बाबा का ढाबा, कर्म और अहंकार

मिथिलांचल में एक कहानी होती है “दू गो दे”। दादी-नानी की सुनाई जाने वाली इस कहानी में राजा होता है। वैसे आमतौर पर लोककथाओं में राजा कम ही मिलता है और इससे लोककथाओं पर शोध करने वालों को बड़ी दिक्कत भी रहती है। ऐसे शोधकर्ता अक्सर बायीं ओर झुके हुए होते हैं तो उनका मानना होता है कि कहानियां कभी आम लोगों की लिखी ही नहीं जाती। सर्वहारा वर्ग को भारतीय लोककथाओं, कहानियों में जगह मिलने से अपनी थ्योरी की धज्जियाँ उड़ते देखकर बेचारे थोड़े असहज हो जाते होंगे। खैर तो हमारी कहानी में राजा साहब थे। कई दूसरी कहानियों की तरह ये राजा साहब भेष बदलकर प्रजा का हालचाल लेने भी नहीं निकलते थे।
 
सामंती सोच के रहे होंगे, तभी गरीब जनता के बीच भी वो रथ पर निकल जाते थे। एक रोज वो रथ पर सवार, कहीं से लौटकर अपने दरबार की ओर आ रहे थे। उनके साथ ही रथ पर उनका वयोवृद्ध मंत्री भी था। बाजार से रथ निकल ही रहा था कि राजा साहब की नजर कोने में खड़ी भीख मांगती एक युवती पर पड़ी। ये भीख मांगती युवती काफी सुंदर थी। मंत्री अनुभवी था, उसने भांप लिया कि राजा साहब की नजर किधर है। वो बोला, जाने दें महाराज, आप हर मामले में दखल नहीं दे सकते। बात आई गयी हो गयी मगर कुछ दिन बीतते बीतते राजा साहब का रथ फिर से उधर से गुजरा और उनका ध्यान फिर से उस सुन्दर सी भीख मांगती युवती पर गया।
 
मंत्री साथ ही था तो उसने फिर से समझाया, राजा साहब आप हर मामले में दखल दें, ये उचित नहीं। राजा बोले, इतनी सुन्दर युवती भला भीख मांगते रहे, वो भी मेरे ही राज्य में, ऐसा मैं कैसे देखता रहूँ? मंत्री ने फिर समझाया, महाराज लोगों का स्वभाव होता है। सबकुछ मिला हुआ हो फिर भी अपने संसाधनों के सदुपयोग के बदले वो नाश ही करेंगे। आप हरेक का भाग्य तो बदल नहीं सकते! राजा साहब अड़ गए, बोले, मैं राजा हूँ, भाग्य कैसे नहीं बदल सकता? मैं उस भिखारन से विवाह कर लेता हूँ। रानी होगी तो उसे भीख मांगने की जरुरत ही नहीं रहेगी। मंत्री अच्छी हैसियत में जरूर था, लेकिन सामंती व्यवस्था में सीधे सत्ता का विरोध करने पर उसका भी सर्वहारा की ही तरह, सर कलम हो सकता था, ये वो अच्छी तरह जानता था ।
 
मंत्री चुप लगा गया और राजा ने भिखारन से शादी कर ली। सत्ता का सर्वहारा से विवाह देखकर राज्य का बुद्धिपिशाच वर्ग बल्लियों उछलने लगा। चौक-चौराहों पर डपली बजाते हुए किरांतीकारियों ने राजा साहब की प्रशंसा में नुक्कड़ नाटक किये। ऐसे बुद्धिपिशाच अक्सर पूंजीपतियों की जेब में ही पड़े रहते हैं। हाल के दौर में भी बजाज के समर्थन में कूदकर आये लिबटार्ड दिखे ही थे। जनता को चूंकि ये असलियत अच्छी तरह पता थी कि इन किराये की कलमों का आका कौन है, इसलिए उसने “किरांती बस आने वाली है” के भाषणों में भीड़ तो खूब लगाईं, मगर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। समय बीतने लगा तो जनता भी नए उत्सवों की खोज में निकली और बुद्धिपिशाच वर्ग भी नए मुद्दे ढूँढने आगे बढ़ा।
 
उधर राजा साहब ने भिखारन से विवाह कर लिया था तो भिखारन रानी की विचित्र दशा थी। आजीवन उसे भिक्षा पर पलने और लोगों से दुत्कारे जाने की ही आदत थी, तो बिना चार गालियाँ खाए मिल जाने वाला बढ़िया भोजन उससे खाया ही ना जाए! महल में ना ठंड सताती, ना बारिश, तो उसे नींद भी मुश्किल से आती। अभाव था ही नहीं, सोचने भर की देर होती कि वो चीज़ उपलब्ध हो जाती। ऐसे में उसका जीवन मुश्किल से कट रहा था कि एक रात राजा साहब को याद आया कि चलकर देखें भिखारन रानी कैसी है। बूढ़े मंत्री को उसकी मूर्खतापूर्ण सलाह पर डपटना भी था, इसलिए उसे साथ लिए एक दिन दरबार ख़त्म होने पर राजा साहब भिखारन रानी के महल की ओर चले। दरबार का काम निपटते देर हो गयी थी, और राजा-मंत्री काफी देर से महल पहुंचे।
 
