सत्यजित रे ने 1964 में एक छोटी सी, बारह मिनट की फिल्म बनायीं थी, जिसका नाम था “टू”। अंग्रेजी नाम “टू” की तरह ही ये फिल्म भी कुल जमा बारह मिनट में दो बच्चों की कहानी है। ये वो दौर था जब अमेरिका और वियतनाम का युद्ध चल रहा था, इसलिए कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि एक अमीर और एक गरीब, इन दो बच्चों के जरिये सत्यजित रे ने अमीर अमेरिका और गरीब वियतनाम को दर्शाया था। ये फिल्म आसानी से यू-ट्यूब पर मिल जाएगी, लिंक आप नीचे डिस्क्रिप्शन में देख सकते हैं। फिल्म जब शुरू होती है तो एक अमीर घर का बच्चा अपने कमरे में अकेला अपने खिलौनों से खेल रहा होता है। उसके पास काफी सारे खिलौने होते हैं और पूंजीपति वर्ग को दर्शाने के लिए यहाँ पर भी बच्चे को कोल्ड ड्रिंक पीते, कार को विदा करते दिखाया गया है। आज के दौर की फिल्म होती तो संभवतः बच्चे का कोल्ड ड्रिंक पीना आम बात होती क्योंकि छोटे कम मूल्य के बोतलों में अब कोल्ड ड्रिंक भी आती है और फ्रिज में उसे रखना 1964 के लाइसेंस परमिट राज के दौर में भले साधारण लोगों के लिए संभव नहीं था लेकिन आज के भारत में स्थितियां बदल गयी हैं। आप समझ सकते हैं कि विदेशों से आई एक आयातित विचारधारा के लोगों के लिए अब किसी दृश्य में पूंजीपति और सर्वहारा का वर्गसंघर्ष दर्शाना कितना मुश्किल होगा। तब 1960 के दशक में ये काफी आसान था।
जो भी हो, फिल्म की शुरुआत होती है और अमीर बच्चे को अपने कमरे में खेलते हुए एक स्वर सुनाई देता है। वो खिड़की से बाहर झांकता है तो उसे बाहर एक गरीब बच्चा बांसुरी बजाता हुआ दिखता है। आम हिन्दुओं के लिए बच्चे का बांसुरी बजाना सीधा ही श्री कृष्ण का प्रतीक हो जाता है लेकिन यहाँ प्रतीक कुछ और है। ये शोषित तीसरी दुनिया के देशों का प्रतीक है। इस दूसरे बच्चे के सामने अपनी बेहतर स्थिति का प्रदर्शन करने के लिए अमीर बच्चा भी एक बिगुल सा बाजा निकालकर उसे बजाना शुरू कर देता है। जब गरीब बच्चा ये देखता है तो वो उठकर वापस अपने झोंपड़े में जाता है और एक ढोल सा लेकर आता है और उसे बजाने लगता है। दोनों बच्चों में अपने अपने खिलौनों के प्रदर्शन की होड़ शुरू हो जाती है। अब अमीर बच्चा अपना खिलौने वाला ढोल बजाता बंदर दिखाता है। गरीब बच्चा फिर घर जाता है और इस बार नकाब-मुखौटा सा लगाए, एक तीर-धनुष लिए वापस आता है। अब अमीर बच्चा अपने कई मुखौटे दिखाने लगता है जिसमें कोई राक्षस का था तो कोई अमेरिकी काऊ-बॉय का। उसके पास खिलौने वाली तलवार-भाला और बन्दूक भी होती है। इतने सारे मुखौटे-खिलौने देखकर गरीब बच्चा थोड़ा निराश हो जाता है। उसे लगता है प्रदर्शन में वो जीत नहीं पा रहा। गरीब बच्चा निराश होकर अपनी झोपड़ी में लौट जाता है और अमीर बच्चा अपनी विजय पर प्रसन्न होता फिर से अपने ढेरों खिलौनों से खेलने में जुट जाता है।
