प्रेमचंद की कहानी “मंत्र” और भगवद्गीता

“पंडित लीलाधर चौबे की जबान में जादू था।“ इसी वाक्य से प्रेमचंद की “मंत्र” नाम की कहानी शुरू होती है। हमने बरसों पहले कभी जब “मानसरोवर” का पांचवा भाग पढ़ा भी था, तो इस कहानी पर बिलकुल भी ध्यान नहीं गया था। अब ये कहानी जब कुछ दिन पहले सोशल मीडिया से जुड़े मित्रों ने याद दिलायी तो हमने इसे दोबारा पढ़ डाला। सबसे पहले इस बात पर ध्यान गया कि प्रेमचंद किसी “तबलीग” के धर्म-परिवर्तन करवाने के बारे में लिखते हैं। अनोखी बात ये है कि बरसों पहले प्रेमचंद जिसके बारे में लिख गए, उस “तबलीग” और वो क्या काम करती है, इसके बारे में बहुसंख्यक भारतीय लोगों ने हाल ही में जाना होगा!
कहानी कोई बहुत उत्कृष्ट हो ऐसा नहीं है। ये जातीय अभिमान में जीने वाले पंडित लीलाधर की कहानी है जो हिन्दू-सभा के लिए अक्सर व्याख्यान देते थे। वो लोगों को धर्म परिवर्तन से रोकने के प्रयास में मन से नहीं धन और प्रतिष्ठा के लोभ से जुड़े हुए थे। अचानक एक बार उन्हें ऐसे ही धर्म परिवर्तनों को रोकने के लिए मद्रास (उस दौर का नाम) के इलाके में जाना पड़ता है। जैसा कि अभी हाल में भी सुनाई दिया होगा, बिलकुल वैसे ही उस दौर में भी धर्म-परिवर्तन में बाधा पहुंचा रहे व्यक्ति, यानी पंडित लीलाधर की हत्या का प्रयास होता है। अजीब सी बात है कि इसमें भी प्रेमचंद के काल और अभी में कोई अंतर नहीं आया!
खैर कहानी आगे चलती है तो पंडित लीलाधर मरे नहीं होते और स्थानीय निवासी जो तथाकथित पिछड़ी जातियों से थे, उन्हें बचा लेते हैं। जबतक वो महीने भर में ठीक होते, तबतक इलाके में प्लेग फ़ैल जाता है। लोग अपने परिवार जनों को भी छोड़कर भागने लगते हैं। पंडित लीलाधर भी भाग सकते थे, लेकिन वो ऐसा कर नहीं पाते। जिन्होंने उनके प्राण बचाए थे, अब उन्हें सहायता की जरुरत थी। काफी कठिनाइयों से पंडित लीलाधर कुछ गाँव वालों को बचा लेते हैं। उनके ऐसे कारनामे की सूचना जैसे ही आस पास फैलती है, लोग उन्हें कोई सिद्ध पुरुष मानने लगते हैं।
लोग मानने लगे कि ये सिद्ध पुरुष यम-देवता से लड़कर अपने भक्तों को छुड़ा लाता है। प्रेमचंद कहानी के आखरी हिस्से में लिखते हैं कि “ज्वलंत उपकार के सामने जन्नत और अखूबत (भातृ-भाव) की कोरी दलीलें कब ठहर सकती थीं?” पंडित लीलाधर जिस धर्म-परिवर्तन को रोकने के उद्देश्य से आये थे वो उसमें कामयाब होते हैं। कहानी के अंत में प्रेमचंद कहते हैं कि “अपने ब्राह्मणत्व पर घमंड करनेवाले पंडित जी” नहीं रहे, उन्होंने भीलों से प्रेम करना सीख लिया था। वो वहीँ बस गए, लौटे नहीं। शाम-सबेरे मन्दिरों से शंख और घंटे की ध्वनियाँ एक बार फिर से सुनायी देने लगी।
अगर कहानी में गूंथे गए तत्वों की बात करें तो पंडित लीलाधर को जहाँ यम-देवता पर विजय पाने वाला बताया जा रहा होता है, उससे ठीक पहले वो दवा लेकर बीस मील दूर के शहर से शाम में लौट रहे होते हैं। अँधेरा हो चुका था और उनके रास्ते से भटकने का खतरा था। ऐसे में प्रेमचंद उनकी मदद के लिए वहां एक कुत्ते को भेजते हैं। काफी कुछ वैसा ही जैसे यम के द्वार की ओर जाते युधिष्ठिर के साथ एक श्वान होता है। जैसे नचिकेता को यम के द्वार पर ज्ञान की प्राप्ति होती है, कुछ वैसे ही मृत्यु के मुख में पहुंचे भीलों के पास, जहाँ संभवतः यम उनकी भी प्रतीक्षा में होंगे, वहीँ पंडित लीलाधर को भी उंच-नीच से ऊपर आने का ज्ञान मिलता है।
करीब हफ्ते दस दिन पहले जब हमने ये कहानी दोबारा पढ़ी थी तो मेरा ध्यान इस कहानी पर इसमें गुंथे तत्वों या अभी की घटनाओं से साम्य के कारण नहीं गया था। इसपर ध्यान इसलिए गया था क्योंकि पंडित लीलाधर जब भीलों के लिए दवा लाने शहर जाते हैं तो उनके पास कोई पैसे नहीं होते। अपने थोड़े पहले के काल में वो एक सभा में लाखों का चंदा जुटा सकते थे, लेकिन वो अपने लिए कुछ मांग नहीं पाते। एक बार, फिर दोबारा प्रयास में भी वो मुंह खोलने में सकुचाते रह जाते हैं। हाल में हमने मजदूरों को कोई मदद मांगने से सकुचाते भी देखा है। वो भी तब जब मदद करने को तत्पर कोई व्यक्ति वहीँ पास खड़ा था!
अब आते हैं भगवद्गीता पर, जहाँ चौथे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में कहा गया है –
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34
यहाँ बताया गया है कि ज्ञान को गुरु के पास जाकर, उन्हें प्रणाम करके, सेवा से उन्हें प्रसन्न करके और विनयपूर्वक प्रश्न करके जानों; अच्छी तरह पूछने पर तत्त्वदर्शी तुम्हें ज्ञान का उपदेश देंगे। अब सवाल है कि इतनी सीधी सी बात अलग से बताने की क्या जरुरत थी? तो इसके लिए पंडित लीलाधर को देखिये। वो कोई अपने लिए नहीं मांग रहा। भीख लेने नहीं आया, किसी और की मदद के लिए चंदा जुटा रहा होता है। फिर भी क्या वो मांग पाया? बचपन में लोग जैसे प्रश्नों से भरे होते हैं, क्या बड़े होने पर भी उतने ही जिज्ञासु रह जाते हैं? स्वयं को ही देखिएगा तो पता चलेगा कि हर विचित्र लगने वाली बात के लिए बचपन में आप जैसे बड़ों से सवाल करने जाते थे अब वैसा नहीं करते।
जैसे जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, उसका अहंकार भी बड़ा होता है। मैं किसी से पूछ कैसे सकता हूँ? कहीं पूछने पर लोग मुझे मूर्ख तो नहीं समझ लेंगे? ये तो मेरी तुलना में कम, छोटा, गरीब सा लग रहा है, इससे कैसे पूछकर सीख लें? ऐसी कई उलझनों के कारण लोग सवाल ही नहीं करते। इसलिए अलग से प्रणाम करके, विनय पूर्वक प्रश्न करने के लिए विशेष रूप से कहा गया है। इसके अलावा भी आपको पंडित लीलाधर में कई और श्लोक दिखेंगे। शुरुआत में पंडित लीलाधर वैसे ही हैं जैसा कि तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहा गया है –
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6
इसका अर्थ है, जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है। शुरुआत का पंडित लीलाधर दम्भी ही है। वो कहने को तो धर्म की स्थापना के लिए कथाएँ सुना रहा होता है, आयोजनों में भाग लेता है, लेकिन असल में वो अपनी कही हुई बातों को स्वयं ही नहीं मानता!छुआ-छूत, भेदभाव उसके मन से मिटा नहीं है। इसकी तुलना में भगवद्गीता पांचवें अध्याय के अठारहवें श्लोक में कहती है –
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18
यानि की ज्ञानीजन विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, तथा गाय, हाथी, श्वान और चाण्डाल में भी सम तत्त्व को देखते हैं। यहाँ गौर कीजिये कि ब्राह्मण के जिक्र के साथ ही उसे विद्या और विनय से संपन्न बताया गया है। कोई स्वभाव से ही क्रोधी हो, विनय अर्थात बड़ों से सम्मान और बच्चों से प्रेम भाव न रखता हो, तो उसका ब्राह्मण होना भी संदेह के घेरे में आ जाता है। व्यक्ति केवल ब्राह्मण होने के कारण सम्मान का अधिकारी नहीं हो जाता। ऐसा भी नहीं है कि ये बात केवल एक बार कही गयी है। थोड़ा पहले चौथे अध्याय के पैंतीसवें श्लोक में भी कहा गया है –
