संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।1.24।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृ़नथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।1.26।।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।
स्वामी चिन्मयानंद जी की व्याख्या:-
भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को भीष्म और द्रोण दोनों के सम्मुख एक स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। एक कर्तव्यनिष्ठ सारथि के समान वे अर्जुन से कहते हैं हे पार्थ यहाँ एकत्र हुए इन कौरवों को देखो। पुरे प्रथम अध्याय में मात्र ये ही शब्द हैं जिन्हें भगवान ने कहा है। उन शब्दों ने उस चिनगारी का काम किया जिसने अर्जुन के अहंकार पर आधारित झूठे मूल्यों एवं धारणाओं के महल को जलाकर राख कर दिया। इसके पश्चात् हम देखेंगे कि इन शब्दों की अर्जुन पर क्या प्रतिक्रिया हुई और किस प्रकार उसका मन टूटकर बिखर गया।
पार्थ का अर्थ है पृथापुत्र अर्जुन। पृथा कुन्ती का दूसरा नाम है। इस संस्कृत शब्द पार्थ में पार्थिव की गन्ध मिलती है जिसका अर्थ है मृत्तिका निर्मित। यह सम्बोधन अत्यन्त अर्थपूर्ण है। इसका तात्पर्य यह है कि गीता सत्य का संदेश है जिसे अमृत स्वरूप भगवान् ने मनुष्य के सार्वकालिक प्रतिनिधि र्मत्य पुरुष अर्जुन को सुनाया है।
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा सेना के दिखाये जाने पर अर्जुन ने शत्रुपक्ष में खड़े अपने सगेसम्बन्धियों को देखा परिवार के ही प्रिय सदस्यों को पहचाना जिनमें भाईभतीजे गुरुजन पितामह और अन्य सभी परिचित एवं सुहृद जन थे। शत्रुपक्ष में ही नहीं वरन् उसने अपनी सेना में भी इसी प्रकार सुपरचित और घनिष्ठ संबंधियों को देखा। संभवत इस दृश्य को देखकर पहली बार एक पारिवारिक कलह के भयंकर दुखदायी परिणाम का अनुमान वह कर सका जिससे उसका अन्तरतम तक हिल गया। एक कर्मशील योद्धा होने के कारण संभवत अब तक उसने यह सोचा भी नहीं था कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने और दुर्योधन के अन्यायों का बदला लेने में सम्पूर्ण समाज को किस सीमा तक अपना बलिदान देना होगा।
कारण जो कुछ भी रहा हो लेकिन यह स्पष्ट है कि इस दृश्य को देखकर उसका हृदय करुणा और विषाद से भर गया। परन्तु इस समय की उसकी करुणा स्वाभाविक नहीं थी। यदि उसमें करुणा और विषाद की भावनायें गौतम बुद्ध के समान वास्तविक और स्वाभाविक होतीं तो युद्ध के बहुत पूर्व ही वह भिन्न प्रकार का व्यवहार करता। संजय का अर्जुन की इस भावना को करुणा नाम देना उपयुक्त नहीं है। साधारणत मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह अपनी दुर्बलताओं को कोई दैवी गुण बताकर महानता प्राप्त करना चाहता है जैसे कोई धनी व्यक्ति स्वयं के नाम पर मन्दिर निर्माण करता है तोे भी उसको दानी कहते हैं जबकि उसके मन में अपना नाम अमर करने की प्रच्छन्न इच्छा होती है। इसी प्रकार यहाँ भी अर्जुन के मन में विषाद की भावना का उदय उसके मनसंयम के पूर्णतया बिखर जाने के कारण हुआ जिसका गलती से करुणा नाम दिया गया।
अर्जुन के मन में असंख्य दमित भावनाओं का एक लम्बा सिलसिला था जो सक्रिय रूप से शक्तिशाली बनकर व्यक्त होने के लिये अवसर की खोज कर रहा था। इस समय अर्जुन के मन तथा बुद्धि परस्पर वियुक्त हो चुके थे क्योंकि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ वीर समझने के कारण उसके मन में युद्ध में विजयी होने की प्रबल आतुरता थी। पूर्व की दमित भावनायें और वर्तमान की विजय की व्याकुलता के कारण उसकी विवेक बुद्धि विचलित हो गयी।
अर्जुन एक असंतुलित मानसिक रोगी के समान व्यवहार करने लगता है। इस आत्मघातक अर्जुनरोग का रामबाण उपाय मात्र श्रीकृष्णोपचार है।