मन की गति – तृषाग्नि

कभी सोचा है कि “पेट की आग”, या फिर “काम-वासना से दग्ध होना” जैसे जुमलों में आग या जलने का भाव क्यों प्रयोग किया जाता है? दुधमुंहे या छोटे बच्चों के लिए इसे समझना मुश्किल होगा लेकिन जो जो प्रेमी-प्रेमिका जैसे संबंधों, विवाहित होने का अनुभव रखते हों उनके लिए इसे समझना मुश्किल नहीं होगा। शराब जैसी चीज़ों के शौक़ीन भी आसानी से इस “आग” और “जलने” के भाव को समझ जायेंगे। रूप, रस, गंध, स्पर्श, जैसी चीज़ों की इच्छा क्या होती है, या कैसी होती है ये वो लोग ज्यादा आसानी से समझ सकते हैं, जिन्होंने इसका अनुभव किया हो।
कुछ कुछ ऐसे समझिये कि कोई विदेशी जिसने कभी गाजर का हलवा चखा ही ना हो, उसका गाजर का हलवा खाने का मन तो कर ही नहीं सकता ना? हाँ कोई भारतीय हो, जिसने पहले गाजर का हलवा खाया हो और शुगर फ्री पीढ़ी वाली उम्र पर पहुँचने पर उसे चीनी मना हो, ऐसे में किसी शादी विवाह जैसे आयोजन में सामने उसे गाजर का हलवा रखा दिखे तब क्या होगा? अब कई और लोगों को भी रस, रूप जैसी चीज़ों के प्रति क्या भाव आ सकते हैं, ये समझ आ गया होगा। ऐसे ही भावों, यानी पाँचों इन्द्रियों के निग्रह और मन की गति को रोकने से सम्बंधित पाली भाषा में गौतम बुद्ध के जो महत्वपूर्ण सन्देश आते हैं, “अदित्तपरियाय सूक्त” उनमें से एक है।

ये पाली संग्रह “संयुक्त निकाय” में आता है। संस्कृत-प्राकृत जैसी भाषाओँ का प्रचालन कम होने और अंग्रेजी अनुवादों के ज्यादा प्रचार के कारण कभी-कभी इसे “फायर सरमोन” (Fire Sermon) बुलाते हैं। इलियट की एक विख्यात कविता “द वेस्ट लैंड” की वजह से भी ये प्रचलित है। अंग्रेजी साहित्य में इसके “फायर” या आग से तुलना के पीछे भी संस्कृत-पाली जैसे भारतीय साहित्य ही हैं। बौद्ध धर्म में वैसे तो मध्यम मार्ग की प्रशंसा की गयी है, लेकिन कुछ लोग पूरी तरह इन्द्रियों के निग्रह की ओर भी बढ़ते हैं।
इसी फायर सरमोन को आधार मानकर सरदिंदु बंधोपाध्याय ने एक छोटी सी कहानी लिखी थी। बाद में इस कहानी को आधार बनाकर नबेंदु घोष के निर्देशन में एक फिल्म बनी। बिमल रॉय और हृषिकेश मुखर्जी की क्लासिक्स में से एक ये फिल्म थी “तृषाग्नि”। अंग्रेजी में ये “द सैंड स्टॉर्म” नाम से आती है। इसमें चार ही किरदार हैं और सभी मुख्य किरदार ही हैं क्योंकि नाना पाटेकर, अलोक नाथ, नितीश भरद्वाज और पल्लवी जोशी ने ये किरदार निभाए हैं। इस 1988 में दर्शन के कठिन सिद्धांत को दिखाने के लिए राष्ट्रिय पुरस्कार भी मिला था।
इस फिल्म की कहानी बिलकुल साधारण है जिसमें उच्छंद और पिथुमित्त नाम के दो बौद्ध भिक्षु-सन्यासी हैं, जो एक मठ में रहते हैं। कहानी करीब ईसा से दो सौ साल पहले सारिपुत नाम की किसी जगह घटती है, जो की मध्य एशिया में कहीं रेगिस्तानों में बसा शहर है। यहाँ दस बीस सालों में कभी रेतीले तूफ़ान आते थे। एक दिन भयानक रेतीला तूफ़ान आता है और शहर के दो बच्चे, मठ में भिक्षुओं के साथ शरण लेते हैं। दोनों भिक्षु (अलोक नाथ और नाना पाटेकर) तो बच्चों के साथ बच जाते हैं लेकिन बाकी पूरा शहर ख़त्म हो जाता है।
