“वाव, इतने सारे लोग!” टीवी पर नजर आ रही लाखों लोगों की भीड़ को देखकर बच्चे ने कहा, “क्या इन सभी को कोई प्रॉब्लम होगी?”
“जरूरी नहीं”, मैंने जवाब दिया, “हो सकता है कुछ लोग कुछ पूछने भी आये हों।”
“प्रॉब्लम अलग होती है, और पूछना-क्वेश्चन्स अलग?” बच्चे ने अगला सवाल किया।
“एक्जेक्टली सेम नहीं होते न, जैसे ठण्ड लग रही हो और स्वेटर-जैकेट चाहिए तो वो एक प्रॉब्लम हुई। स्कूल से मिले होमवर्क में मैथ का कोई प्रॉब्लम सोल्व न हो रहा हो तो वो प्रॉब्लम असल में एक क्वेश्चन है जिसे तुम्हें किसी से पूछ कर हल करना होगा”, मैंने और समझाने की कोशिश की।
“तो क्या वो बहुत बुक्स पढ़ चुके, जो उन्हें सबके क्वेश्चन्स का आंसर पता है? आपसे भी ज्यादा बुक्स?” बच्चे ने इस बार मेरी किताबों की अलमारी की तरफ देखा।
“वो जो नाम में ‘शास्त्री’ लगा है न, उससे पता चलता है कि कितना पढ़ा है। जैसे मैट्रिकुलेशन के बाद प्लस टू, फिर ग्रेजुएशन, मास्टर्स, और फिर पीएचडी होने पर नाम के आगे डॉक्टर लगते हैं, या एमबीबीएस करके डॉक्टर बनते हैं, वैसे ही संस्कृत में भी होता है।” मैंने समझाने की कोशिश की, “;प्लस टू जैसा बारह साल संस्कृत से पढ़ाई करने पर उप-शास्त्री और फिर तीन साल ग्रेजुएशन की पढ़ाई पर शास्त्री।”
“उससे आगे भी होता है?” उसने जानना चाहा।
“हाँ, मास्टर्स के लिए आचार्य फिर पीएचडी के लिए विद्यावारिधि होता है।” मैंने बताया लेकिन बच्चे की उनमें ज्यादा रूचि नहीं लगी। “जैसे भोला पासवान शास्त्री या फिर लाल बहादुर शास्त्री ने संस्कृत की पढ़ाई की थी तो उनके नाम में शास्त्री लगा होता है।”
बच्चे की इतनी डिग्रियों में कोई रूचि नहीं थी। वो सुनकर थोड़ी देर सोच में पडा, लेकिन फिर अपने पहले प्रश्न पर लौट आया। “तो इन दोनों बातों के लिए भगवान के पास जाया जा सकता है? अगर कुछ जरूरत हो तो मांगने, या कुछ पूछना हो तो जानने! ठीक?” उसने कहा।
“नहीं, सिर्फ इन दो बातों के लिए भगवान के पास नहीं जाते। वो जिनके पास भीड़ देखी, वो तो भगवान भी नहीं, साधू हैं न?” मैंने उसे और प्रश्न सुझाने की कोशिश की।
“राईट, ही इज लाइक ए गॉडमैन।” अमेरिका में पल-बढ़ रहे बच्चों से साधू, ऋषि, मुनि, सन्यासी इत्यादि शब्दों के अर्थ में अंतर को समझने की अपेक्षा करना बेकार था। मेरी उम्र के कई लोग भी इस अंतर से अनभिज्ञ होते हैं। फिर अंग्रेजी के अनुवाद की भी समस्या है। ऋषि जो मंत्रो के दृष्टा होते थे, उनके लिए करीबी अंग्रेजी शब्द सीअर (Seer) जैसा कुछ होगा। सन्यासी के लिए एसेटिक (Ascetic) थोड़ा अधिक उचित होगा और साधू के लिए संभवतः रेक्लुज (Recluse) किया जा सकता है। धर्म को रिलिजन और आत्मा को सोल कहे जाने के दौर में शब्दों पर इतनी मेहनत करता कौन है? “तो फिर गॉड के पास क्या इससे भी ज्यादा के लिए जाते हैं? लाइक बिग्गर प्रॉब्लम्स, बिग्गर क्वेश्चन्स?” बच्चे के सवाल ने मेरे सोचने पर विराम लगाया।
“चार तरह के भक्त भगवान के पास जाते हैं। पहला तो तुम बता चुके, कुछ चाहिए जो अकेले उनके प्रयास से मिल नहीं रहा ऐसे लोग, किसी को मकान चाहिए, किसी को पैसे, किसी-किसी को अपने मनपसंद लड़के या लड़की से शादी करनी होती है। दूसरे वाले का भी तुम्हें पता है – वो जो किसी परेशानी में हैं या, किसी खतरे में घिरे हों, वो भक्त। तीसरे वाले जिज्ञासु होते हैं, जैसा कि तुमने बताया। जिनकी कुछ जानने की इच्छा हो, आत्मा क्या है? मरने के बाद क्या होगा? दुनिया बनी कैसे, शुरू कैसे हुई? ईश्वर होते क्या हैं? ऐसे सवालों के जवाब जानने के लिए लोग भगवान के पास जाते हैं। चौथे वाले भक्त ज्ञानी होते हैं, उन्हें ईश्वर के बारे में पता होता है। उसे जानने के बाद कुछ भी जानने या पाने की इच्छा बचती नहीं, इसलिए वो भक्त भगवान की शरण में ही रह जाते हैं।”
“सीम्स आई न्यू ऑलमोस्ट एज मच एज यू!” बच्चे ने प्रसन्न होते हुए कहा। “ये भी क्या भगवद्गीता में लिखा है?” उसने एक और सवाल किया।
