द ग्रेट डिबेटर्स

मासूम, भोले-भाले, क्यूट से हिन्दुओं के देखने लायक एक फिल्म है “द ग्रेट डिबेटर्स”। ये फिल्म 2007 में आई थी और इसकी कहानी दस वर्ष पहले (1997 में) विली कॉलेज डिबेट टीम पर अमेरिकन लिगेसी नाम की एक पत्रिका में छपे लेख पर आधारित थी। फिल्म बनी जरूर इस सदी में है, लेकिन इसकी कहानी करीब एक शताब्दी पहले 1930 के दौर की एक घटना पर आधारित है। विली कॉलेज, मेथोडिस्ट चर्च से जुड़ा एक पुराना कॉलेज है। फिल्म में डेंजेल वाशिंगटन ने, मेल्विन बी टोल्सन नाम के विली कॉलेज की डिबेट टीम के कोच की मुख्य भूमिका निभाई है। मोटे तौर पर कहा जाए तो अश्वेत लोगों को गोरे लोगों के बराबर के वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने और जीतने के अवसर मिल सकें, कोच टोल्सन इसी प्रयास में लगे हुए थे।
इस दौर में जिम क्रो कानून चलते थे और अश्वेतों के लिए “लिंच मोब” का शिकार होना भी एक आम घटना थी। टेक्सास में उस वक्त “ग्रेट डिप्रेशन” का दौर था, यानि नौकरियां भी कम रही होंगी और ऐसे में सबसे गरीब तबके से आने वाले अश्वेतों के लिए सिर्फ अवसर कम नहीं होते थे, बल्कि उनका अपराधों की तरफ मुड़ जाना भी आम बात थी। फिल्म की कहानी में जो पात्र लिए गए हैं, वो सभी वास्तविक रूप से इसी डिबेट से जुड़े हुए नहीं थे। चौदह साल का एक किशोर जो फार्मर (जूनियर) की भूमिका में है, वो बाद में “कांग्रेस ऑफ़ रेसियल इक्वलिटी” की स्थापना करता है। एक दूसरा किरदार हेनरीटा बेल वेल्स पर आधारित है, जो कवियत्री हुई और अश्वेत-श्वेत यानी अलग-अलग नस्लों की डिबेट में विली कॉलेज की 1930 की टीम से इकलौती स्त्री थी।
फिल्म की कहानी पूरी तरह से सच्ची नहीं है। फिल्म में विली कॉलेज के छात्रों की टीम को हावर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों के साथ डिबेट करते और जीतते दिखाते हैं। असल में उस वक्त डिबेट की चैंपियन यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथ कैलिफोर्निया थी। विली की डिबेट टीम यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथ कैलिफ़ोर्निया से जीत तो गयी थी, लेकिन उन्हें इसके लिए कोई ख़िताब लेने की इजाजत नहीं दी गयी थी। दुसरे विश्वयुद्ध के बाद जब अश्वेतों को गोरों से मुकाबला करने की इजाजत मिली तब कहीं जाकर विली की टीम खुद को विश्वविद्यालय स्तर की डिबेट का विजेता घोषित कर पायी। कानून कैसे अश्वेतों को गोरों से अलग करते थे, ये अगर दिख जाये तो हजम करना थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि भारतीय लोगों को रंगों या नस्लों के आधार पर कानूनी भेदभाव करने की आदत नहीं होती।
जाहिर है कि फिल्म की कहानी हम सिर्फ फिल्म के बारे में बताने के लिए नहीं बता रहे, इसके बहाने से हम फिर से भगवद्गीता ही पढ़ाने वाले हैं। फिल्म को गौर से देखेंगे तो इसमें इसाई थियोलोजीयन ऍगस्टीन ऑफ़ हिप्पो के जाने-पहचाने वाक्य “एन अनजस्ट लॉ इज नो लॉ एट आल”, यानी “असमानता का कानून कोई कानून ही नहीं है” का बार-बार बदले हुए स्वरूपों में इस्तेमाल हुआ है। कभी इसके जरिये दर्शाया जाता है कि “क्या किया जाना चाहिए”, कभी विचार करते हैं कि “क्या किया जा सकता है”, और कभी बताते हैं कि “हम करना क्या चाहते हैं”। ये वाक्य फार्मर (जूनियर और सीनियर दोनों) ही फिल्म में अलग अलग जगह प्रयोग में ला रहे होते हैं। हिन्दुओं के लिए ये सीधे-सीधे भगवद्गीता में न्याय से सम्बंधित अर्जुन के प्रश्न और श्री कृष्ण के उत्तर हो जाते हैं।
