निजी अहंकार को पोषण देने की मानसिकता, भारतीय स्कूल बचपन से ही लोगों को सिखाने लगते हैं। अगर आपको लगता है कि जिंतना ज्यादा पढ़ा लिखा हो व्यक्ति उतना ही असामाजिक होता जाता है, तो इसपर आश्चर्य नहीं करना चाहिए। उसने ज्यादा लम्बी असामाजिकता की ट्रेनिंग झेली है। परीक्षाओं में दुसरे साथियों को अपनी कॉपी ना दिखाओ, अपने नोट्स अपने तक ही सिमित रखो, टीम वर्क की जगह इंडिविजुअल परफॉरमेंस के इनाम, इन सभी तरीकों से ये ठूस ठूस कर दिमाग में भरा जाता है कि निजी हित ही सर्वोपरी हैं। सरोकारों को मूर्खता और समय की बर्बादी घोषित किया जाता रहता है।
टीम वर्क सिखाने की सबसे अच्छी तकनीक खेल हैं, और खेलोगे धूपोगे बनोगे खराब की कहावत रोज ही सुनाई जाती हैं। ऐसे ही स्कूलों से निकले बच्चे जब बड़े होते हैं, तो वो मनुष्य से उसका बचपन और सामजिक व्यवहार छीन लेने के और प्रयास करते हैं। यही वजह है कि खेलों पर भारत में फ़िल्में नहीं के बराबर ही बनती हैं। खेल-खिलाड़ी देखने में रूचि रखने वाले लोग अक्सर विदेशी (अंग्रेजी) फ़िल्में ही देखते हैं। ऐसी ही एक फिल्म जो बहुत नहीं, बस ठीक ठाक सी हिट थी “द लांगेस्ट यार्ड”, अक्सर टीवी पर आती रहती है। इस फिल्म में एक किरदार डब्ल्यू.डब्ल्यू.ई. वाले खली ने भी निभाया है, इसलिए घर के बच्चे शायद इसे देखते मिल जायेंगे।
ये पॉल क्रेव नाम के एक एन.ऍफ़.एल. खिलाड़ी की कहानी कहती फिल्म है जिसपर जडेजा जैसा ही कभी मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था। आरोप कभी सिद्ध नहीं हुए। वो सेलेब्रिटी है और एक रात शराब के नशे में अपनी गर्लफ्रेंड की बेंटली कार से एक्सीडेंट कर लेता है। भारत में सड़कों पर सोये मासूम मोमिनों पर गाड़ी चढ़ा कर आप बच सकते हैं लेकिन अमेरिका में शायद ऐसा नहीं होता, पॉल को जेल जाना पड़ता है। जेल में जो जेलर था वो कई भारतीय पुलिस अफसरों की तरह ही रिटायर होने पर चुनाव लड़ने का शौक रखता था। अपनी इमेज अच्छी बनाने के लिए वो पॉल को कैदियों की एक टीम बनाने कहता है। इस टीम को जेल के पुलिसकर्मियों की टीम से नूरा कुश्ती जैसे मुकाबले में हारना था।
जेल में सेलेब्रिटी पॉल का सामना एक अलग ही दुनियां से होता है, जहाँ वो आम तौर पर सुरक्षित सा जीवन जीने का आदि था, यहाँ पहले तो जेलर का दबाव था। उसके लिए हारने वाली टीम ना बनाने पर सजा बढ़ाने की धमकियों का सामना करना था। दुसरे कुछ कैदी उसके सेलेब्रिटी होने से जलते थे और बेमतलब की दुश्मनी भी पाले बैठे थे। इसी माहौल में पॉल को, खेलने के लिए कैदियों को राजी करना था। जेल में कई गुट थे, सब अपने को सबसे महान मानते थे। दुष्ट किस्म के सुरक्षाकर्मियों से बदला लेने के इरादे से कई अश्वेत आकर पॉल की टीम में शामिल हो जाते हैं। शोले फिल्म के नाइ जैसा ही जेलर का जासूस भी होता है। वो पॉल के रेडियो में बम भी लगा देता है, किस्मत से पॉल को तोहफा देने आये केयरटेकर की उस बम से मौत हो जाती है।
