क्रोध, आसक्ति और प्रेम

“पागलपन की हद से जो न गुजरे वो प्यार कैसा,

होश में तो रिश्ते निभाए जाते हैं।”

तापसी पन्नू, विक्रांत मैसी और हर्षवर्धन राणा स्टारर “हसीन दिलरुबा” फ़िल्म एक रोचक मर्डर मिस्टरी है। वैसे मिस्टरी जैसा कुछ है नही क्योंकि कम से कम फ़िल्म के आधे तक पहुँचते-पहुँचते आप समझने लगते हैं कि खून किसका हुआ है और जरा आगे बढ़ते ही ये भी समझ जाते हैं कि कैसे हुआ,पर फिर भी फ़िल्म अपनी रोचकता नही खोती। ये डार्कशेड की ऐसी फिल्म है जो मेरे हिसाब से ये दिखाने में कामयाब हुई है कि अनैतिक रिश्तों के चलते एक सामान्य विवाहित जोड़े की जिंदगी कैसे नरक जैसी हो जाती है।

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का 62वां श्लोक है-

“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।“

अर्थात – विषयों का चिंतन करने वाले व्यक्ति की उसमें आसक्ति हो जाती है? आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।।

फ़िल्म में अगर ध्यान से देखें तो प्रेम को आसक्ति के रूप में ही दिखाया है। कहानी की शुरुवात में ही नायिका रानी पर उसके पति की हत्या को लेकर जाँच चल रही होती है। जहाँ सभी को ये एक दुर्घटना लग रही होती है वहीं इंस्पेक्टर किशोर का ये मानना है कि रानी ने अपने प्रेमी नील के साथ मिलकर अपने पति रिशु(ऋत्विक) की हत्या की है और नील को भगा दिया है।

यहाँ रानी की बीती जिन्दगी के बारे में दिखाया जाता है । मर्डर मिस्ट्री पढ़ने वाली दिल्ली की मॉडर्न रानी का विवाह एक छोटे शहर के सरकारी इंजिनियर से कर दिया जाता है। होम्योपैथी दवाइयों और शराब में मर्दाना ताकत खोजने वाली रिशु रानी को कभी जता ही नहीं पाता कि वो उसे प्यार करता है। बल्कि अपनी कमजोरी की खिन्नता में रानी को दोषी बना एक दूरी बना लेता है।

विवाह मतलब सेक्स जिन्हें जवानी से समझाया गया हो उनको यदि विवाह पश्चात भी वो न मिली तो हर समय उसका ख्याल और उसी में आसक्ति प्राकृतिक है। ऐसे में रिशु के रिश्ते के भाई के घर पर आने पर रानी उसकी और आकर्षित हो जाती है।नील के धोखे के बाद रानी रिशु को सब बता देती है।जिससे रानी के प्रति असक्त रिशु क्रोध में पागल सा हो जाता है।

फिल्म के एक छोटे से हिस्से में प्रेम की ताकत को भी दिखाया है। जहाँ रिशु प्रेम कभी व्यक्त नही कर पाता वहीं रानी में बदलाव की उम्मीद भी शून्य रहती है।पर नील के कुछ दिन के झूठे प्रेम में ही रानी में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

फिल्म अभी नई है और देखे जाने लायक है इसलिए कहानी को यही तक छोड़कर मुख्य बात पर आते हैं। फिल्म में आसक्ति को मुख्य रूप से दिखाया है। फिल्म के पहले भाग में देखने को मिलता है कि रानी को अपने पति से ही जब प्रेम नहीं मिलता तो वो केवल उसी विषय पर सोचती रहती है। यही नील के प्रति उसकी आसक्ति कारण बनता है और असक्त मनुष्य मूढ़ता कर ही बैठता है। वहीँ रानी की पसंद के पुरुष के विषय में जानकर ऋषभ यानी रिशु रानी का ऐसे त्याग कर देता है कि वो इस सब से विरक्त है। पर विरक्तता में एक अहंकार होता है। ये अहंकार ऋषभ में दिखाई देता है जब वह नील के बारे में जानने के बाद रानी को घर से निकल जाने को कहता है पर जब रानी जिद में नहीं जाती तो वह रानी को बहुत बार शारीरिक कष्ट देता है। कहानी के अंत में आपको प्रेम के नाम पर आसक्ति का एक रूप देखने को मिलेगा जो बहुत भयावह है।

पर प्रश्न ये उठता है कि प्रेम आसक्ति है , विरक्ति है अनासक्ति ?

मेरे अनुसार प्रेम का जो सामान्य स्वरुप हम स्वीकारते हैं वो आसक्ति है।यही कारण है कि कोई मिला नहीं तो क्रोध में आकर जिससे प्रेम है उसी का बुरा करने निकल पड़ते हैं। जबकि जहाँ क्रोध है, नफरत है, धोखा या बुरी भावनाएँ हैं वहाँ प्रेम हो ही नही सकता। जो आपकी मती हर ले वो प्रेम नही मात्र आसक्ति या मोह है। प्रेमासक्ति विपरीत लिंग के प्रति मोह या दीवानगी है जो केवल भौतिक सुख प्राप्त करने मात्र तक सीमित होती है।

“उसे जाने दो जिससे तुमको प्यार है, बंधन में रखना प्रेम नही”

विरक्ति में छोड़ देने का अहंकार है। और प्रेम में अहंकार का कोई स्थान नही। इन्हीं कारणों से ऐसी फिलोसफी मुझे बकवास लगती है।प्रेम आपके हृदय और आत्मा से उठने वाली वो भावना है जिसमें न कुछ पाने का मोह है न छोड़ देने का अहंकार। इसलिए वास्तव में प्रेम अनासक्ति है।प्रेम वो वैराग्य है जिसमें क्रोध या दुःख के लिए कोई स्थान नही।

पर हम साधारण मनुष्य आसक्ति और विरक्ति के बीच में झूलते हुए प्रेम का अनुभव करना चाहते हैं। विवाह भी एक बंधन है और बंधन में अनासक्त रहना बहुत कठिन है। इस बंधन में कर्तव्य प्रमुख है और कर्तव्य निभाकर ही हम प्रेम जैसा कुछ पा सकते हैं। कर्तव्य पर तीसरे अध्याय बीसवें श्लोक में श्री कृष्ण कहते भी हैं –

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।

लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥

कर्मणा एव हि संसिद्धिम् आस्थिताः जनक-आदयः ।

लोक-सङ्ग्रहम् एव अपि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि ॥

जीवन में सिद्धि केवल ध्यान समाधि से नही बल्कि कर्म से भी प्राप्त की जा सकती है जैसे राजा जनक ने कर्तव्य कर्म से परम-सिद्धि प्राप्त की। ऐसे ही विवाह बंधन हो या प्रेम बन्धन ईमानदारी से कर्तव्य निर्वाह द्वारा प्रेम भी पाया जा सकता है।

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लेखिका सुगंधा शर्मा पेशे से शिक्षिका हैं। वो परिवार के साथ चंडीगढ़ (पंजाब) में रहती हैं।