बच्चे वहीँ बौद्ध भिक्षुओं के पास बड़े होने लगते हैं। लड़का का नाम था निर्वाण (नितीश भरद्वाज) और लड़की बड़ी होकर इति (पल्लवी जोशी) होती है। बौद्ध भिक्षु बच्चों को भी अपने ही जैसा त्यागी-तपस्वी बनाने पर तुले होते हैं, मगर दोनों को एक दुसरे से प्रेम हो जाता है। अपनी जिद पर अड़े भिक्षु लड़के को किसी तरह भिक्षु हो जाने के लिए राजी करते भी हैं तो लड़की उसे खींच कर वापस ले आती है। खीजे, गुस्साए, निराश हुए दोनों सन्यासी, दोनों को मठ से निष्काषित कर देते हैं। उनके निकाले जाते ही, सालों बाद फिर से उस शहर में रेतीला तूफ़ान आता है और फिल्म वहीँ ख़त्म हो जाती है।
वैसे तो फिल्म बौद्ध दर्शन पर है, लेकिन इस फिल्म के साधुओं का नाराज होना देखकर आप भगवद्गीता के दुसरे अध्याय का 62वां और 63वां श्लोक याद कर सकते हैं –
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63
विषयों के बारे में सोचते रहने से उनसे लगाव होगा, जिस से लगाव है उसे पाने की इच्छा भी होगी, इच्छा पूरी ना होने पर गुस्सा आएगा, गुस्से में मूर्खता होगी, मूर्खता में बेवकूफियां करने पर पतन भी होना ही है। दोनों साधु खुद तो संन्यास ले चुके थे, लेकिन मठ को आगे बढ़ाने की उनकी अभिलाषा छूटी नहीं थी। इतने वर्षों तक बच्चों को बचाने के बाद उन्हें सिखाया-पढ़ाया और वो सन्यास लेने के बदले पारिवारिक जीवन व्यतीत करें, ये उनसे हजम नहीं हो रहा था। उनकी निर्वाण को सन्यास दिलवाने की कामना पूरी नहीं होने पर उन्हें गुस्सा आता है, गुस्से में उन्हें निकालने की मूर्खता होती है और अंत का तूफ़ान उनके पतन का प्रतीक है।
यहाँ फ़ौरन तीसरे अध्याय का छठा श्लोक भी याद दिला दें –
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6
केवल ऊपर से विरक्त होने का दिखावा करके अगर मन ही मन उन्हीं सारी चीज़ों की लालसा में हों, तो भी नहीं चलेगेया। सिर्फ दिखावे के लिए नहीं करने वाला कपटी होता है। यानि कहने के लिए तो सनी लियॉन को दुश्चरित्र घोषित करें, अश्लील विज्ञापनों पर आपत्ति जताएं, उन्हें समाज की नैतिकता भ्रष्ट करने वाला बताएं, मगर अकेले में व्हाट्स-एप्प ग्रुप में उसके विडियो आते-जाते हों, तो वो नहीं चलेगा। या तो मन में बंद कीजिये या बोलना बंद कीजिये।
अब इस मन को रोकने की बात को सुनते ही अर्जुन ने भी सोचा था कि ये तो बड़ा मुश्किल काम है ! ये हो भी सकता है क्या? पूछे जाने पर इसी के जवाब में आगे छठे अध्याय में पैंतीसवें और छत्तीसवें श्लोक में भगवान बताते हैं –
श्री भगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36
भगवान बताते हैं कि ये काम मुश्किल जरूर लग सकता है, क्योंकि मन तो चंचल है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य के जरिये ऐसा करना संभव है। मन असंयत हो तो योग की प्राप्ति मुश्किल है, लेकिन प्रयत्नों और सही उपायों से योग की प्राप्ति हो सकती है। मोटे तौर पर कहा जा रहा है कि ये मुश्किल जरूर लग सकता है, मगर बिना मन को वश में किये योगी होना संभव नहीं, और अभ्यास से ये किया जा सकता है।
बाकी बात इतने पर ही ख़त्म नहीं हो जाती। अभ्यास जैसे शब्दों को समझने के लिए भी आपको और कई श्लोक पढने होंगे (जैसे भगवद्गीता 6.26)। खुद ही ढून्ढ के देखिये, क्योंकि ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है। पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?