द्वारपालों ने अन्दर जाने दिया, मगर अधिकतर कारिंदे सो रहे थे। वहां जब राजा-मंत्री पहुंचे तो देखा कि रानी जाग रही है और महल के खम्भों के पास एक-एक करके जाती है। आँचल फैलाकर वो खम्भों से कहती “दू गो दे”! खम्भा कुछ भी कहाँ से देता? तो इनकार किये जाने की तसल्ली में भिखारन रानी मुदित होती दौड़-दौड़ कर खम्भों से भीख मांगे जा रही थी!
 
अब तक आपमें से कई लोगों ने “बाबा का ढाबा” की कहानी पढ़ ली होगी। उसे पिछले लॉकडाउन के वक्त हालात से परेशान देखकर किसी यूट्यूबर ने उसका वीडियो बनाया और इन्टरनेट पर डाल दिया था। लोगों से मदद की अपील होते ही उसके पास करीब चालीस-पैंतालिस लाख रुपये की मदद पहुँच गयी। इतने पैसे अचानक मिल जाएँ तो मन डोलना ही था। यहाँ भी वही हुआ और कांता प्रसाद यानि बाबा का ढाबा वाले ने यूट्यूबर पर ही घोटाला करने का आरोप भी लगा दिया। इकठ्ठा हुए पैसों से उन्होंने नया रेस्तरां खोला और व्यापार में भी जुट गए। उनका रेस्तरां चला नहीं। अब वो वापस वहीँ अपने पुराने मालवीय नगर वाले ठिकाने पर पहुँच गए हैं।
 
ऐसी स्थितियों के लिए भगवद्गीता का एक श्लोक याद आता है –
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28
 
यहाँ मोटे तौर पर ये बताया जा रहा है कि गुण और कर्म के विभाग को समझने वाले जानते हैं कि गुणों के कारण कर्म हो रहे हैं, वो कर्म में आसक्त नहीं होते। इसी को आगे बढ़ाकर पाँचवे अध्याय में कहा गया है –
 
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8
 
देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, सांस लेता हुआ भी ज्ञानी व्यक्ति ये जानता है कि मैं कर्म नहीं करता।
 
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।3.5
 
प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सभी से कर्म करवा लिया जाता है। बाबा का ढाबा चलाते समय भी वो केवल कर्म कर रहा था। ऐसे ही जिस यूट्यूबर ने उसकी मदद की थी उसके लिए भी कहा जा सकता है कि वो केवल रजोगुण से प्रेरित होकर थोड़े यश के लिए एक दुखी व्यक्ति का भला कर रहा था। जिन लोगों ने दान दिया और हम उनका नाम भी नहीं जानते उन्होंने सतोगुण से प्रेरित होकर कार्य किया।
 
यहाँ बाबा का ढाबा चलाते कांता प्रसाद के पास इस बात के पूरे अवसर थे कि वो लॉकडाउन में सौ पचास लोगों को खाना बांटना शुरू कर देते। उनके पास ये काम करने की क्षमता और अवसर दोनों आये थे। उनके इस काम में बहुत पैसे लग जाते, ऐसा भी नहीं था। अगर उन्होंने ऐसा कुछ शुरू किया होता तो जैसे ऐसा करने वाले कई लोगों को दान मिला, वैसे ही उन्हें भी मिलता। इससे यश तो आता ही, साथ ही लोगों के लिए उनके ढाबे-रेस्तरां में खाना एक पुण्य कार्य जैसा समझा जाता और दूसरे विकल्प छोड़कर भी लोग उनका ढाबा ढूंढ लेते। अफ़सोस कि उनका व्यवहार बदला नहीं। माना जाए कि तमोगुण के प्रभाव से वो अपनी मदद करने वाले से स्वयं को महान मान बैठे।
 
बाकी सीखने के लिए जरुरी नहीं कि अनुभव स्वयं ही किये जाएँ और बाबा का ढाबा जैसी घटना जब अपने साथ हो जाए तब आप कर्ता होने का अहंकार त्यागें। कभी कभी दूसरो को देखकर भी सीखा जा सकता है। अरे हाँ, लोककथाओं और घटनाओं के माध्यम से ये जो पढ़ा डाला है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा?
 
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