कर्म का प्रभाव किसपर पड़ता है?

अच्छी भारतीय फ़िल्में! घर में बच्चों के साथ भी बैठकर देख सकें, इतनी अच्छी भारतीय फ़िल्में? फिर तो भाई हमें उर्दूवुड से भारत की प्रादेशिक भाषाओँ की फिल्मों की तरफ रुख करना पड़ेगा। ख़ास तौर पर मराठी में कई ऐसी फ़िल्में बनती हैं जिन्हें कहानी, निर्देशन, या अभिनय की दृष्टि से सराहा जा सके। ऐसी एक फिल्म थी “साइकिल” जो कि 2017 में कांस फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई गयी थी। ये फिल्म जब 2018 में रिलीज़ हुई तो अच्छी खासी सफल भी हुई थी। यानी ऐसा जरूरी नहीं है कि आलोचकों की पसंद और दर्शकों की पसंद अलग अलग ही हो। इस फिल्म को प्रकाश कुंटे ने निर्देशित किया था और इसकी पटकथा अदिति मोघे ने लिखी थी।

 

इसकी कहानी एक ग्रामीण इलाके में शुरू होती है जहाँ केशव नाम का एक जाना-माना वैद्य और ज्योतिषी रहता है। उसके साथ उसके परिवार में उसके पिता, पत्नी और बिटिया भी हैं। उसके दादाजी को किसी अंग्रेज ने कभी एक साइकिल तोहफे में दी थी। दादा से साइकिल पोते केशव के हाथ आ गयी थी। उसे अपने दादा की दी हुई साइकिल इतनी पसंद थी कि वो अपनी बिटिया के अलावा किसी को साइकिल छूने भी नहीं देता था। साइकिल के प्रति उसके मोह को देखकर उसकी बिटिया सोचती थी कि किसी दिन एक ही आदमी के पास रहते रहते साइकिल उब जायेगी। एक दिन वो केशव से पूछती भी है कि क्या आपकी साइकिल पंख लगाकर उड़ जाएगी!

 

उसकी साइकिल पर इसलिए भी ध्यान जायेगा क्योंकि वो आमतौर पर दिखने वाली साइकिल की तरह लाल, हरी या काली नहीं थी। केशव की साइकिल पीली थी! ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी-मोटी चीजें भी बड़े महत्व की होती हैं। एक दिन दो चोरों की नजर साइकिल पर पड़ती है। वो भाग रहे थे, और भागने के लिए वो केशव की साइकिल चुरा भागते हैं। अब केशव अपनी साइकिल की तलाश में निकल पड़ता है। कुछ तो इस वजह से ग्रामीण अपने इलाके में पीढ़ियों से रहने वाले परिवार के सदस्यों को ऐसे भी पहचानते हैं, और कुछ इस कारण कि केशव जाना माना वैद्य और ज्योतिषी था, इसलिए पूरा इलाका ही उसे पहचानता था। ऐसे में चोरों के पास पीली साइकिल भी केशव की साइकिल के तौर पर पहचान ली जाती थी।

 

बचने के लिए चोर खुद को केशव का रिश्तेदार घोषित करना शुरू कर देते हैं। अब एक और नयी मुसीबत उठ खड़ी होती है। चोरों को जहाँ दुत्कारे जाने, पीटने और बेइज्जत होने की आदत थी, वहीँ केशव तो बिलकुल दूसरा ही जीव था! उसने दर्जनों लोगों की मदद की थी और आस पास के इलाके में उसकी अच्छी इज्जत थी। चोर जहाँ भी जाएँ उन्हें केशव का रिश्तेदार होने के नाम पर ऐसा सम्मान मिलता कि बेचारे शर्म से गड़े जा रहे थे। दोनों सोच रहे थे कि ये कैसा पाप कर डाला! किसी दुष्ट अमीर से चुराते तो कोई बात नहीं, ये तो जैसे किसी साधू की कुटिया में डाका डाल दिया था। उधर केशव साइकिल ढूंढता अलग ही परेशानी में था। उसने कभी किसी को अपनी साइकिल नहीं दी थी, जबकि बाकी हर मामले में वो भला आदमी था। वो सोच रहा था कि क्या सांसारिक वस्तुओं से उसका इतना मोह उचित है?

 

एक तरफ चोर अपने कुकृत्य पर शर्मिंदा होते केशव की साइकिल लौटाते हैं तो दूसरी तरफ केशव भी अपने मोह को त्यागकर एक लड़के को वो साइकिल दान कर देता है। जब तक ये सारी घटनाएँ होतीं, तबतक गाँव भर में केशव की साइकिल के चोरी होने की खबर फ़ैल चुकी थी। इतने भले आदमी का ऐसा नुकसान हो, ये ग्रामीण देख नहीं पाते। केशव के लौटने तक वो लोग आपस में चंदा करते हैं और एक दूसरी साइकिल खरीद लाते हैं। उन्हें पता नहीं था कि केशव को अपनी साइकिल मिल भी गयी और वो उसे दान भी कर आया है। साइकिल केशव की पुरानी साइकिल जैसी दिखे इसलिए वो लोग उसे पीले रंग से रंग देते हैं। केशव के लौटते ही उसे मनगढ़ंत किस्सों में साइकिल मिल जाने की खबर देकर दूसरी पीली साइकिल थमा दी जाती है।

 

केशव सब जानते हुए भी लोगों का दिल रखने के लिए मान लेता है कि ये उसकी साइकिल है, मगर जैसे ही उसकी उँगलियों पर ताजा पीला पेंट लग जाता है तो वो अपनी बेटी को इशारों में बता देता है कि उसकी पीली साइकिल सच में उड़ गयी!