खेलते-खेलते ही अमीर बच्चे का ध्यान बाहर आसमान पर जाता है तो उसे दिखा कि कोई पतंग उड़ रही है। उसे जिज्ञासा होती है कि पतंग कौन उड़ा रहा है? वापस देखने पर वो पाता है कि मांझा तो उसी गरीब बच्चे के हाथ में है जिसे उसने थोड़ी देर पहले भगाया था। भड़ककर वो अमीर बच्चा अपनी गुलेल से पतंग पर निशाना लगाने की कोशिश करता है। जब उससे काम नहीं बनता तो वो एक एयरगन ले आता है और पतंग को फाड़कर गिरा देने में आखिरकार सफल हो जाता है। गरीब बच्चा रोता हुआ अपने घर लौट जाता है। अमीर बच्चा फिर से अपने खिलौनों से खेलने में जुट जाता है और एक साथ कई खिलौनों को चला देता है। एक साथ कई खिलौनों का कर्कश स्वर हो ही रहा होता है कि उसके बीच फिर से बांसुरी की धुन सुनाई देने लगती है। अमीर बच्चा अब सोच में पड़ा दिखाई देता है, ऐसा लगता है की वो पतंग फाड़ देने जैसे अपने पुराने कृत्यों के सही या गलत होने पर सोच रहा होगा कि इतने में उसका खिलौने वाला रोबोट आगे बढ़ते हुए एक ऊँची खिलौने की मीनार को ध्वस्त कर डालता है। फिल्म यहीं ख़त्म हो जाती है।
यहाँ से चलते हैं हमलोग भगवद्गीता पर, और सोचते हैं कि बच्चे तो अपने-अपने खेल में जुटे थे। एक दूसरे के सामने शक्ति प्रदर्शन का, आपस में लड़ने जैसा तो उनका कोई इरादा नहीं था। फिर ऐसा क्या हुआ कि उनमें आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लग गयी? इसके लिए भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में छत्तीसवाँ श्लोक देखिये –
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3.36
अर्जुन पूछते हैं – वार्ष्णेय, मनुष्य जबरन बाध्य किये गए जैसा, इच्छा न होने पर भी किससे प्रेरित होकर पापपूर्ण आचरण करता है? ये बिलकुल वही बात है जो दुर्योधन ने कही थी। कोई है जो मुझसे करवाता है और मैं करता जाता हूँ। बस यहाँ अंतर ये है कि अर्जुन पूछ रहा है। वो जानना चाहता है, कैसे उससे बचा जाए कि पापपूर्ण आचरण न करना पड़े, बचने की कोशिश में है। और भगवान उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद स्वयं करना चाहता है। गर्ग संहिता के अश्वमेघ पर्व (50.36) में ऐसी ही एक चर्चा का जिक्र आता है जहाँ श्री कृष्ण पहले कभी दुर्योधन को समझाने गए थे। । यहाँ दुर्योधन ने कहा है –
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। (गर्गसंहिता अश्वमेध0 50। 36)
यानि मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ। यहाँ दुर्योधन कुछ पूछ नहीं रहा। ये निश्चयात्मक वाक्य है। जब पूछ ही नहीं रहा, सीखने को तैयार ही नहीं तो कोई कुछ सिखाये कैसे? ये जेन के प्रसिद्ध ग्लास में पानी भरने वाली स्थिति है। अगर कोई ग्लास, कोई कप पहले से ही पानी से भरा हो तो आप उसमें पानी कैसे भर सकते हैं? पहले उस भरे हुए को खाली करना होगा, तभी उसे भरा जा सकता है। अर्जुन जब बिलकुल यही सवाल करता है तो निश्चयात्मक वाक्य नहीं, प्रश्न है यानी ग्लास के खाली होने वाली स्थिति है इसलिए उसमें कुछ भरा जा सकता है। बस इतना सा ही अंतर था जिसकी वजह से अर्जुन को भगवद्गीता की शिक्षा मिलती है और दुर्योधन को कुछ भी नहीं।
