक ऊँची करने के लिए चल रहा झगड़ा है। पूरी फिल्म में बंगला बनवाने तक दोनों के बीच अपने रहने के घर की प्रतिस्पर्धा भर नहीं थी। ये राजस यज्ञ था जो फल के अलावा दम्भ की भी पूर्ती करता।
यज्ञों के विषय में केवल भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में ही नहीं आता। इन्हें देखने के लिए पीछे चौथे अध्याय में चौबीसवें से बत्तीसवां श्लोक देखिये। इनके आधार पर जब भाष्यकार यज्ञों के बारे में बताते हैं तो उन्हें श्रौत (वैदिक), स्मार्त (तान्त्रिक) और पौराणिक (मिश्र) की तीन मुख्य शैलियों में बाँटते हैं। जब वापस भगवद्गीता पर आयेंगे तो आप पाएंगे कि यज्ञों के बारे में एक और बात कही गयी है।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।3.9
अर्थात यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ मनुष्य कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए आसक्ति रहित होकर केवल यज्ञ के लिए कर्म करो। अब फिल्म की शुरुआत को देखिये तो राजस यज्ञ में लगे हुए दोनों धनिक शुरू में अपने-अपने बंगले और उससे जुड़ी प्रतिष्ठा से बंधे होते हैं। लगातार उसी दिशा में कार्य करते करते वो बंधने के बदले बंगले और यश के मोह से भी छूट जाते हैं। संभवतः ऐसे ही कारण होते होंगे कि महिषासुर, हिरण्यकश्यप जैसे राक्षस भी जो कि सात्विक नहीं तामसिक यज्ञों में लगे होते हैं, वो भी अंत में मुक्ति पा जाते हैं।
भगवद्गीता में जब यज्ञों की बात हो रही होती है तो ये केवल पुरोहितों के साथ बैठे किसी अग्नि कुंड में आहुतियों वाले यज्ञ की बात हो रही है, या यज्ञ और तप को सामान्य मनुष्यों के, कई दैनिक कार्यों से जोड़ा गया है, ये भी सोचने का एक विषय हो सकता है। बाकी जो बताया वो नर्सरी स्तर का था और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता खुद पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!