युद्धों के परिणाम पर बनी “टर्टल्स कैन फ्लाई”

एक कुर्दी फिल्म है “टर्टल्स कैन फ्लाई” जिसका नाम ही अजीब लगता है। काफी चर्चित रही इस फिल्म की कहानी तीन बच्चों (किशोरावस्था के) की कहानी है जो सद्दाम हुसैन वाले काल में ईराक-तुर्की सीमा पर किसी रिफ्यूजी कैंप में हैं। वो लोग अमेरिकी हमले की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, कि किसी तरह स्थितियां सामान्य हो और वो वापस अपने गाँव-घर लौट सकें। इनमें से एक सोरन है जिसे सब काक सैटॅलाइट बुलाते हैं। इसने अमरीकियों से बात करने की कोशिश में थोड़ी बहुत अंग्रेजी सीख ली होती है और लैंड माइन लगे इलाकों से कबाड़ चुनकर लाने वाले बच्चों का वो लीडर होता है।

 

हाल ही में रिफ्यूजी कैंप में आई अग्रीन नाम की सुन्दर सी लड़की इसे पसंद होती है। लड़की अपने ही खयालों में गुम, स्थितियों से नाराज सी होती है। उसका एक भाई भी अपाहिज होता है और उनके साथ एक शिशु होता है जिसे वो छोटा भाई बताते-बुलाते हैं। ये लड़की अग्रीन बार-बार आत्महत्या करने का प्रयास कर रही होती है। वो उस छोटे बच्चे को भी मार देना चाहती थी, जो उनके साथ रहता था। बेचारे काक सैटॅलाइट के प्रयासों पर वो कोई ध्यान नहीं देती। एक बार वो उस बच्चे को एक पेड़ से बाँध कर छोड़ देने की कोशिश करती है। बच्चा निकलकर माइंस फील्ड में फंस जाता है, जहाँ से उसे निकालने की कोशिश में काक सैटॅलाइट भी माइन की चपेट में आ जाता है। अंततः अग्रीन बच्चे को एक पत्थर से बांधकर झील में फेंक देती है और खुद भी एक ऊँची जगह से कूद जाती है। उसके दिव्यांग भाई को सपना सा आता है जिसमें वो अपने भाई-बहन को डूबता हुआ देखता है वो दौड़कर उन्हें बचाने निकलता है, लेकिन वो दिव्यांग था और अपने भाई के शव को झील से निकाल नहीं पाता।

 

फिल्म में ये समझ में आ जाता है कि वो बच्चा असल में अग्रीन और उसके भाई का भाई नहीं था। बाथ सिनिकों (सद्दाम की फौजों) ने अग्रीन का बलात्कार किया था जिसका परिणाम वो बच्चा था। इसलिए अग्रीन कभी सदमे से उबरी नहीं और उस बच्चे से घृणा करती थी। फिल्म के अंत में वो लड़का उसी जगह बैठा दुखी हो रहा होता है जहाँ से उसकी बहन अग्रीन कूदी थी। अमेरिकी सिपाही बाथ सेनाओं (सद्दाम की फौजों) पर आक्रमण करने पहुँचते दिखते हैं लेकिन उन्हें देखता काक सैटॅलाइट, जो कि अब लैंड माइन से अपाहिज हो चुका था, अमरीकियों से बात करने जैसी कोई उत्सुकता नहीं दिखाता। वो भी अब युद्ध से निराश हो चुका था।

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फिल्म को आप युद्ध की विभीषिका के लिए देख सकते हैं। कोई सुखांत फिल्म नहीं है, बच्चों पर किशोर-किशोरियों पर युद्ध की विभीषिका का क्या प्रभाव होता है, उसे देखने के लिए फिल्म देख सकते हैं। प्रोपगैंडा क्या होता है, इसकी थोड़ी समझ बनेगी, क्योंकि फिल्म के अंत में काक अमेरिकियों से निराश सा दिखता है। क्या अमेरिकियों ने कोई ठेका लिया था किसी को सद्दाम हुसैन की फौजों के अत्याचार से बचाने का? कोई हमें बचाने नहीं आया का एंटाइटलमेंट वाला दोषारोपण कैसे दूसरों पर किया जाता है, बाहर से देखने पर वो भी दिख जायेगा। बाथ फौजों (सद्दाम हुसैन की सुन्नी फौजों) ने जो बलात्कार इत्यादि किये वो इससे पहले भी दिखे हैं, इसके बाद भी वही तरीके आईएसआईएस के हमलों में दिखे लेकिन उसे स्वीकारने, वो ऐसे ही जुल्म करेंगे, ये मानने से साफ इनकार कर देना भी फिल्म में ही दिख जायेगा।

 

इतने पर आपका ध्यान भगवद्गीता पर चला जायेगा। दूसरे अध्याय के बारहवें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण समझा रहे होते हैं –

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12

यानि कि वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। जिस तरह के अन्यायी बाथ सैनिक थे, वैसे पहले भी ओट्टोमन (उथमान) खलीफत के काल में हुए हैं। भारत जिसका कि तुर्की कि खलीफत से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था, उसे भी मोपाला नरसंहार झेलना पड़ा था। उथमान (ओट्टोमन) कुनबे के खलीफाओं का अंत करके जब सऊदी अरब जैसे 15-20 देश बने तब जाकर स्थितियां थोड़ी बदली लेकिन फिर से खलीफत स्थापित करने के नाम पर कोई न कोई उठता ही रहा है। सैयद कुतुब की लिखी किताब “माइलस्टोन्स” से प्रेरित होकर 1960 के बाद भी कई संगठन उभरे और उनसे लड़ने भी कोई न कोई आता रहा।

 

गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि अर्जुन के जिस प्रश्न के उत्तर में बताया गया था कि ऐसा पहले भी होता रहा है, यही लोग पहले भी आते रहे हैं और यही बाद में भी आयेंगे, वो भी देखने लायक है। पहले अध्याय के अंत में अर्जुन का तर्क क्या था?

