कर्तव्य, कर्म और जीवन

ईरानी फिल्मों में बच्चों की कहानियां अब भी दिखाते हैं! उर्दूवुड बच्चों पर उतनी फ़िल्में नहीं बनाता। अगर आबादी के हिसाब से देखें तो भारत में 50 की आबादी युवाओं की है। जाहिर है 18 वर्ष से कम आयु के लोगों की भी अच्छी-खासी आबादी होगी। इसके वाबजूद बच्चों पर फ़िल्में क्यों नहीं बनती, ये सोचने का एक अलग मसला हो सकता है। वापस ईरानी फिल्मों पर चलें तो “चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन” के अलावा भी एक फिल्म थी जो बच्चों पर आधारित थी और काफी प्रसिद्ध हुई। “चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन” के आधार पर तो हिंदी में “बम बम भोले” फिल्म बनी थी लेकिन “व्हेर इज द फ्रेंड्स होम” ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित है। कहने को तो भारत गावों में बसता है, मगर ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में शायद “तीसरी कसम” के दौर की ही फ़िल्में अंतिम होंगी।

 

इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले थे। “व्हेर इज द फ्रेंड्स होम” का नाम सोहराब सेफेरी की कविता से लिया गया है। इसके लेखक और निर्देशक अब्बास किअरोस्तामी को फिल्मों के लिए कई पुरस्कार तो मिले ही थे, उन्हें कविताओं और कला के लिए भी जाना जाता था। उनकी ये फिल्म “व्हेर इज द फ्रेंड्स होम” भी तीन फिल्मों की श्रृंखला में से पहली थी। इस फिल्म में कई पात्र नजर आते हैं। कोई अधिक महत्वपूर्ण था और कोई कम ऐसा कहना भी मुश्किल है। ऐसा तब है जबकि मुख्य पात्रों में एक छोटा लड़का उसके परिवार के लोग, जैसे उसका भाई, माँ आदि नजर आते हैं। थोड़ी देर के लिए बच्चे का स्कूल और शिक्षक भी दिखते हैं। भूमिकाएँ लम्बी-छोटी होने पर भी ये नहीं कहा जा सकता कि ये पात्र कहानी में नहीं दिखता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। एक गाँव में बिलकुल साधारण तरीके से किये गए छायांकन की वजह से भी ये फिल्म देखे जाने लायक हो जाती है।

 

फिल्म की कहानी बिलकुल साधारण सी है। अहमद एक छोटी कक्षा में पढने वाला बच्चा है और मुहम्मद उसके साथ ही पढ़ता है। मुहम्मद को स्कूल से मिला गृहकार्य न करने के लिए डांट पड़ रही होती है। मुहम्मद को कहा जाता है कि उसने अपनी कॉपी में अगर गृहकार्य बनाना शुरू नहीं किया तो उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा। वैसे तो ऐसी गलतियों पर इतनी बड़ी सजा नहीं मिलती, मगर छोटा सा अहमद इसे सच मान लेता है। जब वो घर लौटता है तो देखता है कि मुहम्मद की कॉपी गलती से उसके पास ही रह गयी है। कहीं गृहकार्य न करने पर मुहम्मद को सचमुच स्कूल से निकाल न दिया जाए, इस डर से अहमद कॉपी लौटना चाहता था, मगर मुहम्मद दूसरे गाँव में रहता था। वो अपनी माँ से जाने की इजाज़त लेना चाहता है, मगर जब इजाज़त नहीं मिलती तो वो बिना बताये ही मुहम्मद का घर ढूँढने निकल पड़ता है।

 