इस तरह हमें दो प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं। एक ये कि फिल्म के किरदार अपने-अपने खेल में जुटे थे तो फिर किस प्रेरणा से एक दूसरे से लड़ने में जुट जाते हैं? दूसरा ये मासूम-क्यूट सा प्रश्न कि अर्जुन के बदले अगर दुर्योधन को भगवद्गीता का ज्ञान दे दिया जाता तो युद्ध होता ही नहीं, फिर दुर्योधन को भगवान ने क्यों नहीं सिखाया? क्योंकि दुर्योधन का ग्लास भरा हुआ था, उसमें कुछ और भरा ही नहीं जा सकता था, जबकि अर्जुन का ग्लास खाली था। इसलिए अर्जुन को सिखाया जा सकता था, दुर्योधन को सिखाना संभव ही नहीं था। ऐसा नहीं है कि इस आशय की बात एक बार ही की गयी है। गरीब बच्चा उस अमीर बच्चे से दोस्ती कर लेना चाहता था, कोई प्रतिस्पर्धा या लड़ाई करने में उसकी कोई रूचि नहीं थी। इसके बाद भी स्वभाववश वो प्रतिस्पर्धा में जुट जाता है। यही भगवद्गीता के अंतिम यानि अट्ठारहवें अध्याय में कहा गया है –
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।18.60
यहाँ श्री कृष्ण कह रहे हैं कि कौन्तेय, तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, मोहवश जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम विवश होकर करोगे। बिलकुल पहले अध्याय में जो अर्जुन कह रहे होते हैं कि ये लोग मुझे निहत्था पाकर मार भी डालें, तो भी मैं युद्ध नहीं करना चाहता, ये उसका उत्तर है। आपका स्वभाव आपसे कर्म करवाएगा ही और फिर गुणों के हिसाब से वो कर्म सात्विक, राजसी या तामसिक भी होंगे ही। उसके अनुसार ही कर्मफल भी आएगा ही। इसलिए मनुष्य कर्म करने से बच नहीं सकता। भगवद्गीता के कुछ श्लोकों को आप आसानी से इस बारह मिनट की फिल्म “टू” में देख सकते हैं।
“किसकी प्रेरणा से गलत आचरण करता है?” वाले अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं –
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।3.38
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39
रजोगुण में उत्पन्न हुई यह ‘कामना’ है, यही क्रोध है; यह महाशना (यानी जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो। जैसे धुयें से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जैसे भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे वैसे ही कामना से ज्ञान आवृत होता है, ढक जाता है। आग की तरह ही कभी तृप्त न होनेवाले और ज्ञानियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है। यहाँ महाशना शब्द और अग्नि का प्रयोग हुआ है। फिल्म के अमीर बच्चे को देखेंगे तो आपको नजर आएगा कि उसके पास अच्छे-कीमती खिलौनों की कोई कमी नहीं है। लेकिन जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि आग में घी डालने से वो बुझती नहीं, और भड़कती है, बिलकुल वैसे ही वो अपने खिलौनों से तृप्त होने के बदले गरीब बच्चे की बांसुरी, सस्ते से तीर-धनुष इत्यादि से इर्ष्या कर रहा है। आप और हम जो निष्पक्ष हैं, बाहर से फिल्म देख रहे हैं, वो सामान्य बुद्धि से कह सकते हैं कि अमीर बच्चा अगर गरीब बच्चे से दोस्ती कर लेता तो उसके पास खेलने को एक साथी बढ़ जाता। वो भी पतंग से, बांसुरी से खेल सकता था। अमीर बच्चा उस गरीब बच्चे को पूरी तरह अनदेखा कर देता तो इर्ष्या में जिसे “अपना खून जलाना” कहते हैं, वो कहावत भी लागू नहीं होती। लेकिन कामना आसानी से उसके सामान्य विवेक को ढक देती है। किसी और की सफलता या उन्नति पर इर्ष्या या फिर लोभ की स्थिति में आप “टू” फिल्म के बच्चे और भगवद्गीता के इन श्लोकों को याद कर सकते हैं।
बाकी ध्यान रखिये कि फिल्म की कहानी के बहाने, भगवद्गीता के बारे में जो बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी।