संयोग-वियोग

जातुगृह

सुबोध घोष की कहानी “जातुगृह” पर बांग्ला फिल्म तो 1965 में बन चुकी थी। उसी कहानी को आधार बनाकर गुलज़ार ने 1987 में “इजाज़त” बनाई। गुलज़ार की फिल्म थी तो उस दौर की कई कला फिल्मों की तरह ही इसकी भी समीक्षाएं जबरदस्त आयीं। 1988 और 89 में इसे कई पुरस्कार भी मिले थे। दर्शकों ने इसे देखा सराहा, मगर ये हिट फिल्म थी ऐसा बिलकुल नहीं कहा जा सकता। हाँ, ये जरूर है कि पुराने, बीते हुए दौर के किसी प्रेम प्रसंग की याद दिला जाती है, इसलिए “मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है” वाले गाने को सुनते ही उदासी को दबाती-छुपाती सी एक मुस्कान जरूर चेहरे पर आ जाती है।

फिल्म की कहानी अमीर परिवारों में शुरू होती है। नहीं, इन्हें मध्यम वर्गीय कहना समीक्षकों की जबरदस्ती होगी, क्योंकि रेलवे के उच्चाधिकारी या महंगी श्रेणियों में चलने वाले लोग ना हों, तो उस दौर में ऐसे रेलवे के वेटिंग रूम का इस्तेमाल कम ही लोग कर सकते थे। कहानी का नायक महेंद्र (नसीरुद्दीन शाह) एक रेलवे स्टेशन पर उतारकर जब वेटिंग रूम की ओर जाता है, उस वक्त तक बारिश शुरू हो चुकी थी। वेटिंग रूम में पहले से ही मौजूद स्त्री, सुधा (रेखा) उसे देखकर छुप जाने की कोशिश करती है, मगर बाद में उनका आमना-सामना होता है। यहाँ से फिल्म फ़्लैश बैक में चली जाती है। महेंद्र के फोटोग्राफी से जुड़े अच्छे चलते व्यवसाय, उसके दादा शम्मी कपूर के बारे में बताया जाता है।

महेंद्र के दादा ने उसका विवाह सुधा से तय कर दिया होता है, लेकिन वो वर्षों से शादी टालता रहता है। आखिर वो सुधा को बताता है कि उसे माया (अनुराधा पटेल) पसंद है। आज के दौर के हिसाब से नारीवादी सी माया को शायद सोशल मीडिया पर फेमिनाज़ी कहते। कुछ कविताएँ महेंद्र के लिए छोड़कर माया गायब हो जाती है और महेंद्र इस बीच में सुधा से शादी कर लेता है। उनका जीवन खुशहाल ही चल रहा था कि माया लौट आती है और अब महेंद्र-माया के जीवन में तनाव शुरू हो जाता है। महेंद्र ने सुधा को माया के साथ बिताये दिनों के बारे में भी काफी कुछ बता रखा था। एक दिन माया आत्महत्या की कोशिश करती है और उसके बाद महेंद्र दोबारा माया का ध्यान रखना भी शुरू कर देता है।

अब सुधा को लगने लगता है कि वो बेकार ही महेंद्र-माया के जीवन में बीच में पड़ी हुई है। इस बारे में बात करने पर महेंद्र कहता है कि वो माया को घर ले आएगा ताकि बात करके गलतफहमियां दूर की जा सकें। तबतक माया ने फोन पर महेंद्र और सुधा की बातचीत सुन ली होती है। उसे लगता है कि वो किसी की शादीशुदा जिन्दगी बिगाड़ रही है इसलिए वो शहर छोड़कर चली जाती है। जब महेंद्र देखता है कि माया जा चुकी है और वो अकेला घर लौटता है तो उसे पता चलता है कि सुधा भी घर छोड़कर चली गयी है। सदमे में महेंद्र को दिल का दौरा पड़ जाता है और ये खबर सुनकर माया लौट आती है और बीमार महेंद्र का ध्यान रखने लगती है।

जैसे जैसे महेंद्र ठीक होता है उसे लगता है कि उसे सुधा को घर वापस ले आना चाहिए। सुधा पंचगनी में शिक्षिका की नौकरी करती थी और वो चिट्ठी लिख देती है कि महेंद्र चाहे तो माया से शादी कर सकता है, उसे कोई ऐतराज नहीं। माया को जब समझ में आता है कि वही महेंद्र-सुधा का विवाहित जीवन बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार है, तो वो रात को घर छोड़कर निकलती है। महेंद्र उसका पीछा करके उसे रोकने की कोशिश करता है, लेकिन एक एक्सीडेंट में माया की मौत हो जाती है। पुराने दौर की ये सारी कहानी सुनाकर फिल्म जब वर्तमान में लौटती है तो माया की मौत के बारे में जानकर सुधा अफ़सोस जताती है। उसी वक्त सुधा का पति (शशि कपूर), सुधा को लेने आ पहुँचता है।

