भगवद्गीता और माया

आदत सी है तो बात फिर से फिल्मों से ही शुरू करेंगे। ये प्रसिद्ध सी फिल्म है “हैरी पॉटर एंड द फिलोस्फर्स स्टोन”, जो कि इसी नाम के एक उपन्यास पर आधारित थी। किताबों के रूप में हैरी पॉटर श्रृंखला तो काफी प्रसिद्ध थी ही, फिल्मों के रूप में भी इसे ख्याति मिली। जैसा कि नाम से जाहिर है, इस फिल्म की कहानी “फिलोस्फर्स स्टोन” पर आधारित थी। जैसे भारत में पारस पत्थर की किम्वदंती चलती है, फिलोस्फर्स स्टोन भी कुछ कुछ वैसी ही चीज़ मानी जाती है। जैसे पारस छूने से लोहा स्वर्ण बन जाता है वैसे ही फिलोस्फर्स स्टोन से भी सोना बनता है। इसके अलावा इससे पानी को बदलकर एक औषधि सी बनती है (एलेक्सिर ऑफ़ लाइफ) जिससे इंसानों की उम्र हजारों साल तक बढ़ाई जा सके।

मगर हमारी इस पूरी फिल्म की कहानी में उतनी रूचि नहीं। मेरा ध्यान फिल्म के केवल एक-दो हिस्सों पर रहा जिसमें एक विचित्र सा दर्पण दिखाते हैं। इस दर्पण का नाम “मिरर ऑफ़ इराईज्ड” होता है। ये दर्पण व्यक्ति की छवि नहीं दिखाता था। ये सामने खड़े व्यक्ति को उसके मन में दबी-छुपी कोई इच्छा दिखा रहा होता था। जब हैरी इसके सामने खड़ा होता तो उसका परिवार (माता-पिता) और पिछली कई पीढ़ियाँ दिखती थीं। ऐसा इसलिए था क्योंकि हैरी के माता-पिता की मौत हैरी के बचपन में ही हो गयी थी और अनाथ बड़े हुए हैरी के लिए माता-पिता और परिवार एक बड़ा सपना थे। इसकी तुलना में उसके मित्र रॉन को प्रसिद्धि पसंद थी तो वो आईने में खुद को एक बड़ा कप जीतते और लोगों को प्रशंसा में तालियाँ बजाते देखता था।

फिल्म और कहानी में दर्पण के इच्छा या “डिजायर” को दर्शाने का तरीका अनूठे अंदाज से दर्शाया गया है। अंग्रेजी में लिखने पर “Erised” बिलकुल “Desire” का उल्टा होता है। ऐसे ही दर्पण के ऊपर लिखा वाक्य किसी प्राचीन भाषा में लिखा गया बताया गया है। वहाँ “”Erised stra ehru oyt ube cafru oyt on wohsi” लिखा होता है, और उसे भी अगर उल्टा करें और शब्दों के बीच की खाली जगह को थोडा ठीक करें तो “I show not your face but your heart’s desire” बन जाता है। कहानी का खलनायक प्रोफेसर कुइर्रेल जब आईने में देखता है तो खुद को अपने मालिक को फिलोस्फर्स स्टोन देता हुआ दिखता है। डम्बल्डोर बताता है कि कोई संतुष्ट व्यक्ति इस दर्पण को बिलकुल आम आईने की तरह प्रयोग कर पायेगा। साधारण लोगों के लिए वो दर्पण पूरे जीवन उलझाए रखने वाला, बिलकुल सपने में जीने जैसा अनुभव करवाने वाला, एक छलावा था। खुद को अपने सपने का नायक देखना, कामयाब, विजयी देखना, उलझाये रख सकता है।

भारतीय कहानियों पर चलें तो इसका उल्टा भी होता है। ऐसी एक कहानी राजा जनक की है। इस कथा में राजा जनक सोते-सोते एक स्वप्न देखते हैं जिसमें उनके शत्रुओं ने उनके राज्य पर हमला कर दिया होता है। राजा जनक युद्ध हार जाते हैं, उनका महल जला दिया जाता है, राज-पाट छिन जाता है। दीन-हीन अवस्था में राजा जनक भिखारी होकर दुःख पा रहे होते हैं कि अचानक उनकी नींद खुल जाती है। अब राजा जनक सोचते हैं, ये सच या वो सच? जो राज्य का सुख मैं अभी भोग रहा हूँ वो सुखकर है, लेकिन सपने में जो व्यथा हो रही थी, वो भी तो उतनी ही सत्य प्रतीत हो रही थी। ये प्रश्न वो दरबारियों से करते हैं। दरबारी तो जवाब नहीं दे पाते लेकिन बाद में अष्टावक्र आते हैं और समझाते हैं कि जगत उतनी ही मिथ्या है जितना उनका स्वप्न था।

