किताबें बड़ी और मोटी कैसे हो जाती हैं? इसे समझने के लिए एक आसान सा उदाहरण है “माण्डुक्य उपनिषद”। ये 108 उपनिषदों की सूची में छठा उपनिषद। आकार में ये इतना छोटा है कि इसमें बारह ही मन्त्र होते हैं। ये सभी हिन्दुओं के लिए विशिष्ट माने जाने वाले ॐ से सम्बंधित हैं। इनपर गौड़पादाचार्य ने कारिका लिखी। कारिका श्लोकों के रूप में भाष्य की तरह उपनिषद का विवरण होता है। उन्होंने 215 श्लोक लिखे तो बारह में ये दो सौ पन्द्रह जोड़कर ये मोटी होने लगी। गौड़पादाचार्य के शिष्य थे गोविन्द भगवत्पाद। ये आदिशंकराचार्य के गुरु थे। तो जब आदिशंकराचार्य ने अपने गुरु के गुरु द्वारा लिखित माण्डुक्य कारिका पर भाष्य लिखा तो ये और मोटी हो गयी।
आज जब हम इसे हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद के रूप में पढ़ते हैं, तो ये करीब तीन सौ पन्नों की किताब हो जाती है। अब माण्डुक्य उपनिषद के बारह वाक्य, सिर्फ एक पन्ने के नहीं होते। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि कई ऐसे शब्द या भाव हैं, जिनसे अब हम परिचित नहीं। उपनिषदों या दर्शनशास्त्र की चर्चा रोज नहीं होती, इसलिए श्लोक के एक शब्द के लिए कई बार अनुवादक को पूरा वाक्य लिखना पड़ता है। उदाहरण के लिए माण्डुक्य उपनिषद में “तुरीय अवस्था” की बात की गयी होती है। अधिकांश लोगों के लिए “तुरीय” बिलकुल नया शब्द होगा।
ऐसा ही भगवद्गीता के साथ भी होता है। भगवद्गीता में सात सौ श्लोक होते हैं। थोड़े समय पहले तक गीता प्रेस से ये भी एक पन्ने में प्रिंट होकर मिलता था। वहीँ से तबीजी या गुटका संस्करण के रूप में ये अभी भी इंसान के अंगूठे जितने आकार में मिल जाता है। अगर हिंदी अनुवाद (टीका) भी इसमें जोड़ दें तो एक सिगरेट के डब्बे जितने बड़े आकार (और उससे काफी कम मूल्य पर) ये आसानी से उपलब्ध है। जब इसमें शंकरभाष्य जोड़ दिया जाता है तो इसका आकार बढ़ जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भाष्य में सिर्फ सीधा श्लोकों का अनुवाद नहीं होगा। भाष्य लिखने वाले अपने (अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, या द्वैत जैसे) मत का भाष्य के जरिये प्रतिपादन भी करते हैं।
आदिशंकराचार्य ने अद्वैत मत के आधार पर अपना भाष्य लिखा था। आज ये सबसे आसानी से हिंदी या अंग्रेजी में अनुवाद के रूप में उपलब्ध है। उनके बाद रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत के आधार पर अपना भाष्य लिखा। ये भी आसानी से हिंदी और अंग्रेजी में (संक्षित रूप में) में उपलब्ध हो जाते हैं। द्वैत पर मध्वाचार्य का लिखा भाष्य बहुत आसानी से उपलब्ध नहीं है, लेकिन थोड़ा ढूँढने पर वो भी ऑनलाइन मिल सकता है। भाष्य एक मत का प्रतिपादन और दूसरे मतों का खंडन होता है। उदाहरण के तौर पर मध्वाचार्य अद्वैत वालों को महायान बौद्ध दर्शन को हिन्दुओं पर थोपा जाना बताते थे। उनके हिसाब से भगवान विष्णु के सभी अवतारों का एक समान स्थान था, जबकि वैष्णवों में ही अलग-अलग पंथ वाले कोई श्रीराम को तो कोई श्री कृष्ण को श्रेष्ठ मानते दिखेंगे। अलग अलग भारतीय दर्शनों पर अगर पढ़ना हो तो शंकराचार्य रहे अद्वैत के माधवाचार्य विद्यारण्य की लिखी सर्व दर्शन संग्रह देख सकते हैं।
