चंद्रकिशोर जयसवाल की उपन्यास पर एक बेहतरीन फिल्म बनी “रुई का बोझ” – फिल्म की कहानी एक बुज़ुर्ग व्यक्ति की है जो अपने परिवार से त्रस्त है। अगर आपको ये लाइन पढ़ कर अमिताभ बच्चन की बागवान या राजेश खन्ना की अवतार की याद आ रही है तो मै आपसे यही कहूँगी बस एक बार देखिये इस फिल्म को। जो ना देख पाए उनको लेकर चलती हूँ एक गाँव में। इस गाँव में एक बुज़ुर्ग अपने तीन बेटों के साथ रहता है। समय के साथ बेटों का शादी -ब्याह होता है। घर गृहस्ती से बोझ बढ़ता है और नौबत घर के बटवारे तक आ जाती है।
घर का बटवारा तो हो जाता है पर बुज़ुर्ग रहे किसके साथ ? तय होता है कि छोटे बेटे को उसकी जरुरत है तो वे उसके साथ ही रहे। कुछ दिनों तक तो बेटा -बहू खूब सम्मान देते है पर समय के साथ वो सम्मान कम होने लगता है। ऐसी स्थति में बुज़ुर्ग चिड़चिड़े से रहने लगते है। उनकी हमउम्र का एक दोस्त उन्हें समझाता है -“बूढ़े लोग रुई के गठ्ठर के समान होते हैं। शुरू मे हल्के -फुल्के पर बाद में भींगी रुई समान भरी इसलिए पारिवारिक शांति के लिए कुछ बातों को अनदेखा अनसुना करते रहना चाहिए।”
बुज़ुर्ग को यह बात समझ नहीं आई। उसे लगता है कि बूढ़ा हो जाने से क्या अच्छा खाना -पीना नहीं खाया जा सकता ?क्या अच्छा पहना नहीं जा सकता ? रोज की कलह एक दिन बाप -बेटे में ऐसी नौबत ला देता है कि बेटा क्रोध में बाप को घर के पीछे कोठरी में रहने की सजा दे देता है। इस समय फिल्म के बैकग्राउंड में जो सितार बज रहा होता है ,मानो आपके दिल को झकझोर रहा होता है… सोचिये कभी इस घर का मालिक और आज पिछवाड़े एक कोठरी में पड़ा हुआ है।
ऐसे में बुज़ुर्ग घर छोड़ने का मन बनाता है। जंगल के मठ की ओर चल पड़ता है। घर के लोगों को अपनी गलती का अहसास हो जाता है पर बुज़ुर्ग रुकता नहीं है। फिल्म का सबसे सुन्दर पार्ट यही है। बैलगाड़ी पर जाता बुज़ुर्ग ख्यालों में अपने दोस्तों से बातें करता है… उसका दोस्त कहता है -“कलयुग है पर कलयुग का यह मतलब नहीं की घर छोड़ कर भाग जाया जाय “ वापस लौट जाओ। बैलगाड़ी चल रही होती है… बुज़ुर्ग, गाड़ीवान से कहता है -“कोकन, घर से निकलते समय सोचा था अब घर नहीं लौटूँगा पर मैं अकेले कैसे रह पाउँगा ? सोच रहा हूँ दो -तीन दिन में जल चढ़ा कर लौट आऊंगा।”
गाड़ीवान कोकन कहता है -“बहुत अच्छा मालिक, हम भी यही कहने का सोच रहे थे।”
बुज़ुर्ग गाड़ीवान को डांट लगाता है तो कहा क्यों नहीं ? अच्छी बात कहने में तुमलोग इतना सोचते क्यों हो ?
फिर कहता है कि दो -तीन दिन वहाँ क्या करूँगा ? आज शाम तक ही लौट आऊँगा और अंत में उसकी यह हालत होती है कि गाड़ीवान से कहता है – “गाड़ी घुमा ले घर की तरफ। वहाँ जा कर मेरा मन बदल गया फिर ? बाल -बच्चों के बिना कैसे जिंदगी बिताऊंगा ।”
अब इस फ़िल्म में गीता कनेक्शन कुछ यूँ जोड़े,
मानो गाड़ीवान पूछता है -“मालिक आप अचानक मन क्यों बदल लिए ?”
और बुज़ुर्ग कहते है – “कोकन गीता का एक श्लोक याद आ गया”
तुल्यनिन्दास्तुतिमोर्नी संतुष्टो येन केनचित ।
अनिकेतः स्थिरमतिभक्तिरमान्मे प्रियो नरः ।।
भावार्थ :- जो निन्दा -स्तुति को सामान समझता है ,किसी भी प्रकार से शरीर निर्वाह में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में शांत चित आसक्ति रहित है ,वो स्थिरबुद्धि मनुष्य मुझे प्रिय हैं ।
गाड़ीवान फिर पूछता है -लेकिन परमधाम का क्या मालिक ?
बुज़ुर्ग कहते है ,गीता में ही कहा गया है –
यत्सांख्ये प्राप्तये स्थानं ताद्दोगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।
भावार्थ :- यानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है कर्मयोगियों को भी वही प्राप्त होता है ।इसलिए जो मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोग को एक सामान देखता है वही यथार्थ देखता है ।
नोट:-क्या मैं इस दुनियाँ का अकेला हूँ जो बूढ़ा हुआ ?क्या तुम सब कभी बूढ़े नहीं होंगे ?
ध्यान दीजियेगा इस लाइन पर और साथ ही गीता श्लोक पर।