किस्म किस्म की साजिशों से जूझती पॉल की टीम रग्बी फुटबॉल की प्रैक्टिस में जुटी ही रहती है। उनके हौसले देख, एक एक करके लोग उस से जुड़ते जाते हैं। हरेक का अपना बौद्धिक स्तर, हरेक की अपनी शारीरिक क्षमता होती है। कुशल नायक की तरह पॉल सेना में टुकड़ियों को उनकी सही जगह सजाता रहता है। टीम के कुछ किरदार ऐसे हैं जो बुद्धि से बिलकुल चपाट मूर्ख हैं। किसी एक ख़ास गार्ड को पटकने के मौके खोजने वो टीम में आ गए हैं। कोई सिर्फ तेज दौड़ सकता है, रणनीति और टीम के साथ के बारे में नहीं समझता। बेमेलों की इस पलटन को पॉल सजाता रहता है। मौत से पहले ही इस टीम के लिए केयरटेकर वर्दी-जूते जुटाने का इंतजाम कर गया था। उधर जेल में बंद कुछ समलैंगिक जो सीधा टीम में नहीं शामिल हो पाते, वो टीम के चीयरलीडर बन के दर्शकों को लुभाने उतर आते हैं।
कठिन परिस्थितियों में अभ्यास कर चुकी पॉल की टीम मैच के दिन जीतने लगती है। जेलर उसे याद दिलाता है कि उसे जीतना नहीं हारना है। मगर थोड़ी देर हारने के बाद पॉल जेलर की बात मानकर हारने के बदले, अपनी टीम के साथ जीतने का फैसला करता है। बाकी खिलाड़ी आसानी से उसपर यकीन करने को तैयार नहीं होते। थोड़ी देर में जब उनका विश्वास जमता है तो वो फिर एक टीम की तरह मुकाबला करना शुरू करते हैं। आखिर पॉल और उसके साथी कैदी बड़ी मुश्किल से मैच जीत पाते हैं। आखरी दृश्यों में बॉल उठाने जा रहे पॉल को जेलर गोली मरवाने का नाकाम प्रयास भी करता है।
अलग अलग किस्म के कई कैदियों के साथ टीम बनाने, जीतने और नाक सिकोड़ते जेलर के सुनाये फतवों की रत्ती भर परवाह ना करने के लिए ये मजेदार फिल्म देखनी चाहिए। नायक पॉल सबको अलग अलग जानता तो है, लेकिन टीम के रूप में एक ही मानता है। इस फिल्म की टीम में सभी खिलाड़ी अलग अलग किस्म के हैं और कुछ ऐसा ही भगवद्गीता में योगियों के बारे में भी कहा जाता है। ये हिस्सा भी अपने शब्दों के इस्तेमाल की वजह से महत्वपूर्ण है। श्री कृष्ण पहले ही चौथे अध्याय के चौबीसवें श्लोक में कहते हैं :
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।
यहाँ पहले ही सबको एक कहा गया है। मोटे तौर पर श्लोक में है कि जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है, करने वाला ब्रह्मरूप है, वो जिस अग्नि में आहुति दे रहा है वो अग्नि भी और आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्मरूप है। सब जब ब्रह्म ही हैं तो इसका फल भी ब्रह्म ही होता है। इस एक श्लोक का अगर भगवद्गीता में देखें तो कई श्लोकों से सम्बन्ध निकलेगा : 4.31 में, 9.16 में, 13.13 में, 15.7 और 15.14 में भी इसी को किसी दुसरे तरीके से समझाने की कोशिश की जा रही है। फिल्म का पॉल जैसे एक को शामिल करने और दुसरे से भेदभाव की नहीं सोच सकता वैसे ही सबको एक ब्रह्म मानने की ये बात 7.19 में भी मिलेगी और छान्दोग्योपनिषद् में भी सर्वं खल्विदं ब्रह्म(3.14.1) आता है।
फिल्म के खिलाड़ी जो अलग अलग हैं वैसे ही योगियों और योग के बारे में भी कहा गया है :
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।4.25।।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4.26।।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।4.27।।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।4.28।।
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।4.29।।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।
इनमें कहा गया है कि कुछ योगी देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही करते हैं और दूसरे ब्रह्मरूप अग्नि में हवन करते हैं। कुछ योगी सब इन्द्रियों को संयम की अग्नि में हवन करते हैं और कुछ विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं। दूसरे योगी सभी कर्मों को आत्मसंयम में हवन करते हैं। कुछ द्रव्य से कोई तप और कुछ योग से यज्ञ करने वाले होते हैं और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले योगीजन होते हैं। प्राणायाम के लिए कहा जाता है कि बाहर छोड़ी जा रही सांस को अन्दर ली जा रही सांस, या उल्टा करके, अन्दर ली जा रही सांस को छोड़ी गई साँस में हवन करने वाले कुछ हैं। कुछ सांस को पूरी तरह अन्दर रोककर, कुछ पूरी तरह बाहर छोड़कर सांस का ही हवन करते हैं। नियमित आहार करने वाले प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।
खुद पढ़ना, जो पढ़ा उसपर सोचना विचारना कोई नोट्स लेना स्वाध्याय में आएगा। जब आप किसी परीक्षा में मार्क्स के लिए ये नहीं कर रहे तो ये अपने आप भगवद्गीता का “बिना फल की इच्छा” वाला कर्म हो जाता है। जब सेहत ठीक होने पर भी प्राणायाम करते हैं तो वो भी यज्ञ हो जाएगा। “ओ.एम.जी. भूखे रहना होगा, हाउ टफ यू नो !” जैसे बहानों की भी जरूरत नहीं क्योंकि “नियमित आहार” साफ़ लिखा है। ये खाना और वो नहीं खाना जैसा कोई हलाल-हराम का मसला भी बिलकुल नहीं है। एक का फल ज्यादा होगा, दुसरे का कम होगा जैसी कोई भी चीज़ सोचते है पांचवे अध्याय का चौथा श्लोक देखिये :
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।।
बालबुद्धि यानि कम जानने वाला, बचकाना, यहाँ साफ़ लिखा है, सीधा “बालाः” शब्द ही लिखा हुआ है। कहा गया है कि दुधमुहें, अज्ञानी, बचकाने किस्म के लोग सांख्य और योग को अलग समझते हैं। किसी एक में भी स्थिति दोनों के लिए एक जैसा नतीजा ही देगी। ये अलग है और वो अलग जैसा कुछ, प्रक्रियाओं की भिन्नता की वजह से नहीं सोचना चाहिए। फिल्म की टीम में जैसे सब अलग अलग ही हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि काला जीता, गोरा नहीं जीता, या लम्बा तगड़ा वाला जीता, तेज दौड़ने वाला नहीं जीता, ऐसा नहीं होता, वैसे ही नतीजा अलग अलग नहीं होगा।
हाँ दूध का उबलना जरूर याद रखना चाहिए। आप पंद्रह मिनट इन्तजार करते रहें, देखते रहें, तो चूल्हे पर चढ़े बर्तन में कोई फर्क नहीं दिखेगा। फिर अचानक ही जब उबाल आएगा, तो पूरा हर तरफ फ़ैल जाता भी दिखेगा। शुरू के प्रयासों से अगर लग रहा हो कि कुछ नहीं हो रहा तो भी जारी रखिये। खुद मेहनत करने, ढूँढने पर, ये भी गीता में ही मिल जाएगा। एक श्लोक के ही कितने रिफरेन्स होते हैं इसलिए एक मुश्किल सा श्लोक दिखाया है। शब्दों की समझ कितनी है इसपर ध्यान दिलाने के लिए 4.25 से 4.30 तक का हमने बचकाना सा ही अर्थ लिखा है। बाह्य कुम्भक, अन्तःकुम्भक या पूरक, रेचक जैसे प्राणायाम से जुड़े शब्द इस्तेमाल नहीं किये हैं।
बाकी शब्दों पर गौर करेंगे तो ऐसे ही कई शब्द दिखेंगे, जिनका अर्थ आपको एक बार में सिर्फ हिंदी अर्थ पढ़ने पर नहीं, बाद में संस्कृत श्लोक देखने पर कभी नजर आएगा। ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है। पीएचडी के लिए आपको खुद ढूंढ कर पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा ?