साहब बीवी और गुलाम – गुरुदत्त और माया

हिन्दी सिनेमा में जब कलात्मक फिल्मों की बात होती है तो गुरुदत्त का नाम अपने आप ही याद आ जाता है। श्वेत-श्याम फिल्मों के जिस दौर में उनकी फ़िल्में आती थी, उस समय उन्हें फिल्मों में प्रसिद्धि तो मिली लेकिन धन नहीं। उनकी कई फ़िल्में अपने आने के दौर में फ्लॉप हुईं, मगर अब उन्हें दर्शक भी चाव से देखते हैं। समीक्षक और सिनेमा के छात्र तो खैर पहले भी उनकी बनाई फ़िल्में देखते ही हैं। अपने दौर में ऐसी ही एक फिल्म “साहेब बीवी और गुलाम” आई थी जो उस वक्त तो फ्लॉप रही, मगर अपने संगीत और निर्देशन की वजह से आज भी देखी जाती हैं। अगर गुरुदत्त की फिल्मों का असर देखना हो तो आज के दौर के भारतीय टीवी सीरीज देख लीजिये। किसी भावना को दर्शाने के लिए चेहरे का नजदीक से शॉट लेना, गाने ऐसे जो कहानी के कुछ हिस्से का अंदाजा देते हों, ये दोनों ही गुरुदत्त के “सिग्नेचर स्टाइल” कहे जाते हैं। इनके अलावा वो सेट की रौशनी में काफी ज्यादा परछाई आये, ऐसी कोशिश भी करते थे।

 

“साहेब बीवी और गुलाम” फिल्म एक ऐसे दृश्य पर शुरू होती है जहाँ एक पुरानी हवेली को तोड़ा जा रहा है। जब मजदूर दोपहर में खाने की छुट्टी लेते हैं तो उनका प्रबंधक आस पास एक नजर डालता है जहाँ से कहानी फ़्लैश बैक में चली जाती है। गरीब परिवार का अतुल्य भूतनाथ चक्रवर्ती फिरंगियों के दौर वाले कोलकाता में काम ढूँढने आया होता है। अपने बहनोई के पास वो इसी हवेली में रुका हुआ था। उसकी ब्रह्मो समाज के एक सदस्य सुबिनय से मुलाकात होती है और वो भी मोहिनी सिन्दूर की फैक्ट्री में काम पर लग जाता है। सुबिनय की बेटी जबा को शुरू में भूतनाथ अजीब गंवार लगता था, मगर वो उसे पसंद भी करती थी। हवेली में रहने वाला भूतनाथ हवेली के मालिकों का क्रियाकलाप भी देखता रहता था। एक शाम हवेली का नौकर बंसी उसे हवेली की छोटी बहु से मिलवाता है जिसे कुछ सिन्दूर मंगवाना था।

 

भूतनाथ की छोटी बहु से ठीक-ठाक बातचीत होने लगती है। छोटी बहु नित नए तरीकों से अपने पति को रिझाने की कोशिश कर रही होती है और उसका पति तवायफों के कोठे पर और शराब में अपना वक्त बिताता था। भूतनाथ के देखते ही देखते छोटी बहु अपने पति को घर पर रोकने के लिए उसे साथ ही बैठकर शराब पीने लगती है और धीरे-धीरे खुद ही शराबी हो जाती है। सुबिनय की बेटी जबा की शादी भी किसी और से तय हो जाती है। सुबिनय के बीमार होने पर जब फैक्ट्री बंद हो जाती है तो भूतनाथ एक आर्किटेक्ट का सहायक बनकर उसके साथ काम पर चला जाता है। काफी समय बाद जब वो लौटता है तो देखता है कि हवेली वीरान और खंडहर हो चली है। छोटी बहु पूरी तरह शराबी हो गयी थी और उसके पति को लकवा मार चुका था। छोटी बहु पास के एक मंदिर जाना चाहती थी और भूतनाथ को साथ चलने के लिए कहती है।

 