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4.35
यहाँ मोटे तौर पर कहा जा रहा है कि तत्त्वज्ञान का अनुभव करनेके बाद व्यक्ति फिर इस तरह से मोहित नहीं होता और अर्जुन! तत्त्वज्ञान से तुम सभी प्राणियों को पहले अपने में और उसके बाद परमात्मा में लीन देखोगे। अर्थात जो भेदभाव है वो केवल एक बाहरी आवरण है, और जो सचमुच दृष्टि रखता है, वो स्वयं को किसी से अलग नहीं मानता, न ही कभी ऐसा होगा कि उसे किसी में परमात्मा के दर्शन नहीं होते। भारतीय (हिन्दुओं की) परम्पराओं में एक दूसरे का अभिवादन करते समय जो प्रणाम करते हुए, या नमस्कार की परिपाटी है, वो इसी भाव को दर्शाती है। आगे छठे अध्याय में भी फिर से यही भाव नजर आ जायेगा –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30
इस श्लोक में बताया गया है कि जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझ में देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। यानि भक्त की दशा में आप एक मनुष्य और दूसरे में उसके जन्म, उसके कर्म, उसकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति, शारीरिक अवस्था इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं कर रहे होंगे। ऐसी स्थिति में आपको तो सभी ओर ईश्वर के दर्शन होंगे ही, साथ ही ईश्वर भी हर समय आपको देख रहे होंगे। भक्त के लिए जैसे भगवान होते हैं, वैसे ही भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं। बिमारी से ठीक होता हुआ पंडित लीलाधर इसी अवस्था को प्राप्त होने लगता है। इसके लिए तेरहवें अध्याय के एकत्तीसवें श्लोक में कहा गया है –
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31
भगवान कहते हैं कि मनुष्य जब भूतों के अलग-अलग भावों को एक परमात्मा में स्थित देखता है तथा परमात्मा का ही विस्तार समझने लगता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है। ठीक होने पर पंडित लीलाधर को जब चौधरी और दूसरे लोग बीमार दिखते हैं, तबतक वो अपनी पुरानी वाली स्थिति में नहीं थे। अंत के पंडित लीलाधर की जो स्थिति है वो सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की सी स्थिति है –
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19
सातवें अध्याय के इस श्लोक में कहा गया है कि कई जन्मों के उपरांत मनुष्य का जन्म मिलता है। इस मनुष्य जन्म में ‘सब कुछ परमात्मा ही है’, ऐसा मानने वाला कोई महात्मा तो पूरी तरह ईश्वर की ही शरण में हो, वह अत्यन्त दुर्लभ है। कहानी के अंत में इस दुर्लभ स्थिति को प्राप्त करने का फल भी पंडित लीलाधर को तुरंत ही नजर आने लगता है। जिस धर्म-परिवर्तन को रोकने के उद्देश्य से वो उस क्षेत्र में गए थे, वो अपने आप ही होने लगता है। उन्हें अलग से किसी को संस्कार या आचरण सिखाने की आवश्यकता नहीं रह गयी थी। अपने आप ही लोग सनातन की ओर मुड़ने लगे!
बाकी प्रेमचंद की बात चल रही थी तो उनकी एक कथा के जरिये हमने जो कुछ श्लोक बताये हैं, वो नर्सरी स्तर के हैं। पीएचडी के लिए भगवद्गीता आपको स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!