 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39

यानि कि वो नहीं समझ रहे, लेकिन हम तो समझदार हैं! कुलक्षय से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से विरत होने के लिए क्यों नहीं सोचना चाहिये। पहले अध्याय के 38वें-39वें श्लोकों में आपको वही प्रश्न मिल जायेगा जो चुप करवाने के लिए कहा जाता है – चलो वो तो नासमझ हैं, आततायी हैं, राक्षस ही हैं! लेकिन हम तो समझदार लोग हैं, हम उनके जैसे कैसे हो जाएँ? हमें तो समझदारी दिखानी चाहिए न? ये तो बिलकुल वही बात है जो अर्जुन ने कही थी। ऐसे ही प्रश्नों के कारण श्री कृष्ण को कहना पड़ा था कि शब्द तो तुमने पांडित्यपूर्ण चुने हैं, किन्तु बातें तुम मूर्खतापूर्ण कर रहे हो!

 

आगे दूसरे अध्याय में ही 38वें श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण बताते हैं –

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38

सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान मानकर युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा। जब स्वयं के लिए सत्ता और राज्य का सुख चाहिए, स्वयं के लिए युद्ध में विजय से माले-गनीमत चाहिए, खुद को गाजी या बुतशिकन की उपाधि देने के लिए युद्ध लड़ा हो, तब तो युद्ध के पापों के दोषी स्वयं भी होंगे। जब स्वयं के लिए नहीं, समाज की सुरक्षा के लिए, स्त्रियों-बच्चों को गुलामी-जजिया आदि से बचाने के लिए युद्ध किया, तो पापी कैसे हुए? सामान्य समाज में भी इसे देखेंगे तो निर्भया कांड के बलात्कारी-हत्यारे आपको पापी लगेंगे, लेकिन जैसे उन्होंने हत्या की इसलिए वो दोषी थे, वैसे ही उन्हें फांसी की सजा सुनाने वाला जज भी दोषी लगता है क्या? दोनों मृत्यु के जिम्मेदार थे लेकिन अपने सुख की कामना में निर्भया कांड के बलात्कारी हत्या करते हैं, इसलिए वो दोषी हो जाते हैं। समाज को वैसे लोगों से बचाने के लिए जज फांसी की सजा देता है इसलिए वो मृत्यु का दोषी नहीं है।

 

आप ऐसा भी सोच सकते हैं कि हजारों किलोमीटर दूर मिडिल-ईस्ट में चल रही जंग की आंच हमारे घर क्यों आएगी? केरल के मोपाला में बैठे हिन्दुओं ने भी यही सोचा होगा कि हजारों किलोमीटर दूर तुर्की की खलीफत से हमें क्या? फिर नोआखाली में भी हिन्दुओं ने यही सोचा होगा कि युद्ध यहाँ कहाँ आएगा, सीमाओं पर होगा न? फिर कश्मीर में भी हिन्दुओं ने बिलकुल यही सोचा होगा कि निजाम-ए-मुस्तफा की स्थापना यहाँ नहीं होनी है। नूह-मेवात के क्षेत्र में हिन्दुओं ने यही सोचा होगा। बिहार के दरभंगा जैसी जगहों पर पत्थरबाजी झेलने वालों ने भी बिलकुल यही सोचा होगा। आप बिलकुल ये मान सकते हैं कि बकरी तो अहिंसक, घास-फूस खाने वाली होती है, इसलिए भेड़ियों को उसपर हमला नहीं करना चाहिए, लेकिन आपकी इस बचकानी सोच से भला भेड़ियों पर क्या असर होने वाला है? हिटलर-मुसोलनी को लाल गुलाब देकर “गेट वेल सून मामू” कहने से वो रुके थे क्या? फिल्म के मुख्य किरदार काक सैटॅलाइट की तरह आप किसी और देश की फौजों के आपकी मदद के लिए आने का इंतजार करते बिलकुल बैठ सकते हैं। हाँ फिल्म की ही तरह अंतिम दृश्य में आपको भी उससे निराशा ही होगी। भगवान् श्री कृष्ण भी अर्जुन का केवल रथ हांक रहे थे, उसके लिए युद्ध करने नहीं उतरे थे। युद्ध तो स्वयं ही करना होगा!

 

बाकी युद्ध की विभीषिका, और युद्ध के बीच भी पनपते प्रेम आदि भावों को दर्शाती फिल्म के जरिये जो याद दिला दिया है, वो नर्सरी के स्तर का है। पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी पड़ेगी, ये तो याद ही होगा!