इन दोनों की बातचीत मंझले बाबु सुन लेते हैं। उन्हें लगता है कि छोटी बहु का भूतनाथ से चक्कर चल रहा है और वो अपने गुंडों को उनके पीछे भेज देते हैं। हमले में भूतनाथ बेहोश हो जाता है। जब अस्पताल में उसे होश आता है तो उसे बंसी बताता है कि छोटी बहु लापता है और उसके पति की मौत हो चुकी है। सुबिनय की बेटी जबा ने तबतक शादी नहीं की थी। अब फिल्म फ़्लैश बेक से वापस आती है तो दिखाते हैं कि खंडहरों में से एक कंकाल मिला जिसके जेवरों से पता चलता था कि वो छोटी बहु की लाश है। फिल्म के अंतिम दृश्य में भूतनाथ अपनी पत्नी, जबा के साथ वापस जाता दिखता है।

 

इस पुरानी सी फिल्म के साथ कई ख़ास बातें जुड़ी हैं। एक तो ये कि लोग इसे हिंदी की “गॉन विथ द विंड” (1930 के दौर की अंग्रेजी फिल्म) बताते हैं। संभवतः इसलिए क्योंकि ये अजीब सी प्रेम कथाएँ हैं, जिनका अंत मिलन में नहीं होता या होता है, ये कह पाना मुश्किल है। दूसरी वजह ये होगी कि “गॉन विथ द विंड” की नायिका जैसा ही इस कहानी की नायिका भी अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहती थी। सत्यजीत रे की “जातुगृह” जैसा ही इसमें भी जमींदारी प्रथा और उसके जमीनी हकीकतों और आम समाज से कटा होना दर्शाया गया है। ये कला फिल्म नहीं थी, इसलिए “जातुगृह” की तुलना में इसमें रईसी और ठसक साफ़ साफ़ दर्शाए गए हैं। उस दौर में प्रचलित रहे “ब्रह्मो समाज” पर भी फिल्म में यदा-कदा चर्चा चलती दिख जाती है। फिल्म की शुरुआत में भले भूतनाथ फिल्म का नायक लगता है, लेकिन थोड़ी ही देर में ये फिल्म नायिका प्रधान हो जाती है। भूतनाथ के लिए जबा के प्रेम और छोटी बहु में क्या अंतर है, सही क्या और गलत क्या होगा, इसपर भी दर्शक अपने आप विचार करने लगते हैं।

 

जहाँ तक हमारा प्रश्न है, हमने इस फिल्म की कहानी के धोखे में आपको फिर से भगवद्गीता का एक श्लोक पढ़ा दिया है। ये सातवें अध्याय का चौदहवाँ श्लोक है –

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14

इसमें कहा गया है कि यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं। ये माया तीन गुणों वाली कैसे होती है, ये फिल्म के किरदारों में दिख जाएगा। सबसे पहले छोटी बहु को देखिये। क्या पति के साथ खुद भी बैठकर शराब पीना शुरू कर देने से उसका कोठे पर जाना रुकता? नहीं, कोई भी बता देगा कि ये तरीका मूर्खतापूर्ण है। यहाँ राजस गुण काम कर रहे हैं। किसी व्यक्ति, मकान, जमीन-जायदाद जैसी चीज़ों को पाने की इच्छा रजोगुण का प्रभाव मानी जाती है। एक किरदार मंझले बाबु का है जो क्रोध में अपने गुंडों को भेजकर छोटी बहु और भूतनाथ को मरवा देने का प्रयास करता नजर आता है। क्या उसका फैसला उचित था? यहाँ भी जवाब नहीं है। क्रोध सीधा तमोगुण का प्रभाव माना जाता है और वो भी माया के वश में ऐसे कृत्य करता है जिसे समझदारी नहीं कह सकते। तीसरा भूतनाथ और जबा के संबंधों को देखिये। जिसमें उनका कोई व्यक्तिगत हित नहीं है, वैसा कुछ भला सा करने के प्रयास में ये लोग सतोगुण के प्रभाव में दिखेंगे। इसके बाद भी भूतनाथ का कहीं और काम के लिए जाना जैसे फैसले सही नहीं कहे जा सकते। इसलिए सतोगुण वाला भी माया के प्रभाव में आता है, या आ सकता है, ये समझ में आता है।

 

बाकी विमल मित्र द्वारा 1953 में लिखे, बांग्ला भाषा के उपन्यास “साहब बीवी और गुलाम” पर बनी ये फिल्म काफी मुश्किल से अनुवाद करके बनाई गयी थी और अच्छी फिल्मों का शौक हो तो भी इसे देखा जा सकता है। ये जो फिल्म के बहाने से भगवद्गीता के बारे में बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!