“हाँ ये सातवें अध्याय का सोलहवाँ श्लोक है”, मैंने पास रखी पुस्तक से उसे ढूँढने का इशारा किया। देवनागरी में लिखी संख्याएँ उसके लिए थोड़ी मुश्किल थी, लेकिन उसे ज्यादा देर नहीं लगी।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16
आर्त मतलब जो किसी संकट में घिरा, परेशान हो, जिज्ञासु जिसे ज्ञान पाना हो, अर्थार्थी यानी मकान, दुकान या पैसे, स्त्री, स्वर्ण जैसी किसी कामना के लिए आया हुआ और अंतिम ज्ञानी जिसे ईश्वर का बोध हो चुका हो, ये चार प्रकार के भक्त होते हैं। यहाँ “सुकृति” कहा गया है, मतलब जो अच्छे काम करने वाले भले लोग होते हैं, सिर्फ उनकी बात की गयी है। दुष्टों के बारे में “दुष्कृति” इससे ठीक पहले वाले श्लोक में आता है –
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15
अर्थात – दुष्कृत्य करने वाले, मूढ, नराधम पुरुष मुझे नहीं भजते हैं; माया के द्वारा जिनका ज्ञान हर लिया गया है, वे आसुरी भाव को धारण किये रहते हैं। (स्वामी तेजोमयानंद का अनुवाद)
तो भगवान की शरण में कैसे लोग जाते हैं, और कैसे लोग उनकी शरण में नही जाते, इसकी बात सातवें अध्याय में हुई है। भक्त जो आर्त, अर्थार्थी इत्यादि स्तर पर होते हैं, वो भी भगवान की भक्ति की दिशा में बढ़ते ही कैसे निचले आर्त या अर्थार्थी से आगे बढ़कर जिज्ञासु और ज्ञानी के स्तर पर जा पहुँचते हैं, इसके लिए ध्रुव की कहानी भी याद आती है। राजा उत्तानपाद और रानी सुनीति के पुत्र थे ध्रुव। ये स्वयंभू मनु के पौत्र थे। राजा की एक और पत्नी थी सुरुचि जिनका पुत्र था उत्तम। एक दिन बालक ध्रुव ने देखा कि सिंहासन पर बैठे राजा उत्तानपाद की गोद में उत्तम बैठा हुआ है। बालक ध्रुव की भी पिता की गोद में बैठने की इच्छा हुई और वो भी पिता के पास पहुंचा। उसकी सौतेली माँ सुरुचि वहीँ थी, उसने ध्रुव को राजा की गोद में बैठने नहीं दिया और कुछ चुभती हुई बातें भी कही।
रानी सुरुचि की बातों से दुखी ध्रुव अपनी माता सुनीति के पास पहुंचा। उसे पता चला कि अगर वो भगवान का भजन करे, तो वो राजा की ही नहीं, सीधा विष्णु की गोद में जाकर बैठ सकता है! इतना जानकर बालक ध्रुव वन की ओर तपस्या के लिए चल पड़ा। रास्ते में ही उसे नारद मुनि मिल गए। जब उन्होंने छोटे बालक को वनों की ओर तप के लिए जाते देखा तो उन्होंने बच्चे को रोकने का प्रयास किया। हर जगह आने-जाने वाले नारद मुनि अच्छे-खासे विख्यात थे, बालक ने उन्हें पहचाना और उनकी बात सुनने रुका। नारद जी ने समझाना चाहा कि राजा से उनके अच्छे सम्बन्ध हैं। राजा उनकी बात मानते हैं और वो राजा को कह दें तो राजा ध्रुव को भी गोद में बिठा लेंगे। इन बातों का ध्रुव पर उल्टा ही असर हो गया! उसने सोचा कि सिर्फ तपस्या का निश्चय करने भर से उसके पास नारद आ गए हैं तो निश्चय ही भगवान के भजन का लाभ इससे कहीं अधिक होगा। इसलिए ध्रुव तप के लिए जाने पर ही अड़ा रहा।
नारद ने ही ध्रुव को “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” के जाप की सलाह दी थी। छह मास की तपस्या पर जब भगवान विष्णु प्रकट हुए तो उनकी जो स्तुति ध्रुव ने की थी, उसे “ध्रुव-स्तुति” नाम से जाना जाता है। इस समय तक ध्रुव पिता की गोद में न बैठने देने से दुखी, कोई आर्त भक्त नहीं रह गया था। कामनाएँ लिए, राज-पाट जैसा कुछ मांगने वाला अर्थार्थी भी नहीं था। भगवान के भजन का निश्चय मात्र करने से नारद मदद करने आ गए हैं तो सचमुच भजन से क्या होगा, ऐसा सोचता कोई जिज्ञासु भी अब ध्रुव नहीं होता। ध्रुव ने वरदान में मोक्ष भी नहीं, स्तुति मांगी थी। वो जिज्ञासु से आगे, ज्ञानी हो चुका था। अपने निश्चय पर अटल रहने के कारण ही उत्तर दिशा बताने वाले अटल तारे का नाम सप्तऋषियों ने ध्रुव रखा।
बाकि इसे भक्तियोग के हिसाब से देखना-समझना है, या आर्त से ज्ञानी होने के कारण ज्ञानयोग समझना है, ये निर्णय अपनी-अपनी निष्ठा के हिसाब से तो लिया ही जा सकता है। वो निर्णय आप स्वयं लीजिये!
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