संसार को आप अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जानते हैं। स्वाद, स्पर्श, गन्ध, दृष्टि, और श्रवण की क्षमता न हो तो जगत भी स्वप्न जितना ही झूठा है। बिलकुल वैसे ही जैसे मन की क्षमता न हो स्वप्न के होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसे सपनों के बारे में एक उपनिषद में भी चर्चा की गयी है। माण्डूक्य उपनिषद् सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है। इसमें बारह ही मन्त्र होते हैं। इसमें सोने की चार अवस्थाओं की बात की गयी है। सामान्य जागृत अवस्था जिसमें शरीर और जगत का भान रहता है, फिर आती है नींद, उसके बाद गहरी निद्रा जहाँ स्वप्न आने लगते हैं और फिर जब शरीर का भान भी नहीं रहता और स्वप्न भी नहीं आते यानी तुरीय अवस्था। इस उपनिषद पर आदिशंकराचार्य के गुरु के गुरु गौड़पादाचार्य ने कारिका लिखी। इस तरह से बारह मन्त्रों से बढ़कर ये करीब चौंसठ श्लोकों का हुआ और फिर जब आदिशंकराचार्य ने इसपर भाष्य लिखा तो ये और भी लम्बा हो गया। आज माण्डूक्य उपनिषद् खरीदकर पढ़ने लगें तो एक पन्ने में बारह मन्त्र नहीं, करीब ढाई सौ पन्ने की पुस्तक हो जाती है।

अब अगर आप यहाँ तक पहुँच गए हैं तो बता दें कि ये सामान्य सी कहानियाँ इसलिए बतायीं हैं, क्योंकि हम माया के स्वरुप देख रहे थे। किसी मृतक को हैरी की तरह जीवित करने की सोचना, या फिर रॉन की तरह बिना श्रम के प्रशंसा और विजय की इच्छा तामसिक ही कही जा सकती है। राज्य के लिए राजा जनक का सोचना राजसी होगा। गौड़पादाचार्य या आदिशंकराचार्य अपने हिसाब से तो एक उपनिषद का अर्थ समझा रहे थे। इसके बाद भी उनके किये का नतीजा ये हुआ है कि मूल बारह मन्त्र मन्त्रों पर पहले एक पर्दा, फिर दूसरा और अंत में संस्कृत से दूसरी भाषाओं में अनुवाद के कारण एक तीसरा पर्दा पड़ गया है। ये माया का सात्विक रूप है। इस तीन गुणों वाली माया के विषय में भगवान श्री कृष्ण ने भगवद्गीता के सातवें अध्याय में कहा है –

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14

यानी मेरी इस त्रिगुणमयी माया को पार करना बड़ा कठिन है, लेकिन जो मेरी शरण में आ जाते हैं, वो इसे पार कर जाते हैं। इस सम्बन्ध में भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में कहा गया है –

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61

अर्थात अर्जुन, मनुष्यों के ह्रदय में बैठकर ईश्वर अपनी माया के माध्यम से, मनुष्यों को ऐसे घुमाते रहते हैं, मानों उन्हें किसी यंत्र पर बिठा रखा हो। वैसे तो भगवद्गीता में माया के विषय में और भी श्लोक हैं लेकिन चूँकि माण्डूक्य उपनिषद् की चर्चा की है तो ये भी बता देना चाहिए कि इस उपनिषद के मन्त्र ॐ के बारे में हैं। भगवद्गीता में जब सातवें ही अध्याय का आठवां श्लोक देखेंगे तो वहाँ कहा गया है –

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8

इस श्लोक में (बाकी बातों के अलावा) भगवान कहते हैं “सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मैं हूँ”। जब भगवद्गीता को उपनिषदों का सार कहा जाता है तो वो इसी लिए कहा जा रहा होता है क्योंकि जो यहाँ लिखा मिलेगा, वो कहीं न कहीं उपनिषदों से आता है, या उपनिषदों में कही बातों का व्यावहारिक प्रयोग है।

आज गीता जयंती मनाई जा रही है और सोशल मीडिया के फैलाव के साथ ऐसे अवसरों की जानकारी जन सामान्य में फैलने भी लगी है। बाकी सिर्फ आयोजन की जानकारी नहीं, मूल ग्रन्थ भी पढ़कर स्वयं सीख लें तो बेहतर होगा, क्योंकि जो हमने बताया वो नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं भगवद्गीता पढ़नी होगी। ये तो याद ही होगा?

#GitaJayanti