माफ़ी मांगने की बात सोच रहे महेंद्र को समझ में आता है कि सुधा ने बीते दौर में कभी दोबारा शादी कर ली है। इस बार जाते समय सुधा भी महेंद्र के पैर छूते हुए उससे माफ़ी मांगती है और जाने की इजाज़त लेती है। आशीर्वाद-शुभकामनाएं देकर उसे विदा करता महेंद्र अकेला खड़ा रह जाता है। सुधा का चेहरा देखकर उसके पति को अंदाजा हो जाता है कि अभी अभी मिला व्यक्ति शायद उसका पहला पति था। फिल्म के अंतिम दृश्य में थोड़े धीमे क़दमों से सुधा दूर जाती है और महेंद्र वहीँ वेटिंग रूम के बाहर खड़ा उसे जाते देखता रह जाता है।

फिल्म के शुरुआत के दौर में देखेंगे तो महेंद्र (नसीरुद्दीन शाह का किरदार) बड़े मजे में दिखाई देता है! पत्नी छोड़कर गयी तो क्या हुआ? सुधा नहीं तो माया तो उसकी बीमारी में ख़याल रख ही रही है! शुरू में ही वो सीधा-सीधा सुधा और अपने दादाजी को ये कहने की हिम्मत नहीं दिखाता कि उसे माया पसंद है और वो उसी से शादी करना चाहता है। इसका नतीजा अंत में “ना खुदा ही मिला ना मिसारे सनम” जैसा ही होना था! यहाँ सबसे पहले भगवद्गीता का कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म वाला श्लोक देखिये –

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18

यहाँ कहा जा रहा है कि जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वही बुद्धिमान है। इसे समझने के लिए कर्म के त्याग को भी देखना होगा क्योंकि दुःख समझकर कष्ट के डर से कर्म न करना राजस त्याग है और मोह या आलस्य के कारण कर्म न करना तामस त्याग है। ऐसे त्याग के लिए कहा गया है कि ये तो ढ़ोंग है!

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6

जो ऊपर से तो इन्द्रियों को रोके बैठा है, लेकिन मन में उसके वही चिंतन चल रहा है वो अकर्म नहीं ढ़ोंग कर रहा है।

अब जब महेंद्र की चुप्पी देखेंगे तो पता चलता है कि उसका एक फैसला ना लेना, क्योंकि उससे दादाजी को और सुधा को दुख होगा, एक राजस त्याग था। अगर तीसरे अध्याय के छठे श्लोक के आधार पर देखें तो वस्तुतः वो ढ़ोंगी था! यहीं श्रेय और प्रेय का सिद्धांत भी काम आता है। उस वक्त तो फायदेमंद लगे लेकिन लम्बे समय में जिससे दुःख हो वो प्रेय है, तत्काल बहुत सुविधाजनक ना भी लगे तो लम्बे समय में जिससे फायदा होने वाला है, ऐसे कर्मों को प्रेय कहा जाता है। तात्कालिक सुविधाओं के लिए प्रेय चुनकर महेंद्र अपना आगे का नुकसान करता है।

यहीं पर व्यावसायिकात्मिका बुद्धि के सम्बन्ध में भगवद्गीता में क्या कहा गया है, उसे भी देखिये।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41

यहाँ कहा जा रहा है कि निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, कम जानने वालों के लिए संकल्प बहुत भेदों वाले या कहिये कि अनन्त होते हैं। अगर महेंद्र ने एक निश्चय किया होता तो उसके लिए फैसला केवल एक होता। उसकी तुलना में सुधा के लिए फैसला लेना आसान भी है और लम्बे समय में सुविधाजनक भी। शुरुआती दृश्यों में भले ऐसा लगा होगा कि महेंद्र के दोनों हाथों में लड्डू हैं, लेकिन अंतिम दृश्य में वो खाली हाथ ही खड़ा रह जाता है जबकि सुधा अपने परिवार के साथ आगे बढ़ रही है। जिसे आमतौर पर अध्यात्मिक कहकर ये बताया जाता है कि ये संभवतः सन्यासियों के लिए है, वो आम लोगों के जीवन में कैसे काम करती है, इसका हमने आपको छल से केवल एक उदाहरण दिया है। बाकी ये जो धोखे से पढ़ा डाला वो केवल नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं भगवद्गीता उठाकर पढ़नी होगी, ये तो आपको याद ही होगा!