मत खेल जल जाएगी!

बंदिनी फिल्म के एक दृश्य में अशोक कुमार और नूतन

कभी “आल इज वेल” सुना है क्या? जरूर सुना होगा, ये हाल ही में एक प्रसिद्ध सी फिल्म “थ्री इडियट्स” में सुनाई दिया था। लेकिन हम “थ्री इडियट्स” की बात नहीं करने जा रहे, हम एक पुरानी सी फिल्म की बात करने जा रहे हैं जिसमें बरसों पहले (1963 में) ये “आल इज वेल” सुनाई देता था। बिमल रॉय नाम के प्रसिद्ध फ़िल्मकार की “बंदनी” में नूतन, धर्मेन्द्र और अशोक कुमार जैसे अदाकार हैं। इसकी कहानी 1930 के दौर पर आधारित है, जब भारत में फिरंगियों के खिलाफ स्वतंत्रता का आन्दोलन चल ही रहा था।

बिमल रॉय की ये फिल्म प्रतीकों से भरी हुई है। अगर आप चटपटे (आइटम सोंग्स वाली फिल्मों) के शौक़ीन हैं, तो बहुत ध्यान से देखे बिना इसके प्रतीक नजरों से चूक जायेंगे। फिल्म की कहानी एक जेल में (1934 में) शुरू होती है जहाँ नूतन एक कैदी हैं। वो जेलर को अपनी कहानी बताती हैं, इसलिए फिल्म फ़ौरन फ़्लैश बैक में चली जाती है। बंदिनी कल्याणी (नूतन) बताती है कि उसके पिता एक गाँव में पोस्टमास्टर थे, जहाँ बिकास (अशोक कुमार) नाम का एक क्रन्तिकारी कुछ दिनों के लिए आता है। कल्याणी को बिकास से प्रेम हो जाता है। कुछ दिनों में लौटने की बात कहकर गया बिकास जब नहीं लौटता तो गाँव में लोग कल्याणी का मजाक उड़ाना शुरू करते हैं।

लोगों के तानों से परेशान कल्याणी शहर में बिकास को ढूँढने निकलती है। यहाँ वो एक मानसिक रूप से कमजोर, सनकी सी औरत के घर में काम करने लगती है। रहने-खाने का इंतजाम हो जाने पर जब वो बिकास को तलाश करना शुरू करती है तो उसे पता चलता है कि जिस पागल सी औरत के घर वो केयरटेकर की नौकरी करती है, वो बिकास की पत्नी है! गुस्से में पागल कल्याणी उसे जहर देकर मार डालती है। अदालत से उसे इसी जुर्म में उम्रकैद हुई थी। पहला प्रतीकों का इस्तेमाल कल्याणी के हत्या करने के फैसले में दिखेगा। यहाँ वो किसी से संवाद नहीं कर रही होती। एक वेल्डिंग करने वाले की टोर्च के जलने बुझने से उसे चेहरे पर रौशनी पड़ती और हटती रहती है। पीछे से घन और लोहे पर हथौड़ी की चोट की आवाज आती रहती है।

कल्याणी बहुत भली सी, अपना सब कुछ न्योछावर करने वाली लड़की है, गुस्से में उसकी स्थिति क्या है ये रौशनी के पड़ने और बुझने से, साथ ही पीछे से आ रही लोहे पर चोट पड़ने की आवाज से दर्शाया जाता है। इसके अलावा फिल्म में दूसरे प्रतीक भी हैं। जैसे जेल के डॉक्टर (धर्मेन्द्र) को कल्याणी से प्यार हो जाता है। इन दोनों की मुलाकात के जितने भी दृश्य फिल्माए गए हैं उन सब में ये दोनों कभी आमने सामने नहीं मिलते। इन दोनों के बीच कभी एक जाली सी, कभी किसी दरवाजे कि ओट जैसी कोई ना कोई चीज़ बीच में होती है। ये प्रतीक दिखा रहा होता है कि कल्याणी और डॉक्टर के बीच में कुछ है (पुराना प्रेमी बिकास) जो इन दोनों का मिलन नहीं होने दे रहा।

फिल्म को उसके गीतों के लिए भी देखा जा सकता है। “मेरे साजन हैं उस पार” एक काफी लोकप्रिय गीत रहा है। इसके अलावा “ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना” भी इसी फिल्म का है। इसमें “अब के बरस भेजो भईया को बाबुल” और “मोरा गोरा अंग लई ले” जैसे गीत भी हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे “मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे” वाला गीत भी पसंद है। इस गाने को फांसी की सजा पाए कुछ क्रांतिकारियों पर फिल्माया गया है, जो फांसी के फंदे की तरफ ये गीत गाते बढ़ते हैं। बिमल रॉय की फिल्मों में प्रतीकों का इस्तेमाल कैसे होता है, ये समझना हो तो आप ये फिल्म देख सकते हैं। फिल्म के अंत में क्या होता है, ये बताकर फिल्म का स्वाद खराब नहीं करना चाहिए इसलिए अंत या पूरी कहानी नहीं बताई है। खुद देखकर तय कीजिये कि अच्छी थी या बुरी।