अब समस्या ये आती है कि अहमद को मुहम्मद के गाँव-घर का पता ही नहीं मालूम था! फिर भी वो तलाश शुरू करता है। कई बार वो ऐसे रास्तों पर पहुँचता है जो कहीं जाते ही नहीं थे, बंद गलियाँ सी थीं। कभी वो गलत रास्ते पर निकल पड़ता है। रास्ते में उसे अपनी पसंद का कुछ दिख जाए तो वो कॉपी लौटाने का काम भूलकर दूसरे काम में भी भटक जाता है। बड़े लोगों से मदद लेने की कोशिशों का भी फायदा नहीं होता। आखिर अहमद कॉपी लौटाने में नाकाम होकर घर लौट आता है। रात में वो खुद ही बैठकर मुहम्मद के हिस्से का काम उसकी कॉपी में कर डालता है। अगले दिन जब कॉपियां जमा होती हैं तो मुहम्मद के काम की तारीफ होती है और फिल्म यहीं ख़त्म होती है। सामान्य तौर पर कुछ नहीं दिखाने वाली इस फिल्म में कर्तव्य की, मित्रों-परिजनों के प्रति निष्ठा की, और हर रोज के जीवन में नायक को कैसी वीरता दिखानी पड़ती है, उसकी बात की जा रही है। जापानी निर्देशक अकिरा कुरोसावा इसे अपनी प्रिय फिल्म बताते थे।

 

अब अगर भगवद्गीता पर चलें तो ये नायक द्वारा कॉपी लौटाने के कर्म में कई श्लोक दिखा जाती है। क्या बच्चे को किसी ने सिखाया था कि सही गलत में फर्क कैसे करे? क्या सोचकर उसने कॉपी लौटाने को अपना कर्तव्य मान लिया था?

 

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।3.5

 

यहाँ कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं। आगे ये भी कहा गया है कि श्रेष्ठ लोग जैसा करते हैं, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं-

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21

 

तो क्या ऐसा हुआ होगा कि बच्चे अब्दुल ने दूसरों को अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते देखा इसलिए उसने अपना कर्तव्य कर लेने की प्रेरणा ले ली? हो सकता है अपने बड़े भाई को रोज पढ़ाई पूरी करने के बाद खेलने के लिए जाते देखकर उसने सीखा हो कि अपना काम पूरा करना चाहिए। उसी दृश्य में उसकी माँ कपड़े धो रही होती है, दूसरे घर के काम निपटा रही होती है। इन सब को देखकर उसने सीखा होगा कि अपने हिस्से का काम पूरा किया जाना चाहिए, और उसके बदले कोई अपेक्षा भी नहीं रखी जाती, ऐसा हो सकता है।

 

बार-बार नाकाम होने के बाद भी प्रयास जारी रखते देखकर आप भगवद्गीता के बारहवें अध्याय के नौवे, दसवें और ग्यारहवें अध्याय के बारे में भी सोच सकते हैं। यहाँ कहा जा रहा होता है कि यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग से मुझे प्राप्त करने का प्रयत्न करो। अगर तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि पा सकते हो। यदि ये भी नहीं कर सकते तो तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो। एक नहीं तो दूसरा, दूसरा नहीं तो तीसरा, कोई न कोई विधि प्रयोग में लाते हुए, प्रयास जैसे बारहवें अध्याय में जारी रखने कहा गया है, वैसे ही फिल्म का अब्दुल भी प्रयास करता रहता है। अंत में जब और कोई उपाय नहीं मिलता, तो वो स्वयं ही कॉपी भर डालता है!

 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27

 

अर्थात: सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष,  “मैं कर्ता हूँ”  ऐसा मान लेता है। जब मुहम्मद की प्रशंसा हो रही होती है तो अब्दुल स्वयं को कर्ता मानते हुए प्रसन्न नहीं होता। वो कर्म पूरा कर लेने पर प्रसन्न हो रहा होता है। उसमें कर्ता होने का अभिमान भी नहीं आता, जो कि बच्चों में थोड़ा सहज होगा, बड़े होने पर संभवतः कठिन हो जाता है। आप इसे जाने माने श्लोक “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।“ (भगवद्गीता 2.47) से भी जोड़कर देख सकते हैं, क्योंकि पूरी कहानी में अब्दुल अपने कर्म से स्वयं को कोई फल मिल जाने की अपेक्षा ही नहीं रख रहा।

 

बाकी बारहवाँ अध्याय छोटा सा है, जिसके बीस श्लोक कई लोग याद भी कर लेते हैं। इसलिए खुद पढ़िए, हमें इस ईरानी फिल्म के बहाने से जो बताया है, वो नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!