कहानी बस इतनी सी थी कि एक व्यक्ति पौ फटने से पहले ही (यानि 3-4 बजे सुबह) एक गठरी सी दबाये गाँव से नदी के घाट की ओर जाते मार्ग पर तेजी से चला जा रहा था। उसे एक युवक देखता है जो किसी पड़ोस के गाँव की युवती से प्रेम करता था। देखते ही युवक सोचता है कि अवश्य ये कोई प्रेमी है जो अपनी प्रेमिका से मिलने उसके लिए कुछ उपहार इत्यादि लिए आया था। सुबह होने से पहले ही प्रत्युत्तर में मिले उपहारों की पोटली दबाये वापस अपने गाँव की ओर भागा जा रहा है। कोई और अपनी प्रेमिका से मिल पा रहा है, इस बात से युवक जल-भुन भी गया। नदी की ओर जाते इसी व्यक्ति को एक चोर ने भी देखा। उसने सोचा ये भी कोई चोर है और रात कहीं से बड़ा हाथ मारकर आया है। अब जेवरों की पोटली दबाये वापस भागा जा रहा है। इसी नदी की ओर जाते व्यक्ति को एक साधू ने भी देखा। उसे लगा संभवतः अपनी साधना इत्यादि पूरी करके ब्रह्म मुहूर्त से पहले लौट रहा कोई सन्यासी है। नदी की ओर जाते व्यक्ति को इन तीनों बातों से कोई मतलब नहीं था। उस यात्री को दूर जाना था, इसलिए वो सुबह घर से जल्दी निकला और घाट की ओर नदी पार करने के लिए जा रहा था।
आपको क्या दिखाई दे रहा है ये केवल दृश्य पर निर्भर नहीं है, दृग और विवेक के बदलते ही दृश्य भी बदल जायेगा। इसलिए फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि फिल्म जब बनती है तब तो वो एक फिल्म होती है, लेकिन जब लोगों ने वही एक फिल्म देख ली, तो जितने लोगों ने वो फिल्म देखी, उतनी फिल्में बन जाती हैं। इसे समझना हो तो हाल के दौर की विवादित रही फिल्मों के बारे में सोचिये। जैसे अभी हाल में “एनिमल” फिल्म काफी विवादों में रही। आम आदमी इस फिल्म को देख देखकर इसे हजार करोड़ की बॉक्स ऑफिस कलेक्शन दिलवाने पर लगा था लेकिन राजनीतिक प्रेरणाग्रस्त समीक्षक इसकी कड़ी से कड़ी निंदा करने में जुटे थे। फिल्म समाज का आइना होती है, फिल्मों में जैसे लोग दिखते हैं, वैसे वास्तविक जीवन में भी होंगे, ये सब कहने वाले तथाकथित समीक्षक “एनिमल” फिल्म की चर्चा करते समय अपने ही पुराने जुमले भूल गए। फिल्म का नायक हिंसक है, ये बात तो “ए” रेटिंग से ही पता चल गयी थी, फिर समीक्षा में इसे लिखने की जरूरत क्या रही होगी?