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जहाँ तक “आल इज वेल” का सवाल है, जब कल्याणी जेल में होती है ये उस वक्त सुनाई देता है। फिल्म में नायिका कारागार में “बंदिनी” है और पीछे से उसकी स्थिति का मजाक उड़ाने, या कहिये कि हौसला बंधाने जैसा किसी सुरक्षाकर्मी के “आल इज वेल” चिल्लाने की आवाज आती है। बाकी प्रतीकों का इस्तेमाल फिल्म देखकर समझिये वैसे हमेशा की तरह हमने आपको फिल्म के बहाने, धोखे से भगवद्गीता के श्लोक पढ़ा दिए होंगे, ये अंदाजा अगर हो गया हो तो चलिए देखते हैं कि भगवद्गीता में “क्रोध” जो कि “बंदिनी” के जेल में होने का कारण था, उसके बारे में क्या कहा जाता है।

भगवद्गीता का दूसरा अध्याय, बाकी के अध्यायों कि तुलना में काफी लम्बा है। आदिशंकराचार्य भी अपनी व्याख्या दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक से ही शुरू करते हैं (इससे पहले के श्लोकों की उन्होंने व्याख्या नहीं की है)। दूसरे अध्याय के छप्पनवें श्लोक में स्थितिप्रज्ञ के बारे में बताया गया है –
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56
मोटे तौर पर इसका मतलब है कि दुःख में जिसका मन विचलित ना हो, ना ही सुखों की कामना बची हो, राग-द्वेष, भय और क्रोध जैसी चीजें जिसके लिए नष्ट हो गयी हों, वो स्थितिप्रज्ञ कहलाता है। जेल में जब आप कल्याणी को देखेंगे तो पायेंगे कि उसपर अधिकांश चीज़ों का कोई असर ही नहीं होता। वो मजाक उड़ाये जाने पर, या किये जाने पर ना तो हंसती है, ना दुखी होती है। उसे जेल में से छोड़ते वक्त जेलर कहता है “अब घर-गृहस्ती की कैद में रहना”, यानी वो कैद से कभी बाहर नहीं आ रही। जेल का डॉक्टर उससे प्रेम करता है, वो उससे भी प्रभावित नहीं हो रही। बिकास का प्रेम जो उसके मन में है, वो तो असर करता? इन सबका उसपर पड़ने वाला प्रभाव देखिये तो समझ में आ जायेगा कि स्थितिप्रज्ञ किसे कहा गया है।

मौन का प्रयोग भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में (17.16) भगवान श्री कृष्ण तपस्या के से अर्थ में करते हैं। बंदिनी के मौन में वो भी दिखेगा। साधक को लगातार प्रयास करने पड़ते हैं (भगवद्गीता 3.19), डॉक्टर के प्रयास और कल्याणी के मौन में सतत प्रयास भी दिख जायेगा। जहाँ तक क्रोध का प्रश्न है उसे दूसरे अध्याय में ही बासठवें श्लोक में देखिये –
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62
इसमें (मोटे तौर पर) कहा गया है कि जिस विषय में आप निरंतर सोचते हैं, उसमें आसक्ति होती है, आसक्ति से इच्छा और इच्छा के पूरे ना होने पर क्रोध पैदा होता है। कल्याणी का बिकास के बारे में सोचना, उसे पाने की इच्छा से गाँव से शहर आकर एक नौकर की सी भूमिका में आना, उसके विवाहित यानी अनुपलब्ध होने पर क्रोध में उसकी पत्नी को जहर दे देना, सीधे सीधे दूसरे अध्याय का बासठवां श्लोक है। इसके अगले श्लोक में भी क्रोध का ही जिक्र है –
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63
यहाँ कहा गया है क्रोध से मूर्खता उपजती है जिससे स्मृति भी नष्ट हो जाती है, स्मृति ना होने से बुद्धि-विवेक जाता रहता है। बुद्धि के नाश से मनुष्य का पतन निश्चित है। कल्याणी क्रोध में भूल जाती है कि हत्या दंडनीय अपराध है और वो बिकास की पत्नी को जहर दे देती है। मानसिक रूप से अक्षम पत्नी से तलाक लेकर वो उससे विवाह कर सकता है, या करना चाहता होगा, ऐसी बातों का उसे एक बार भी ख़याल नहीं आता। अपने सब न्योछावर करने वाले स्वभाव के ठीक विपरीत जाकर वो हत्या कर डालती है, जिसका दंड वो “बंदिनी” के रूप में भोगती है। क्रोध की स्थिति में भगवद्गीता के ये तीन श्लोक हमेशा महत्वपूर्ण हैं और अगर आप स्वयं पढ़ें तो जैसे सत्रहवें या तीसरे अध्याय के सन्दर्भ दिए वैसे दूसरे सन्दर्भ भी दिख जायेंगे।

बाकी ये जो बताया वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा, ये तो याद ही होगा?

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