 

अब आते हैं भगवद्गीता पर क्योंकि जाहिर है हमने फिल्म की कहानी के बहाने फिर से वही पढ़ा डाला होगा। कहानी का केशव जब अपने रोजमर्रा के काम में ही दर्जनों अच्छे काम किये जा रहा था, तो उसने कभी नहीं सोचा होगा कि उसे कौन देख रहा है। उसके कर्मों को सिर्फ देखने का नतीजा ये हुआ कि ग्रामीणों ने ही उसका प्रत्युत्तर नहीं दिया, बल्कि चोरों में भी उससे सुधार आ गया! इसके लिए भगवद्गीता में कहा गया है –

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।3.22

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।3.23

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।3.24

 

मोटे तौर पर यहाँ कहा गया है कि श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करते हैं, अन्य लोग भी उसी का अनुकरण करने लगते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि उनके लिए न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु ही है, जो नहीं मिली इसलिए उसका प्रयास करें, फिर भी वो कर्तव्य में ही लगे रहते हैं। वो बताते हैं कि अगर वो कर्तव्य कर्म न करें तो उन्हें देखकर उनसे सीखने वाले लोग भी पथभ्रष्ट होंगे। इस तरह कर्म न करने से श्री कृष्ण पर भी सबकुछ नष्ट कर डालने की जिम्मेदारी आ जाएगी। असल में पूरे का पूरा तीसरा अध्याय ही कर्मयोग है। जैसे फिल्म वाले केशव के कर्मों का असर ग्रामीणों पर, चोरों पर और अंततः स्वयं उसपर भी हो जाता है, वैसा ही कुछ भगवद्गीता वाले केशव भी बताते हैं।

 

अगर तीसरे अध्याय की शुरुआत देखें तो वहाँ अर्जुन पूछते हैं कि केशव जब कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे भयंकर कर्म (युद्ध) में क्यों लगा रहे हैं? इस फिल्म का केशव वैद्य है और डॉक्टर के पेशे में कभी सूई लगाने में, कभी टूटी हड्डी को बिठाने में तो कभी शल्यचिकित्सा में, भयंकर कर्म तो होते ही हैं। वहाँ “अहिंसा” का सही अर्थ और कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना क्यों श्रेष्ठ है, ये भी समझ में आ जाता है। तीसरा अध्याय अपने बीसवें श्लोक की वजह से भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस श्लोक में “लोकसंग्रह” शब्द आता है, जो उपनिषदों में नहीं मिलता –

 

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20

 

यहाँ कहा गया है कि निष्काम भाव से कर्म करते हुए ही राजा जनक जैसे ज्ञानी भी मुक्त हुए, इसलिए तुम्हें लोकसंग्रह के लिए कर्म करने चाहिए। यहाँ दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो राजा जनक की चर्चा से ये पता चल जाता है कि महाभारत का काल रामायण के बाद का है। दूसरा ये कि “लोकसंग्रह” का अर्थ प्रजा के हित में, आम लोगों के हित में, दूसरे जो आपको देखकर प्रेरणा लेते हों, उनके हित में कार्य करना है। सिर्फ इस एक “लोकसंग्रह” शब्द पर दर्जनों ज्ञानियों ने लेख ही नहीं लिखे, बल्कि पूरी किताबें मिलती हैं। इसलिए कर्मों से केवल आपका लाभ हो रहा है, या वो समाज के हित में भी है, ये सोचना भगवद्गीता सिखा डालती है। ऐसे में ये केवल वन में कहीं भागकर, केवल संन्यास लेने का ग्रन्थ तो नहीं कहा जा सकता।

 

फिल्म के अंतिम दृश्य में केशव को पता होता है कि साइकिल, जो उसे दी गयी है, उसकी नहीं है। फिर भी वो सब जानकार भी सबकी पोल नहीं खोलने लगता, मुस्कुराकर टाल देता है। तीसरे अध्याय के ही इकतालीसवें और तैंतालीसवें श्लोकों में काम को मार डालने कहा गया है। “काम” के अर्थ में वो सभी चीजें आती हैं जिनका लालच किया जा सके। केवल सुन्दर स्त्री-पुरुष के शरीर तक नहीं, धन, मकान, सत्ता, प्रतिष्ठा, या पुत्र, सभी का लोभ “काम” के अंतर्गत ही आएगा। बिना लोगों के सामने प्रदर्शन किये, यश की कामना के बिना अपनी साइकिल दान कर आना ही केशव के लिए “काम का वध” था, जिसकी यहाँ बात की गयी है। उसे भी आप इस फिल्म में देख सकते हैं।

 

बाकी भगवद्गीता का तीसरा अध्याय दूसरे अध्याय की तुलना में करीब आधा ही है, जिसे आसानी से पढ़ा जा सकता है। केशव नाम के किरदार वाली मराठी फिल्म के जरिये जो बताया, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!