कहानी के नायक भुवन सोम एक विधुर हैं और रेलवे के बड़े अधिकारी। इन बातों पर आपका ध्यान इसलिए चला जायेगा क्योंकि इनकी पुरानी कहानी, इनका परिचय सुना रहे सूत्रधार कोई और नहीं अमिताभ बच्चन हैं। उस वक्त तक अमिताभ बच्चन एक ही फिल्म में दिखाई दिए थे, इसलिए आवाज होने को फिल्म में होना मानें तो ये अमिताभ की दूसरी फिल्म होगी। सख्त से अफसर भुवन सोम (उत्पल दत्त) के बारे में शुरू में ही बता दिया गया है कि उनका बंगालीपना वर्षों बाहर रहने के बाद भी गया नहीं। रेलवे के इस अधिकारी का आतंक और उसकी हरकतें फिल्म की शुरुआत में ही दिख भी जाती हैं। काम से थोड़ा उबकर, पारिवारिक स्थिति से थोड़ा खिन्न ये अफसर भुवन सोम एक दिन गुजरात में कहीं छुट्टियों पर जाने की सोचता है। उसका इरादा था कि वो शिकार करेगा और अपने हिसाब से उसने कोई बड़े पशु भी शिकार के लिए नहीं चुने, बल्कि छोटी चिड़ियों के शिकार की उसकी योजना थी।
छुट्टियों और शिकार के लिए भुवन सोम उत्साहित तो होते हैं लेकिन शिकार सीख लेने में न तो उनकी कोई रूचि होती है, न ही क्षमता दिखती है। धीमी गति से बढ़ती फिल्म में उनकी मुलाकात गौरी नाम की एक युवती से होती है। वो पक्षियों का शिकार सीखने में उनकी मदद करती है और बुजर्ग हो चले भुवन सोम का ध्यान रखती है। धीरे-धीरे शिकार सीखने में भुवन सोम बदलता जाता है और उसके बदलने की कहानी ही ये फिल्म है। पक्षियों का आकाश में उड़ना, झील आदि का सौन्दर्य उसे दिखने लगता है। मूलतः फिल्म भुवन सोम की सीमाओं, उसके अतिक्रमण को दिखाती है। कैसे वो गौरी से प्रभावित होता जाता है, वापस लौटने पर कितना बदला हुआ होता है, ये दिखता है। शुरू में जिस रेलवे कर्मी के बारे में वो रिपोर्ट लिख रहा था, उसका क्या होता है, इसपर फिल्म खत्म हो जाती है।
जाहिर सी बात है फिल्म की कहानी के बदले हमने फिर सी भगवद्गीता सुना दी होगी। ये फिल्म आपका ध्यान दूसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक पर ले जाएगी –
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13
मोटे तौर पर इस श्लोक में कहा गया है कि जैसे शरीर में बचपन, यौवन और वृद्धावस्था के परिवर्तन होते हैं बिलकुल वैसा ही देहांतर (मृत्यु) भी है और इस विषय में भ्रमित या मोहित नहीं होना चाहिए। थोड़ा ध्यान देने पर आपको ये भी समझ आ जायेगा कि एक बार शरीर बचपन से यौवन में या यौवन से वृद्धावस्था में प्रवेश कर जाए तो वापस जाने का कोई उपाय नहीं रहता। शरीर से जुड़े हुए जो मन और बुद्धि जैसे उपक्रम हैं, उनपर भी यही नियम लागू होगा। बचपन में जो खेल-खिलौने बहुत प्रिय थे, उनमें यौवन में कौन सी रूचि रह जाती है? ऐसे ही यौवन में जो विषय पसंद आते, उनके बारे में वृद्ध सोचेगा क्या? एक बार उस अवस्था से निकल जाने पर वापस उसी अवस्था में लौट जाने का कोई उपाय नहीं बचता? अब जरा भुवन सोम के बारे में सोचकर देखिये।
वो यौवन को पार करता हुआ जिस अवस्था में पहुंचा हुआ है, उसमें कुछ भी नया सीखना संभव नहीं। फिल्म के अंत में वो जैसी बच्चों की सी सरल अवस्था में है, वो अतिक्रमण हुआ कैसे? इसके लिए छठे अध्याय का चौवालीसवाँ श्लोक देखिये –