भगवद्गीता की शुरुआत जहाँ होती है, वहां युद्ध शुरू होने की बात की जा रही होती है। महाभारत में दिव्य दृष्टि पाए संजय, युद्ध के दसवें दिन जब धृतराष्ट्र को भीष्म के शर-शैय्या पर गिरने की सूचना देने आते हैं, तब भगवद्गीता के बारे में बताते हैं। ये युद्ध शुरू ही न्याय-अन्याय के आधार पर हुआ था। पांडवों से इर्ष्या रखने वाला दुर्योधन शुरू से ही द्रोणाचार्य के भाई के साथ मिलकर कुचक्र रचता रहा था। कभी भीम को विष देने और कभी लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार डालने के षड्यंत्र उसने बहुत पहले ही किये थे। जब स्थापित नियमों से न्याय नहीं मिल पाया तभी युद्ध की स्थिति आई थी, इसलिए कहा जा सकता है कि असमानता के कानूनों के कारण ही पांडवों को कानून को कानून मानने से इंकार करना पड़ा था।
भगवद्गीता के पहले अध्याय का नाम ही अर्जुनविषाद योग है। यहाँ अर्जुन इसी चिंता में होता है की “क्या किया जाना चाहिए”? उसे लग रहा होता है कि एक ऐसा युद्ध जिसमें अपने ही बन्धु-बान्धवों को मारना पड़े, वो उचित भी है क्या? अर्जुन का विचार था कि ऐसा करने पर तो वो भी अन्यायी हो जाएगा और फिर पांडवों में और कौरवों में कोई अंतर ही नहीं रह जायेगा। पहले अध्याय के अड़तीसवें से छियालीसवें श्लोक में अर्जुन का प्रश्न यही था कि फिर उनमें और हममें अंतर क्या रह जायेगा? दूसरे अध्याय के छठे श्लोक में अर्जुन पूछ रहे होते हैं कि युद्ध करना है या नहीं करना है –
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयोयद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।2.6
हम जीतेंगे या वो ये पता नहीं है और धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर वो राज्य भी नहीं लेना चाहते इसलिए अर्जुन चिंता में हैं की “हम करना क्या चाहते हैं”? इसके जवाब में श्री कृष्ण हंसकर कहते हैं कि शब्द तो तुम पांडित्यपूर्ण प्रयोग कर रहे हो, लेकिन बातें मूर्खतापूर्ण ही हैं –
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11
यानि जो मृत नहीं हैं, उनके लिए शोक करने की जरूरत नहीं और जो मृत हैं उनके लिए शोक करने का कोई लाभ नहीं इसलिए पण्डित ऐसे शोक नहीं करते। “हम करना क्या चाहते हैं” वाले प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण अहंकार से जोड़ते हैं। अट्ठारहवें अध्याय के उनसठवें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं –
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59
यहाँ कहा जा रहा है कि मैं नहीं करूँगा ये अर्जुन का अहंकार बोल रहा है, क्योकि उसका स्वभाव उसे युद्ध में लगा ही देगा। यही तीसरे अध्याय के तैंतीसवें श्लोक में भी कहा गया है कि सभी प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करते हैं, फिर इनमें किसी का निग्रह क्या करेगा। अब आप सोच में पड़ सकते हैं कि ऐसे में कर्म कैसे किये जाएँ? तो इस श्लोक को दूसरे कई श्लोकों के साथ देखा जाता है –
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29
यहाँ कहा जा रहा है कि पदार्थों और क्रियाओं से अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। प्रकृति से सम्बन्ध न माननेवाला साधक अपने को अकर्ता ही देखता है। तीसरे अध्याय के सैंतीसवें श्लोक में भी यही कहा गया है कि क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर, अज्ञानी अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है। “द ग्रेट डिबेटर्स” में विली कॉलेज की टीम का कोई भी अपने लिए नहीं लड़ रहा होता है। व्यक्तिगत संघर्षों से ऊपर उनके लिए टीम, फिर कॉलेज, फिर अपने पूरे समुदाय के लिए भावना होती है। इसलिए वो अगर हार भी जाते, तो ये उनकी व्यक्तिगत हार नहीं होती, क्योंकि विजय को भी वो व्यक्तिगत नहीं मान रहे।
बाकी ये फिल्म देखते समय कागज-कलम लेकर बैठें तो तर्क कैसे किये जाते हैं, उनमें गलतियाँ क्या होती हैं, या वाद-विवाद में क्या ध्यान रखा जाता है वो भी सीख सकते हैं। फिर भगवद्गीता खुद पढ़िए क्योंकि ये जो हमने पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है। पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?