इस विषय पर सोचते ही आपको समझ में आ जायेगा कि असल में हम जो समीक्षा देख/पढ़ रहे होते हैं, वो कोई निष्पक्ष समीक्षा होती ही नहीं। वो राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होगी ही, क्योंकि वो मार्क्सवादी समीक्षा होती है। तथाकथित इतिहासकारों के परिचय में भी आपको ऐसा ही मार्क्सवादी इतिहासकार देखने को मिल जायेगा। इनका निष्पक्ष होना तो संभव नहीं। निष्पक्ष रूप से फिल्मों-नाटकों को देखना हो तो आपको भारतीय पद्दति की समीक्षा को पढ़ना-समझना पड़ेगा। इसमें अंतर तुरंत ही पता चलता है। जो भारतीय पद्दति है, उसमें नाटक इत्यादि के लिए आठ रस माने जाते हैं। साहित्य में नौ रस मिलेंगे लेकिन भरतमुनि या धनञ्जय जब नाटकों-रूपकों की बात करते हैं तो वो केवल आठ – श्रृंगार, हास्य करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स तथा अद्भुत को मानते हैं। साहित्य वाले एक नौवां रस – शांत, जोड़ते हैं जैसे महाभारत को शांत रस का माना जाता है लेकिन वो महाकाव्य पर, साहित्य पर लागू होता है, नाटकों के प्रकार पर लागू नहीं होता। कोई भी फिल्म, नाटक आदि इन्हीं आठ रसों में से ही किसी पर आधारित हो सकती है।
नाटकों-फिल्मों में एक ही रस प्रधान होता है, उसे अंगी रस कहते हैं। समय समय पर मुख्य रस के साथ जो दूसरे रस आते हैं उन्हें अंग रस कहा जाता है। फिल्मों के कॉमेडियन के जरिये इसे भी आसानी से समझा जा सकता है। वैसे तो कोई फिल्म मार-धाड़ से परिपूर्ण होगी, लेकिन उसमें थोड़ी देर के लिए कोई हास्य कलाकार हंसा जाये, ऐसा होता ही है। तो मुख्य रस वीर रस अंगी रस कहलायेगा, लेकिन थोड़ा सा हास्य रस भी है। अब प्रश्न है कि रस उत्पन्न कैसे होता है? इसके लिए ये माना जाता है कि दर्शक-श्रोता या पाठक के अन्दर भाव पहले से होता है। उसी भाव को जगा देने से रस की अनुभूति होती है। हर रस का एक स्थायी भाव होता है जैसे हास्य के लिए हास, शृंगार के लिए रति, भयानक के लिए भय या फिर अद्भुत के लिए विस्मय भाव का होना आवश्यक होता है। किसी 4-5 वर्षीय बालक-बालिका को बिठाकर “आशिक बनाया आपने” वाला गाना दिखा भी दें, तो उसके अन्दर रति का भाव आने लायक शारीरिक-मानसिक क्षमता नहीं है, अनुभव नहीं है, तो शृंगार रस का तो बोध उसे होगा नहीं। किसी वयस्क को एनिमेटेड फिल्म से वैसे विस्मय का बोध नहीं होगा जैसा विस्मय बच्चा उड़ते हुए सुपरमैन को देखकर करता है। ऐसे में अद्भुत रस की अनुभूति कितनी होगी? एनिमल फिल्म को देखकर जुगुप्सा का भाव जागता है तो वो वीभत्स रस है और फिल्म बनाने वाले इस रस को जगाने में तो निःसंदेह सफल हुए हैं।
जैसे ही “पुष्पा” या फिर “एनिमल” जैसी फिल्मों में आप वीभत्स रस देखते हैं तो जुगुप्सा का भाव जागना ही है। भारत में वर्षों से पहले तो वीभत्स रस की फिल्में बनती ही नहीं थीं, फिर उनकी समीक्षा भी भारतीय दृष्टि से न होकर कहीं विदेशों से आयातित मार्क्सवादी दृष्टिकोण से हो रही थी। इसकी वजह से उन्हें पचाने में दर्शकों को दिक्कत तो होनी ही थी। कुछ ऐसा ही रौद्र रस में भी होगा। रौद्र रस तभी उत्पन्न होगा जब स्थायी भाव क्रोध हो। हाल में “डेढ़ इश्किया” आई थी जिसकी नायिका अपने पति द्वारा छले जाने पर क्रुद्ध है। परिणाम? जो रास्ते में आया वो सबको मिटाती जाती है। अगर “बदलापुर” देखेंगे तो पत्नी-बच्चे की हत्या और दोषियों को दंड न मिलने से क्रुद्ध नायक है। रौद्र रस है जिसमें रास्ते में आने वाली हर व्यक्ति/वस्तु को वो बाधा मानकर मिटाता जाता है। उससे दया की अपेक्षा कैसी? वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड को रौद्र रस का उदाहरण माना जाता है। वहाँ हनुमान जी से ये मूर्खतापूर्ण अपेक्षा तो की नही जा सकती है कि दोषी तो रावण था, केवल उसका महल जलाते, पूरी लंका क्यों जला दी?
एक प्रश्न ये भी उठ सकता है कि “एनिमल” का नायक भी तो क्रुद्ध है। पिता पर हमला करने वालों को मारे जा रहा है तो फिल्म को रौद्र रस का क्यों नहीं मान लिया जाए? कहानी देखते ही आपको पता चल जायेगा कि नायक अपने पिता का प्रेम पाना चाहता है। जब कई प्रयासों में भी वो सफल नहीं होता तो भी वो ये नहीं मानता कि पिता का ध्यान व्यापार पर था, इसलिए उसे समय नहीं दिया। वो मानकर बैठा है कि मेरी ही तपस्या में कोई कमी रह गयी होगी। स्वयं को हेय मानता है, अपनेआप से घृणा कर रहा है। इसलिए वो ये सिद्ध करने पर तुला है कि पिता मुझमें जो कमियां मानते हैं, वो सचमुच मुझमें हैं! स्वयं से घृणा, किसी और पर क्रुद्ध नहीं है, यानी जुगुप्सा के भाव में ही तो है न? नायक अपने बच्चों पर या अपनी पत्नी पर क्रोध नहीं दर्शाता है। उल्टा जैसे ही उससे बच्चे ने पूछा की क्या आप लोग झगड़ा कर रहे थे, फौरन उसका व्यवहार, उसकी भाव-भंगिमा बदल जाती है। इसकी तुलना में डॉक्टर जब उसके मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जानना चाह रही होती है तो ऐसी बातें करता है कि वो घिन के मारे वहाँ से उठ भागे। अपनी बहन को उसी के पति की हत्या की खबर रस ले-ले कर ऐसे सुनाता है कि दर्शक के मन में जुगुप्सा जागे। ये वीभत्स रस है।
मार-धाड़ से भरपूर फिल्म होने और युद्ध में अंततः नायक के ही विजयी होने के कारण ऐसा भी लग सकता है कि “एनिमल” फिल्म वीर रस की होगी। वीर रस का होने के लिए स्थायी भाव उत्साह होना चाहिए। क्या फिल्म में उत्साह का भाव है? प्रश्न सुनते ही कुछ मासूम बच्चे जल्दबाजी में हाँ-हाँ करना चाहेंगे लेकिन जरा ठहर जाइए। उत्साह कैसा भाव होता है, फिल्म में कैसे जाग सकता है, उसे समझना हो तो जरा “बाहुबली” फिल्म याद कर लीजिये। उसके एक दृश्य में मूर्ती स्थापित की जा रही होती है, उसे कोड़े खाते श्रमिक-ग्रामीण जैसे तैसे खींच रहे होते हैं कि मूर्ती गिरने लगती है। अचानक उसी समय नायक का प्रवेश होता है। याद आ गया होगा, उसे देखकर एक श्रमिक बाहुबली कहता है और फिर पिटाई की परवाह किये बिना श्रमिक उत्साहित हुए मूर्ती को खींचकर सीधा कर डालते हैं। क्या भाव आया था उसे पहली बार देखने पर याद आया? “कान्तारा” फिल्म के अंतिम दृश्य में एक फूंक पर नायक का पुनः उठ खड़ा होना भी याद कर सकते हैं। उसे देखकर जो भाव आता है, वो उत्साह है। वो भाव “एनिमल” में कहीं एक-आध दृश्य में जागे भी तो स्थायी भाव तो नहीं है।
इतने के बाद यदि ये सोचने में लगे हैं कि आखिर इतनी सफल फिल्म क्यों बन गयी? इतऩा आसान क्यों हो जाता है ऐसी फ़िल्में बनाना? तो आइये नाट्य शास्त्र से निकलकर भगवद्गीता पर चलते हैं। सोलहवें अध्याय का नाम ही देवासुर सम्पद विभाग योग है। इसके शुरू में ही आपको दैवी और आसुरी गुणों के बारे में पता चल जाएगा। यहाँ आप देखेंगे कि देवी गुण अपनाने हो तो कई बातें अपनानी होंगी, लेकिन आसुरी होना है तो केवल छह ही पर्याप्त हैं –
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥
यानि कि पार्थ ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है। ये श्लोक देखते ही अर्थ समझने की एक दूसरी समस्या हो सकती है। क्रोध बुरा हो सकता है, क्रोध होगा तो कठोर शब्द या अपशब्द (पारुष्य) निकलेंगे, और अक्सर क्रोध अज्ञान से जन्मता है या अज्ञान को जन्म देगा ये तीन तो ठीक हैं। समस्या ये है कि दम्भ, दर्प और अभिमान तीनों तो घमंड के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं! एक ही बात भला तीन बार क्यों कहनी? अहंकार के लिए इनमें से कोई एक शब्द भी प्रयुक्त होता तो प्रयाप्त था! क्या श्लोक का अलंकार-छंद पूरा करने के लिए तीन बार बोल-लिख दिया? शब्दों और उनके अर्थों में अंतर कैसे होता है, इसपर ध्यान दिया तो स्पष्ट हुआ कि तीन बार क्यों है। घमंड अच्छाई का भी हो सकता है और बुराई का भी। अब जैसे हम स्वयं पहले दर्जे के कपटी हैं। “मो सम कौन कुटिल खल कामी” संभवतः हमें देखकर ही लिखा गया होगा। जब दिखाने की बात आती है तो हम ऐसा दिखावा करते हैं कि हम तो भोगी नहीं योगी हैं!
ये जो साधक या विद्वान न होने पर भी अपने को गुणी दर्शाना है ये “दम्भ” कहलाता है। दम्भ दुर्गुणों को लेकर भी हो सकता है। जैसे कि हैं तो चार दिन में एक बार पानी छूने वाले लेकिन दर्शाया कुछ ऐसे जैसे सूर्योदय से पूर्व ही स्नान-ध्यान करके तैयार होते हों। या खान-पान में दुराचारी हैं लेकिन दिखाया ऐसे कि शुद्ध-सात्विक शाकाहारी हों, तो ये दुर्गुणों को ढकने वाला “दम्भ” हुआ। यानि कि दम्भ दो प्रकार का हो सकता है, एक सदाचार को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता हुआ और दूसरा दुराचार को ढकने वाला। अब बारी आती है स्थूल और सूक्ष्म की। जिन्हें छूकर, देखकर या कहिये इन्द्रियों से आसानी से महसूस कर लें वो स्थूल यानि टैंजिबल है और जो केवल भाव हैं उन्हें सूक्ष्म या इनटैंजिबल कहा जाता है। भूमि-भवन का स्वामित्व जैसे कि स्थूल हुआ। मेरे पास इतना सोना-चांदी है, इतने अच्छे कपड़े हैं, मेरे साथ इतनी भीड़ चलती है, ये सभी स्थूल हुए। इनके लिए जो घमंड आएगा वो “दर्प” है। इसकी तुलना में जाति या सत्ता में पैठ, बड़े लोगों से पहचान जैसी चीजें सूक्ष्म हैं और उनके लिए जो ठसक होती है, उसे “अभिमान” कहेंगे।
सिर्फ इन छः बातों को ही दर्शाना था इसलिए फिल्म के पात्र आसानी से गढ़े जा सकते थे। इनके अलावा अगर लेख के शुरुआत वाले हिस्से में आपका ध्यान “दृग और विवेक बदलने से दृश्य बदलता है” वाली बात पर गया है तो बता दें “दृग दृश्य विवेक” शंकराचार्य की रचना है और दर्शन शास्त्र में रूचि हो तो पढ़ सकते हैं। बाकी भारतीय दृष्टि से देखने पर समीक्षकों और जनता की पसंद अलग-अलग नहीं होगी, विदेशी तरीकों से सोचने पर मास और क्लास की बाइनरी क्रिएट होती है, ये समझाते-समझाते जो भगवद्गीता के बारे में बताया, वो नर्सरी के स्तर का है। पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!
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