हर व्यक्ति की रूचि, उसका झुकाव, अलग अलग सिद्धांतों की ओर होता है। किसी को अद्वैत सहज लग सकता है, लेकिन कई लोगों को अद्वैत उतना आसान नहीं लगे, ये भी हो सकता है। अगर अद्वैत के सिद्धांतों के हिसाब से चलना सजह लगता हो तो फिर आपके लिए विकल्प कई हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आदिशंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद तक कई बड़े भारतीय दार्शनिक अद्वैत के मतों का ही प्रतिपादन करते थे। इसलिए आपको आज जो भगवद्गीता पर लिखी पुस्तकें आसानी से मिलती हैं, उनमें से अधिकांश अद्वैत मत की ही हैं। यूट्यूब पर आसानी से अद्वैत मत के कई वीडियो भी मौजूद हैं। आप वहां से भी आसानी से इन्हें देख-सुन सकते हैं।
वापस किताबों की ओर चलें, तो सबसे पहले सरल अर्थ के लिए आपको भगवद्गीता पर लिखी कोई टीका पढ़नी चाहिए। गीता प्रेस की दुकानों में आसानी से टीका उपलब्ध हो जाएगी। टीका सहित भी भगवद्गीता पूरी पढ़ लेने में मुश्किल से तीन घंटे का समय लगेगा इसलिए एक-दो बार पढ़ने का समय तो कोई भी निकाल सकता है। इससे एक स्तर ऊपर आने पर गीता प्रेस से ही “तत्वविवेचनी” नाम का भाष्य देख सकते हैं। ये बहुत पुराने दौर में नहीं लिखा गया, फिर भी इसकी हिन्दी थोड़ी सी मुश्किल लग सकती है। किसी किसी का हर शब्द का अर्थ और फिर श्लोक पर टिप्पणियाँ देखने का मन हो, ऐसा भी हो सकता है। इसके लिए गीता प्रेस से ही आने वाली “साधक संजीवनी” देख सकते हैं। ये दोनों किताबें आकार में बड़ी हैं, इसलिए इन्हें हमेशा साथ लिए घूमना तो संभव नहीं होगा, लेकिन घर पर आप आसानी से इन्हें पढ़ सकते हैं।
सीधे टीका या भाष्य के अलावा भी कई विद्वानों ने भगवद्गीता पर लेख लिखे हैं। बाल गंगाधर तिलक की “गीता रहस्य” में शुरूआती हिस्से के लेखों से भी भगवद्गीता के बारे में काफी कुछ पता चलता है। बाल गंगाधर तिलक की किताब अब शायद कॉपीराइट से मुक्त होगी, इसलिए कई अलग अलग प्रकाशनों से अलग अलग मूल्य पर उपलब्ध है। भगवद्गीता पर श्री औरोबिन्दो ने भी काफी लिखा है। उनकी पुस्तक भी हिंदी और अंग्रेजी दोनों में उपलब्ध है। श्री औरोबिंदों की पुस्तकें क्लिष्ट लग सकती हैं। अगर आपकी भगवद्गीता में बहुत रूचि ना हो तो संभावना है कि आप इन्हें आधे में ही छोड़ देंगे। उसकी तुलना में बाल गंगाधर तिलक की भाषा कहीं अधिक सरल है।
भगवद्गीता का अनुवाद एस. राधाकृष्णन ने भी किया है, और उसकी भाषा भी अपेक्षाकृत सरल है। जहाँ भी पुस्तकों की दुकानें उपलब्ध हों, वहाँ मेरी सलाह गीता प्रेस की किताबें लेकर, उनसे शुरुआत करने की रहती है। कोई दूसरी किताबें पढ़ना चाहें, तो वो भी पाठक की इच्छा पर है।