“तो क्या झूठ बोलना अच्छी बात है?”
“नहीं, अच्छी बात तो नहीं”, मैंने समझाने की कोशिश करते हुए कहा। “असल में गलत-सही, अच्छा-बुरा या फिर पाप-पुण्य भी इस बात से तय नहीं होता कि किया क्या गया है। वो इस बात पर निर्भर हैं, कि उस हरकत के पीछे आपकी मंशा क्या थी, योजना क्या थी।”
इस उत्तर से बच्चा बहुत संतुष्ट नहीं हुआ, “गलत काम करने के पीछे अच्छा इरादा हो सकता है?” उसने आगे पूछा।
“इसके लिए हमलोग एक कहानी देख सकते हैं”, बात आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा। “हाँ कहानी!” बच्चे को अब कार्टून के मुकाबले भी कहानियां पसंद आने लगी थीं।
“एक बड़े सेठ ने संन्यास लिया और अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। दान करने के बाद वो वनों में जाकर रहने लगे और वहीँ तपस्या करते थे। अपने गुरूजी से दीक्षा लेते हुए उन्होंने हमेशा सच बोलने का व्रत भी ले लिया। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि आस-पास भी फैली और आस पास के ग्रामों से लोग भी उनके पास आने लगे। जंगल था तो वहाँ कुछ डाकू भी रहते थे। उन्होंने देख रखा था कि ये साधू हमेशा सच बोलता है, लोग भी इन्हें काफी सम्मान से देखते हैं। इसलिए वो भी साधू को परेशान नहीं करते थे, उनके आश्रम से दूर ही रहते थे।
तो एक बार हुआ यूँ कि एक बड़े व्यापारी को दूसरे किसी नगर में जाने की जरुरत पड़ी। पुराने दौर में अभी जैसे बैंक नहीं होते थे कि पैसे ऑनलाइन ट्रान्सफर किये जा सकें। व्यापारी को भी दूसरे नगरों में व्यापारियों को देने के लिए धन चाहिए था। इसलिए वो अपने साथ कई सोने के सिक्के – मोहरें लेकर निकला। रास्ता लम्बा था और बीच में वही जंगल था जहाँ ये साधू रहते थे। जंगल में व्यापारी के पीछे एक डाकू पड़ गया। डाकू से बचकर भागते व्यापारी को साधू का आश्रम दिखा तो वो भागकर साधू के आश्रम में पहुंचा। उसने साधू को अपनी समस्या बताई और उनके ही आश्रम में छुप गया।
थोड़ी ही देर में उसका पीछा करता डाकू भी आश्रम में आ गया। डाकू को पता था कि ये साधू तो झूठ बोलेंगे नहीं, इसलिए उसने सीधे साधू से ही पूछ लिया – बताइये अभी-अभी भागकर जो व्यापारी आया था, वो किधर गया? कहाँ छुपा है?”
इतनी कहानी सुनाकर मैं रुक गया। फिर मैंने बच्चे से पूछा, “तुम्हारे हिसाब से सच बोलने वाले साधू को व्यापारी का पता बता देना चाहिए?” बच्चा इस प्रश्न पर सोच में नहीं पड़ा। “नहीं सच बोलना अच्छी बात है, लेकिन डाकू को सच नहीं बताना चाहिए।”
“इससे तो साधू का जो सिर्फ सच बोलने का व्रत था, वो टूट जाता न?” मैंने थोड़ा और कुरेदा। “हाँ, लेकिन फिर डाकू व्यापारी को मार देगा, देट्स बैड टू!” थोड़ी देर रूककर उसने पूछा, “फिर कहानी में क्या हुआ? साधू ने क्या बताया?”
“साधू ने जवाब दिया कि आँखे जिन्होंने व्यापारी को देखा, वो बोल नहीं सकतीं, और मुख जिससे बोला जा सके, उन्होंने व्यापारी को देखा नहीं। ऐसे में मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि व्यापारी किधर भागा?”
“ये अच्छा जवाब था”, बच्चा हंस पड़ा। “लेकिन क्या डाकू इस जवाब से मान गया? उसे पता नहीं चला कि साधू उसे ट्रिक कर रहा है?”
“कभी-कभी किसी और जवाब से कोई और बात समझ में आ जाती है। जैसे हम लोग किसी और कहानी से ये तय करने की कोशिश कर रहे थे कि झूठ बोलना चाहिए या नहीं।”
“मतलब डाकू को ये भी समझ आया कि आँख और मुंह सब एक ही बॉडी के पार्ट हैं, मगर उसके साथ ही कुछ और भी?” बच्चे ने पूछा।
“हाँ, ये वो है जो भगवद्गीता के पांचवे अध्याय के अट्ठारहवें श्लोक में लिखा होता है”, मैंने बताया।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18
यानी, जो ज्ञानी हैं वो विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखनेवाले होते हैं।
“कुछ ऐसा ही डाकू के साथ भी हुआ। जिस व्यापारी की वो हत्या करने जा रहा था, जो साधू उसे रोकने का प्रयास कर रहा था, और स्वयं अपनेआप में कोई अंतर उसे जब दिखना बंद हो गया तो फिर वो लूट-पाट कैसे कर पाता?”
बच्चे ने थोड़ी देर सोचा और फिर कहा, “लेकिन उन सभी के पहले के काम से भी तो पाप हुआ होगा न?”
“ज्ञान कर्मों को भी भस्म कर देता है, ऐसा भी भगवद्गीता में ही लिखा है”, मैंने आगे याद दिलाया –
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37
यानि, जैसे जलती हुई आग ईन्धन को पूरी तरह भस्म कर देती है, वैसे ही, अर्जुन, ज्ञान भी अग्नि की तरह सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देता है।
“मोटे तौर पर ऐसा कहा जा सकता है कि जिस साधू के पास ये सिखा देने लायक ज्ञान था कि सभी में एक ही परमात्मा का वास है, उसके आँखें बोल नहीं सकती और मुंह जो बोल सकता है, उसने देखा नहीं कहने जैसा थोड़ा सा झूठ बोलने का कर्म भी भस्म हो गया होगा। वो डाकू से व्यापारी को बचाने का पुण्य लेना चाहते तो झूठ बोलने का पाप भी लगता। ऐसे ही डाकू के जो कर्म थे, जो संभवतः पाप रहे होंगे, वो भी भस्म हो गए होंगे।”
“मगर जो व्यापारी था उसका क्या हुआ?” बच्चे को कहानी का तीसरा पात्र याद था।
“वो अपने पैसे की पोटली पकड़े छुपा बैठा था न”, मैंने ठहाका लगाते हुए कहा। इस प्रश्न की मुझे कोई अपेक्षा नहीं थी। पहले किसी ने मुझसे ये पूछा ही नहीं था! “जैसे पहले से ही भरे ग्लास में और पानी नहीं भरा जा सकता वैसे ही जो धन को पकड़े बैठा हो, उसे ज्ञान कैसे मिल पायेगा?” मैंने समझाने का प्रयास किया।
“हाँ, एक चीज रखे बिना दूसरी चीज नहीं उठा सकते”, कहते-कहते बच्चे ने अपने हाथ से रिमोट रखा और वहीँ पड़ा रूबिक्स क्यूब उठा कर भाग चला। संभवतः उसे नयी-नयी सीखी कहानी, किसी और को सुनानी थी।
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