अर्थ कैसे बदलते हैं? मेघदूत से भगवद्गीता तक

कभी-कभी #भगवद्गीता का अर्थ बार-बार पढ़ने पर बदल कैसे सकता है पूछने वालों को हम #मेघदूत का उदाहरण दे देते हैं। पहले एक बार नागरिक और ग्रामीण के अंतर के बारे में सोच लीजिये। नागरिक, यानी नगरों में रहने वाले – शहरी के लिए बादलों के घिर आने का क्या अर्थ होगा? पकौड़े-चाय के साथ बालकनी (या बरामदा जो कहीं कस्बों में बचा हो तो) में बैठना और पति/पत्नी/परिवार या फिर प्रेमी/प्रेमिका के साथ कुछ “क्वालिटी टाइम” बिताना? जो “टिप-टिप बरसा पानी” जैसे गीतों में होता है, वैसा वाला अर्थ भी हो सकता है।
ग्रामीण के लिए अर्थ तुरंत बदल जाएगा। उसका खाना-खर्चा सब तो सीधा कृषि से जुड़ा हुआ है! ग्रामीण स्त्री के लिए तो मेघ भाइयों जैसा वो अतिथि है जो आया है तो कुछ देकर ही जाएगा। पुराने जमाने में सावन का पहला अर्थ ही मायके जाना होता था, विदेश कमाने गए पति या घर पर जिस पत्नी को घर छोड़ आये हैं, उनका विरह तो बस दोस्ताना छेड़-छाड़ या चुहल जितना होगा। शहरी में स्त्री-पुरुष का भेद किये बिना, ग्रामीणों के मामले में सीधे #स्त्री का उदाहरण क्यों? अरे भइये, #बिहार में रहते हैं न! ग्रामीण स्त्री को ही मेघ दिखेंगे, पुरुष तो कहीं गुजरात-महाराष्ट्र कमाने गया है। जैसे पुराने जमाने में चिट्ठियों में “लाली गाय ने बछिया दिया” की खबर जाती थी, वैसे ही बादल घिर आने की खबर तो व्हाट्स-एप्प मेसेज में जायेगी। पुरुष को गाँव में आये मेघ दिखेंगे थोड़ी!
यहाँ समझने में कई बार समस्या इसलिए होती है क्योंकि संस्कृत शब्द “कृषक” मूल रूप से हल चलाने वाले के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पूरी बोने से लेकर मंडी में बेचने तक की प्रक्रिया की बात नहीं करता। हल चलाने के लिए शारीरिक बल अधिक चाहिए तो कृषक पुल्लिंग हो गया और उससे एक नयी-नवेली भाषा – हिन्दी का किसान निकला तो वो भी पुल्लिंग हो गया। असल में खेती की प्रक्रिया में बड़ा योगदान स्त्री का होता है ये किसी (लेफ्ट-लिबटार्ड) को याद ही नहीं आया। अब हम जैसे हिन्दुओं के हाथ सोशल मीडिया आ गया है तो हमलोगों ने याद दिलाना शुरू किया है कि हम जब ग्रामीण किसान की बात करते हैं तो मुख्यतः स्त्रियों की बात कर रहे हैं, पुरुषों की कम।
शब्दों से वापस मेघदूत पर आयें तो नागरिक रमणियों और पुरुषों के लिए मेघ काम भाव जगाने वाला हो सकता है। ग्रामीण स्त्री के लिए तो मेघ वो पूज्य अभ्यागत है जिसके आने से उसके खेत हरे भरे हो जायेंगे! उसके लिए काम-भाव कहाँ? वो तो हाथ जोड़े पहले ये सोचेगी कि भगवान की कृपा हो गयी जो आज मेघ यहाँ आये! घर से चार बजे सुबह मोबाइल एप्प से पानी का मोटर ऑन करके जो खेतों की ओर निकलती और उसके पहुँचने तक खेतों में सिंचाई हो गयी ये जाँचकर मोटर ऑफ करती, ये श्रम अब कुछ दिन नहीं करना पड़ेगा। हाथ जोड़कर मेघों को लम्बी आयु का आशीष देती (ताकि अच्छी बरसात हो) स्त्री के भाव और “लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है” वाले गीत के भाव में अंतर स्पष्ट होते ही दूसरा अर्थ दिखने लगेगा।
अब आपका ध्यान जायेगा कि मेघदूत का मंगलाचरण वस्तुनिर्देशात्मक तो है, लेकिन किस वस्तु का निर्देश है इस ग्रन्थ में? हमारे जैसे साधारण लोग जब शरीर-संसार आदि को माया और ब्रह्म को सत् कह जाते हैं, तो कालिदास जैसे शब्दों पर अतुलनीय सामर्थ्य रखने वाले ने क्या किया होगा?
कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तङ्गितमहिमा वर्षभोग्येन भर्तुः।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।
एक बार में साधारण अर्थ देखें तो यहाँ कालिदास ने कहा है कि अपने काम में असावधान रहने के कारण, एक यक्ष को उसके स्वामी (कुबेर) से एक वर्ष के विरह का शाप मिला। शाप से उसकी शक्तियाँ कम हो गईं। उसने रामगिरि के उन आश्रमों में निवास किया, जिनके जलकुंड सीता के स्नान से पवित्र हो गए थे और जहाँ घने, छायादार वृक्ष थे।
अब अगर हम ये कहें कि अद्वैत या अन्य दर्शनों जैसा – आत्मा परमात्मा के पास थी और उसे जन्म से मरण तक कुछ काल (एक वर्ष कहा है जिसे) के लिए धरती पर जन्म लेना पड़ा। माया (शाप) के कारण उसकी शक्तियाँ कम हो गयी और स्वयं को ब्रह्म से संयुक्त भी वो नहीं देख पा रहा। कहाँ जन्म लिया? जिस भूमि पर श्रीहरि ने राम अवतार लिया था, जहाँ माता सीता रहती थीं, वहाँ जन्म लिया है। शिव (परम तत्व) पाने की उसकी उत्कंठा है, इसलिए कैलाश की ओर जा रहे एक साधु (मेघ को मेघदूत में कई बार साधु कहा है) से वो आगे के श्लोकों में अपनी दशा, ईश्वर का स्वरुप और साथ ही साधु (मेघ) को सौम्य-आयुष्मान यानि भले से स्वभाव वाला कोई बुजुर्ग/वृद्ध कहकर उसकी प्रशंसा भी करता जा रहा है।
भाव बदलते ही मेघदूत के मंदाक्रांता छन्द में रचित श्लोकों पर ये हो सकता है। हमारे जैसा संस्कृत की साधारण जानकारी रखने वाला, जो “की” और “कि” लिखने तक में गलती कर देता हो, वो भी ये कर दे तो संस्कृत के विद्वान उसे चुनौती नहीं देंगे, अधिक से अधिक हँसकर टाल देंगे। शब्दों के अलग-अलग अर्थों का ज्ञान, मन के भाव आदि जैसे-जैसे बदलते रहेंगे, भगवद्गीता के (अधिकांश) अनुष्टुप छन्दों पर भी यही होगा। एक व्यक्ति की अनुभवों के आधार पर मिले ज्ञान के स्तर पर कोई और आ जाए, ये किसी तरह कर भी दिया जाए तो भी एक से भाव में दो व्यक्ति हों, ये लगभग असंभव होगा। इसलिए भगवद्गीता के बारे में हम चाहे जो भी बता लें, वो सब का सब नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!