भालु कम्बल और भगवद्गीता

तो कहानी है एक साधु महाराज और उनके चेले की जो वनों-पर्वतों में स्थित किसी आश्रम से ग्राम-नगरों की ओर जा रहे थे। सन्यासी नियमतः बरसात के मौसम में कहीं ठहरे रहते हैं और बाकि समय भ्रमण करते हैं, ये तो पता ही होगा, इसलिए बरसात के तुरंत बाद ही निकले थे। चुनांचे जिस नदी के किनारे-किनारे चले जा रहे थे वो भी लबालब भरी थी। शिष्य ने नदी की ओर देखा तो उसे एक काला कम्बल सा बहता दिखाई दिया। शिष्य ने गुरु से कहा, महाराज नदी से मैं वो कम्बल निकाल लाता हूँ, हमलोगों के काम आ जायेगा, ऐसे तो बहा जा रहा है! साधु तो लोभ आदि से मुक्त थे मगर शिष्य की इच्छा देखकर उन्होंने कहा “यथेच्छसि तथा कुरु” – तुम्हारी इच्छा है तो निकाल लाओ!

शिष्य नदी में उतरा, जल्दी-जल्दी तैरता हुआ तीव्र बहाव में भी कम्बल तक जा पहुंचा। लेकिन ये क्या! असल में वो कोई कम्बल नहीं था। किसी तरह कोई भालु नदी में गिर गया था और बहा जा रहा था। डूबते को तिनके का सहारा! जैसे ही शिष्य निकट पहुँचा, डूबते भालु ने उसे धर दबोचा और उसी के सहारे बचने का प्रयास करने लगा। शिष्य भालु के भार से डूबने लगा और जब किनारे, दूर खड़े साधु को लगा कि शिष्य तो डूब रहा है तो वो चिल्लाये, अरे कम्बल यही भारी है, तुम खींच नहीं पा रहे तो उसे छोड़ क्यों नहीं देते? डूबते शिष्य ने चिल्लाकर अंतिम उत्तर दिया, महाराज मैं तो कम्बल छोड़ने का लाख प्रयास कर ही रहा हूँ, अब ये कम्बल मुझे नहीं छोड़ता!

अगर #भगवद्गीता के अनुसार देखें तो सातवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में माया तो गुणों के अनुसार कार्य करने वाला बताया गया है –

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14

यहाँ भगवान कहते हैं कि मेरी यह दैवी त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं। इस बिलकुल सीधे से श्लोक में ऐसा लग सकता है कि भगवान तो केवल अपनी शरण में आ जाने के लिए कह रहे हैं, लेकिन ध्यान माया के “गुणमयी” होने पर देना है। कौन से गुण हैं माया के ये सोचते ही दिखेगा कि आदिशंकराचार्य तो अपने भाष्य में त्रिगुणात्मिका बता रहे हैं माया को, अर्थात तीन गुण होते हैं। माया तीनों गुणों का प्रयोग कर सकती है – सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी तीनों हो सकती है ये याद आ जाएगा।

इनमें से रजोगुण यानी धन-संपत्ति, कपड़े-जेवर या संतति और बंधु-बांधव इत्यादि के माध्यम से आये तो रोकना है, ये याद रहा। तमोगुण का तो स्पष्ट ही पता था, द्वेष, क्रोध, अहंकार, आलस्य आदि थे। सतोगुणी भी होती है यानी दया, करुणा, सत्यनिष्ठा आदि के माध्यम से भी माया आकर घेर सकती है, ये भी याद रखना होगा। हमारे लिए तीन गुणों वाली माया बदलकर केवल दो गुणों वाली हो जाए, सतोगुणी न रह जाए, ऐसा नहीं होने वाला। तीन गुण हैं तो तीन ही रहेंगे, किसी के लिए नियम भंग #नहीं होगा। अवतारों के लिए नहीं होता, सन्यासियों-ऋषियों के लिए नहीं होता, हमारे लिए क्यों होगा?

कई बार भगवद्गीता को उपनिषदों का सार कहा जाता है। पीछे उपनिषदों में ढूँढने पर भी माया त्रिगुणात्मक होती है ये मिल जायेगा। श्वेताश्वतर उपनिषद (4.10) में देखे सकते हैं। तो एक बार फिर से दोहरा दें कि माया केवल रजोगुणी और तमोगुणी नहीं, सतोगुणी भी होती है। आगे भगवद्गीता में तेरहवें अध्याय में बताया गया है –

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।13.30

यानी जो सभी कर्मों को हर तरह से प्रकृति द्वारा ही किये गये और आत्म को अकर्ता देख ले, (वास्तव में) उसी ने देखा। यहाँ समझ में आने लगेगा कि किसी को लोभी-चोर (रजोगुणी), आलसी-अहंकारी (तमोगुणी) देखा तो वहाँ तो माया है ही, संभवतः जिसे साधु कहा था न, वो भी माया ही है, क्योंकि माया तीनो गुणों से युक्त थी और प्रकृति के माध्यम से सक्रियता दिखा रही थी।

ओह हाँ, कोई कहने लगे कि ये तो केवल पुरुषों के लिए है, स्त्रियों के लिए तो है ही नहीं, तो उसे व्हाट्स-एप्प यूनिवर्सिटी के बदले ढंग की पुस्तकों से पढ़कर आने अवश्य कहें। क्या है कि इस श्लोक में जो “पश्यति” क्रिया है, वो प्रथम पुरुष, एकवचन है – स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग तीनों पर पश्यति ही लगता है। भेदभाव करने वाला, स्त्रीलिंग-पुल्लिंग में बाँटने वाला तो बेचारा अनुवादक था, क्योंकि संभवतः वो स्वयं भी पुरुष था और नयी-नवेली भाषा हिन्दी की भी सीमाओं से बंधा था। हिंदी में नपुंसक लिंग डाल ही नहीं सकता था तो अपनी सुविधा से पुल्लिंग कर लिया है!

बाकी कहानी के आरम्भ में जो “यथेच्छसि तथा कुरु” लिखा है, वो भी #भगवद्गीता (18.63) से ही है, लेकिन हम जितना बता पाएंगे, वो सब नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए भगवद्गीता आपको स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा।

#गीतायन #Geetayan