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44
यहाँ सन्दर्भ ये है कि अर्जुन उनके विषय में पूछते हैं जिनका योगाभ्यास अधूरा छूट गया हो। वो जानना चाहते थे कि किसी कारणवश अगर योगी ने अभ्यास पूरा न किया हो तो क्या वो वैसे ही छिन्न-भिन्न हो जायेगा जैसे तेज हवा चलने पर बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं? क्या उसका योगाभ्यास नष्ट हो जाये, अगले जन्म में वो शून्य से आरम्भ करेगा? इसके उत्तर में भगवान बताते हैं कि ऐसा नहीं होता। पूर्व के अभ्यास के कारण इस जन्म में उसे सहज ही ऐसी अवस्थाएँ मिलती हैं, जहाँ से आगे बढ़ने का मार्ग सरल हो। इसे ऐसे समझ लीजिये कि किसी का जन्म ऐसी ही अवस्था, समय या देश में कैसे हो जाता है जब आसानी से उसके लिए सब उपलब्ध हो जाए?
कबीर, पीपा, रविदास, सुरसुरी, पद्यावती सभी के सभी उसी काल में कैसे जन्म ले लेते हैं जब सहज ही उनको स्वामी रामानंदाचार्य जैसे गुरु मिल जाएँ? कथित रूप से तो स्त्रियों को शिक्षा ही नहीं दी जाती थी, फिर क्या हुआ होगा जो सुरसुरी और पद्यावती जैसी शिष्याएं भी उसी समय जन्मीं और स्वामी रामानंदाचार्य से सीख पायीं? हरिहर और बुक्का उसी काल में क्यों थे जब स्वामी विद्यारण्य उनका वापस धर्मपरिवर्तन करवाकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवा लेते हैं? छत्रपति शिवाजी उसी काल में कैसे जन्म ले लेते हैं जब समर्थ गुरु रामदास मौजूद हों? रैंडमली, बिना किसी नियम तो ये नहीं होता होगा। ईश्वर कोई पागल तो हैं नहीं जो जैसे तैसे संसार चलने के लिए छोड़ देंगे। फिल्म के भुवन सोम के साथ यही हो रहा है।
पहले तो वो अपने-आप ऐसे काम में जुट जाता है, जिसमें पहले से न तो उसकी कोई रूचि थी, न कोई प्रशिक्षण। वहाँ जाते ही उसके लिए सुविधाएँ भी अपने आप जुट जाती हैं। इतना पूरा नहीं था तो जरा से अभ्यास में ही वो मन-बुद्धि की सीमाओं का अतिक्रमण भी कर जाता है। सख्त सा जैसा अफसर वो था, उस मानसिक अवस्था से बदलकर वापस वो उसी सरल रूप में आ जाता है जो कभी वो बचपन में रहा होगा। यहाँ थोड़ा सा स्मृति की भूमिका के बारे में भी सोच सकते हैं। जैसे मेरे खाना खाने से किसी और को पोषण नहीं मिल सकता वैसे ही मेरे अनुभव किसी और की स्मृति में नहीं आ सकते। अपने पुत्र की स्मृति माता के मन में भी आये तो उसके बचपन को वो माँ के रूप में याद कर पाएगी। बच्चे को जो अनुभव हुआ था, वो केवल उसी व्यक्ति की स्मृति में है। शरीर बदलने पर भी छठे अध्याय के चौवालिसवें श्लोक का यही नियम लागू होगा। आपका स्वाध्याय, आपकी स्मृति, आपका योगाभ्यास, आपका मोक्ष सब केवल आपका है। उसे किसी और को दे नहीं सकते, ट्रान्सफर नहीं कर सकते।
बाकी फिल्म की कहानी के बहाने जो बताया वो केवल नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं पढ़ना पड़ेगा, ये तो याद ही होगा!
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